भारत के संविधान की प्रस्तावना (Samvidhan Ki Prastavana), संविधान की प्रस्तावना क्या है, प्रस्तावना में प्रथम संशोधन कब हुआ, प्रस्तावना में कितनी बार संशोधन किया गया है।
संविधान की प्रस्तावना (Preamble of the Constitution)
सर्वप्रथम अमेरिकी संविधान में प्रस्तावना को सम्मिलित किया गया था तदुपरांत कई अन्य देशों ने इसे अपनाया, जिनमें भारत भी शामिल है। प्रस्तावना संविधान के परिचय अथवा भूमिका को कहते हैं। इसमें संविधान का सार होता है। प्रख्यात न्यायविद् व संवैधानिक विशेषज्ञ एन. ए. पालकीवाला ने प्रस्तावना को ‘संविधान का परिचय पत्र’ कहा है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना पंडित नेहरू द्वारा बनाए और पेश किए गए एवं संविधान सभा’ द्वारा अपनाए गए ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ पर आधारित है। इसे 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा संशोधित किया गया, जिसने इसमें समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता शब्द सम्मिलित किए।
भारत के संविधान की प्रस्तावना | Samvidhan Ki Prastavana
अपने वर्तमान स्वरूप में प्रस्तावना को इस प्रकार पढ़ा जाता है:
“हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए और इसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास व उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिए तथा
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने वाला, बंधुत्व बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्पित होकर
अपनी इस संविधान सभा में आज दिनांक 26 नवंबर, 1949 को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।”
प्रस्तावना के तत्व
प्रस्तावना में चार मूल तत्व हैं:
1. संविधान के अधिकार का स्रोतः प्रस्तावना कहती है कि संविधान भारत के लोगों से शक्ति अधिगृहीत करता है।
2. भारत की प्रकृतिः यह घोषणा करती है कि भारत एक संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक व गणतांत्रिक राजव्यवस्था वाला देश है।
3. संविधान के उद्देश्यः इसके अनुसार न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व संविधान के उद्देश्य हैं।
4. संविधान लागू होने की तिथि: यह 26 नवंबर, 1949 की तिथि का उल्लेख करती है।
प्रस्तावना में मुख्य शब्द
प्रस्तावना में कुछ मुख्य शब्दों का उल्लेख किया गया है। ये शब्द हैं— संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व । इनका विस्तार से उल्लेख नीचे किया गया है:
1. संप्रभुता
संप्रभु शब्द का आशय है कि, भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है। इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने मामलों (आंतरिक अथवा बाहरी) का निःतारण करने के लिए स्वतंत्र है।
एक संप्रभु राज्य होने के नाते भारत किसी विदेशी सीमा अधिग्रहण अथवा किसी अन्य देश के पक्ष में अपनी सीमा के किसी हिस्से पर से दावा छोड़ सकता है’।
2. समाजवादी
वर्ष 1976 के 42वें संविधान संशोधन से पहले भी भारत के संविधान में नीति-निदेशक सिद्धांतों के रूप में समाजवादी लक्षण मौजूद थे। दूसरे शब्दों में, जो बात पहले संविधान में अंतर्निहित थी, उसे स्पष्ट रूप से जोड़ दिया गया और फिर कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी स्वरूप को स्थापित करने के लिए 1955 में अवाडी सत्र में एक प्रस्ताव पारित कर उसके अनुसार कार्य किया।
उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नयी आर्थिक नीति (1991) ने हालांकि भारत के समाजवादी प्रतिरूप को थोड़ा लचीला बनाया है।
3. धर्मनिरपेक्ष
धर्मनिरपेक्ष शब्द को भी 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया। जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने भी 1974 में कहा था। यद्यपि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य ” शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि, संविधान के निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करना चाहते थे । इसीलिए संविधान में अनुच्छेद 25 से 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार) जोड़े गए।
भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएं विद्यमान हैं अर्थात हमारे देश में सभी धर्म समान हैं और उन्हें सरकार का समान समर्थन प्राप्त है”।
4. लोकतांत्रिक
संविधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक” राजव्यवस्था की परिकल्पना की गई है। यह प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथ में हो।
लोकतंत्र दो प्रकार का होता है- प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष
प्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोग अपनी शक्ति का इस्तेमाल प्रत्यक्ष रूप से करते हैं, जैसे- स्विट्जरलैंड में प्रत्यक्ष लोकतंत्र के चार मुख्य औजार हैं, इनके नाम हैं- परिपृच्छा (Referendum), पहल (Initiative), प्रत्यावर्तन या प्रत्याशी को वापस बुलाना (Recall) तथा जनमत संग्रह (Plebiscite)
दूसरी ओर अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधि सर्वोच्च शक्ति का इस्तेमाल करते हैं और सरकार चलाते हुए कानूनों का निर्माण करते हैं। इस प्रकार के लोकतंत्र को प्रतिनिधि लोकतंत्र भी कहा जाता है। यह दो प्रकार का होता है – संसदीय और राष्ट्रपति के अधीन ।
भारतीय संविधान में प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है, जिसमें कार्यकारिणी अपनी सभी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह है। वयस्क मताधिकार, सामयिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता व भेदभाव का अभाव भारतीय राज्यव्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं।
संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल बृहद रूप में किया है, जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है।
5. गणतंत्र
एक लोकतांत्रिक राज्यव्यवस्था को दो वर्गों में बांटा जा सकता है – राजशाही और गणतंत्र राजशाही व्यवस्था में राज्य का प्रमुख (आमतौर पर राजा या रानी) उत्तराधिकारिता के माध्यम से पद पर आसीन होता है; जैसा कि ब्रिटेन में। वहीं गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिए चुनकर आता है, जैसे- अमेरिका ।
इसलिए भारतीय संविधान की प्रस्तावना में गणतंत्र का अर्थ यह है कि भारत का प्रमुख अर्थात् राष्ट्रपति चुनाव के जरिए सत्ता में आता है। उसका चुनाव पांच वर्ष के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है।
6. न्याय
प्रस्तावना में न्याय तीन भिन्न रूपों में शामिल हैं – सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक। इनकी सुरक्षा मौलिक अधिकार व नीति निदेशक सिद्धांतों के विभिन्न उपबंधों के जरिए की जाती है।
सामाजिक न्याय का अर्थ है- हर व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव किए समान व्यवहार । इसका मतलब है समाज में किसी वर्ग विशेष के लिए विशेषाधिकारों की अनुपस्थिति और अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार।
आर्थिक न्याय का अर्थ है कि आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसमें संपदा, आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना भी शामिल है। सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का मिला-जुला रूप ‘अनुपाती न्याय’ को परिलक्षित करता है।
राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि हर व्यक्ति को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे, चाहे वो राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार । सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय के इन तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है।
7. स्वतंत्रता
स्वतंत्रता का अर्थ है— लोगों की गतिविधियों पर किसी प्रकार की रोकटोक की अनुपस्थिति तथा साथ ही व्यक्ति के विकास के लिए अवसर प्रदान करना ।
प्रस्तावना हर व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों के जरिए अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता सुरक्षित करती है। इनके हनन के मामले में कानून का दरवाजा खटखटाया जा सकता है।
जैसा कि प्रस्तावना में कहा गया है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाने के लिए स्वतंत्रता परम आवश्यक है। हालांकि स्वतंत्रता का अभिप्राय यह नहीं है कि हर व्यक्ति को कुछ भी करने का लाइसेंस मिल गया हो। स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है। संक्षेप में कहा जाए तो प्रस्तावना में प्रदत्त स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार शर्तरहित नहीं हैं।
हमारी प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति (1789 1799 ई.) से लिया गया है
8. समता
समता का अर्थ है – समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध ।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की समता प्रदान करती है। इस उपबंध में समता के तीन आयाम शामिल हैं— नागरिक, राजनीतिक व आर्थिक ।
मौलिक अधिकारों पर निम्न प्रावधान नागरिक समता को सुनिश्चित करते हैं:
(अ) विधि के समक्ष समता (अनुच्छेद-14) ।
(ब) धर्म, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर मूलवंश निषेध (अनुच्छेद-15) ।
(स) लोक नियोजन के विषय में अवसर की समता (अनुच्छेद- 16) ।
(द) अस्पृश्यता का अंत (अनुच्छेद-17) ।
(इ) उपाधियों का अंत (अनुच्छेद- 18) ।
राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांत (अनुच्छेद-39) महिला तथा पुरुष को जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन और समान काम के लिए समान वेतन के अधिकार को सुरक्षित करते हैं।
9. बंधुत्व
बंधुत्व का अर्थ है – भाईचारे की भावना । संविधान एकल नागरिकता के एक तंत्र के माध्यम से भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है। मौलिक कर्तव्य ( अनुच्छेद 51क) भी कहते हैं कि यह हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्ग विविधताओं से ऊपर उठ सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करेगा।
प्रस्तावना कहती है कि बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा। पहला, व्यक्ति का सम्मान और दूसरा, देश की एकता और अखंडता । अखंडता शब्द को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया।
प्रस्तावना का महत्व
प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मौलिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार हैं। इसमें संविधान सभा की महान और आदर्श सोच उल्लिखित है। इसके अलावा यह संविधान की नींव रखने वालों के सपनों और अभिलाषाओं का परिलक्षण करती है। संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संविधान सभा के अध्यक्ष सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर के शब्दों में, “संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालिक सपनों का विचार है। “
संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य के. एम. मुंशी के अनुसार, प्रस्तावना ‘हमारी संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्यफल है। ‘
संविधान सभा के एक अन्य सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान की प्रस्तावना के संबंध में कहा, ‘प्रस्तावना संविधान का सबसे सम्मानित भाग है। यह संविधान की आत्मा है। यह संविधान की कुंजी है। यह संविधान का आभूषण है। यह एक उचित स्थान है जहां से कोई भी संविधान का मूल्यांकन कर सकता है।’
सुप्रसिद्ध अंग्रेज राजनीतिशास्त्री सर अर्नेस्ट बार्कर संविधान की प्रस्तावना लिखने वालों को राजनीतिक बुद्धिजीवी कहकर अपना सम्मान देते हैं। वह प्रस्तावना को संविधान का ‘कुंजी नोट कहते हैं। वह प्रस्तावना के पाठ से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक प्रिसिंपल्स ऑफ सोशल एंड पॉलिटिकल थ्योरी (1951) की शुरुआत में इसका उल्लेख किया है।
भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम हिदायतुल्लाह मानते हैं, ‘प्रस्तावना अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के समान है, लेकिन यह एक घोषणा से भी ज्यादा है। यह हमारे संविधान की आत्मा है। जिसमें हमारे राजनीतिक समाज के तौर-तरीकों को दर्शाया गया है। इसमें गंभीर संकल्प शामिल हैं, जिन्हें एक क्रांति ही परिवर्तित कर सकती है”। “
संविधान के एक भाग के रूप में प्रस्तावना
प्रस्तावना को लेकर एक विवाद रहता है कि क्या यह संविधान का एक भाग है या नहीं।
बाड़ी संघ मामले (1960) * में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान में निहित सामान्य प्रयोजनों को दर्शाता है और इसलिए संविधान निर्माताओं के मस्तिष्क के लिए एक कुंजी है। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद में प्रयोग की गई व्यवस्थाओं के अनेक अर्थ निकलते हैं। इस व्यवस्था के उद्देश्य को प्रस्तावना में शामिल किया गया है। प्रस्तावना की विशेषता को स्वीकारने के लिए इस उद्देश्य के बारे में व्याख्या करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का भाग नहीं है।
केशवानंद भारती मामले (1973)” में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व व्याख्या को अस्वीकार कर दिया और यह व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। यह महसूस किया गया कि प्रस्तावना संविधान का अति महत्वपूर्ण हिस्सा है और संविधान की प्रस्तावना में उल्लिखित महान विचारों को ध्यान में रखकर संविधान का अध्ययन किया जाना चाहिए। एल.आई.सी. ऑफ इंडिया मामले (1995) ” में भी पुनः उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का आंतरिक हिस्सा है।
संविधान के अन्य भागों की तरह ही संविधान सभा ने प्रस्तावना को भी बनाया परन्तु तब जबकि अन्य भाग पहले से ही बनाये जा चुके थे। प्रस्तावना को अंत में शामिल किए जाने का कारण यह था कि इसे सभा द्वारा स्वीकार किया गया। जब प्रस्तावना पर मत व्यक्त किया जाने लगा तो संविधान सभा के अध्यक्ष ने कहा, ‘प्रश्न यह है कि क्या प्रस्तावना संविधान का भाग है”।’ इस प्रस्ताव को तब स्वीकार कर लिया गया। लेकिन उच्चतम न्यायालय द्वारा वर्तमान मत दिए जाने के बाद कि प्रस्तावना संविधान का भाग है, यह संविधान के जनकों के मत से साम्यता रखता है।
दो तथ्य उल्लेखनीय हैं:
1. प्रस्तावना न तो विधायिका की शक्ति का स्रोत है और न ही उसकी शक्तियों पर प्रतिबंध लगाने वाला।
2. यह गैर न्यायिक है अर्थात इसकी व्यवस्थाओं को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
प्रस्तावना में संशोधन की संभावना
क्या प्रस्तावना में संविधान की धारा 368 के तहत संशोधन किया जा सकता है। यह प्रश्न पहली बार ऐतिहासिक केस केशवानंद भारती मामले (1973) में उठा । यह विचार सामने आया कि इसमें संशोधन नहीं किया जा सकता क्योंकि यह संविधान का भाग नहीं है। याचिकाकर्ता ने कहा कि अनुच्छेद 368 के जरिए संविधान के मूल तत्व व मूल विशेषताओं, जो कि प्रस्तावना में उल्लेखित हैं, को ध्वस्त करने वाला संशोधन नहीं किया जा सकता।
हालांकि उच्चतम न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना संविधान का एक भाग है। न्यायालय ने अपना यह मत बेरूवाड़ी संघ (1960) के तहत दिया और कहा कि प्रस्तावना को संशोधित किया जा सकता है, बशर्ते मूल विशेषताओं में संशोधन नहीं किया जाए। दूसरे शब्दों में, न्यायालय ने व्यवस्था दी कि प्रस्तावना में निहित मूल विशेषताओं को अनुच्छेद 3680 के तहत संशोधित नहीं किया जा सकता।
अब तक प्रस्तावना को केवल एक बार 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के तहत संशोधित किया गया है। इसके जरिए इसमें तीन नए शब्दों को जोड़ा गया – समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता । इस संशोधन को वैध ठहराया गया।
FAQ
प्रस्तावना शब्द का अर्थ क्या होता है?
प्रस्तावना (preamble) का मतलब होता है परिचय या इंटरोंडक्शन। यानी कि ये संविधान की परिचय अथवा भूमिका हैं। इसमें संविधान का सार होता है। पूरे संविधान में है क्या, उसी का ही एक सूक्ष्मतम रूप है- प्रस्तावना।
संविधान की प्रस्तावना का क्या महत्व है?
भारत के संविधान की ‘प्रस्तावना’ एक संक्षिप्त परिचयात्मक कथन है जो दस्तावेज़ के मार्गदर्शक उद्देश्य और सिद्धांतों को निर्धारित करता है, और यह उस स्रोत को इंगित करता है जहां से दस्तावेज़ अपना अधिकार, अर्थ, लोगों को प्राप्त करता है।
प्रस्तावना का दूसरा नाम क्या है?
प्रस्तावना को उद्देशिका के नाम से भी जाना जाता है।
प्रस्तावना कब बनी?
संविधान की प्रस्तावना जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
प्रस्तावना में कौन से 3 शब्द जोड़े गए हैं?
समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता।
प्रस्तावना के तत्व क्या है?
प्रस्तावना संविधान के दार्शनिक पक्ष को समेटे हुए हैं, जैसे- संप्रभुता, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतंत्र शब्द भारत की प्रकृति के बारे में एवं न्याय, स्वतंत्रता व समानता हैं।
प्रस्तावना को संविधान की आत्मा क्यों कहा जाता है?
क्योंकि भारत के संविधान के आदर्शों के बारे में प्रत्येक विशेष विवरण और विशेषता का पता भारत के संविधान की प्रस्तावना में दिया गया है।
प्रस्तावना का पहला शब्द क्या है?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना इन शब्दों से शुरू होती है – ” हम, भारत के लोग “। ये शब्द भारत के लोगों की सर्वोच्च संप्रभुता को दर्शाते हैं।
प्रस्तावना से क्या लाभ है?
संविधान की प्रस्तावना में उस मौलिक दर्शन और मौलिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार हैं । यह उन मुख्य उद्देश्यों को निर्धारित करता है जिन्हें संविधान प्राप्त करना चाहता है । यह संविधान को दिशा और उद्देश्य देता है ।
प्रस्तावना कितने प्रकार के न्याय होते हैं?
प्रस्तावना में तीन अलग-अलग रूपों में न्याय को समाविष्ट किया गया है- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक।
प्रस्तावना कितनी बार बदली गई?
प्रस्तावना में अब तक केवल एक बार संशोधन किया गया है।
भारत की प्रस्तावना में कितने शब्द हैं?
भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 73 शब्द हैं।
प्रस्तावना कब लागू हुई?
संविधान की प्रस्तावना (Preamble of Constitution Hindi me) पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा तैयार किए गए उद्देश्य प्रस्ताव पर आधारित है, जिसे 22 जनवरी 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
संविधान दिवस कब मनाया जाता है?
वर्ष 2015 से 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ क्या है?
प्रस्तावना (preamble) का मतलब होता है परिचय या इंटरोंडक्शन। यानी कि ये संविधान की परिचय अथवा भूमिका हैं। इसमें संविधान का सार होता है। पूरे संविधान में है क्या, उसी का ही एक सूक्ष्मतम रूप है- प्रस्तावना।