संसदीय सरकार शासन (Sansadiya Shasan Pranali Kya Hai) की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने कार्यों के लिए विधायिका (संसद) के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए इसे उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है। इसमें कार्यपालिका अपने पद पर उसी समय तक रह सकती है, जब तक उसे विधायिका (संसद) का बहुमत या विश्वास प्राप्त है।
भारत का संविधान, केंद्र और राज्य दोनों में सरकार के संसदीय स्वरूप की व्यवस्था करता है। अनुच्छेद 74 और 75 केंद्र में संसदीय व्यवस्था का उपबंध करते हैं और अनुच्छेद 163 और 164 राज्यों में ।
संसदीय सरकार अर्थ और परिभाषा (Sansadiya Shasan Pranali Kya Hai)
संसदीय सरकार को उत्तरदायी सरकार भी कहते हैं, इसमें कार्यपालक शक्तियां एक मन्त्रिमण्डल में निहित होती हैं, इसलिए मन्त्रिमण्डलात्मक सरकार भी कहा जाता है।
संसदीय सरकार शासन की वह प्रणाली है जिसमें कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) अपने कार्यों के लिए विधायिका (संसद) के प्रति उत्तरदायी होती है। इसलिए इसे उत्तरदायी सरकार भी कहा जाता है। इसमें कार्यपालिका अपने पद पर उसी समय तक रह सकती है, जब तक उसे विधायिका (संसद) का बहुमत या विश्वास प्राप्त है।
इस सरकार में मन्त्रिमण्डल का नेता प्रधानमन्त्री होता है और समस्त कार्यपालक शक्तियां वास्तव में उसी के हाथ में होती हैं। इसमें देश का मुखिया नाममात्र का होता है। इसमें देश का शासन नाममात्र के मुखिया के नाम पर मन्त्रीमण्डल द्वारा ही चलाया जाता है । संसदीय कोकुछ विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है
गार्नर के अनुसार, “संसदीय शासन प्रणाली वह है जिसके अन्तर्गत वास्तविक कार्यपालिका (मन्त्रिमण्डल) विधानमण्डल याउसके एक सदन (प्राय: अधिक लोकप्रिय सदन) के प्रति प्रत्यक्ष तथा कानूनी रूप से और निर्वाचकों के प्रति अन्तिम रूप से अपनीराजनीतिक नीतियों और कार्यों के लिए उत्तरदायी रहती है, जबकि राज्य का नाममात्र का मुखिया अनुत्तरदायी होता है।”
सी०एफ० स्ट्रांग के अनुसार, “संसदीय कार्यपालिका का सार यह है कि अन्तिम विश्लेषण में मन्त्रिमण्डल संसद की एक समिति है जिसमें लोकतन्त्र की प्रगति के साथ – साथ लोकसभा की समिति बन जाने की प्रवृत्ति निहित है।”
संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताएं
भारत में संसदीय सरकार की विशेषताएं निम्नलिखित हैं:
1. नामिक एवं वास्तविक कार्यपालिका
राष्ट्रपति नामिक कार्यपालिका (विधित कार्यकारी) है, जबकि प्रधानमंत्री वास्तविक ( वास्तविक कार्यकारी) । इस तरह राष्ट्रपति, राज्य का मुखिया नामिक होता है, जबकि प्रधानमंत्री सरकार का मुखिया होता है। अनुच्छेद 74 प्रधानमंत्री के नेतृत्व में मंत्रिपरिषदकी व्यवस्था करता है, जो राष्ट्रपति को कार्य संपन्न कराने में परामर्श देगी। उसके परामर्श को मानने के लिए राष्ट्रपति बाध्य होगा।’
2. बहुमत प्राप्त दल का शासन
जिस राजनीतिक दल को लोकसभा में बहुमत में सीटें प्राप्त होती हैं, वह सरकार बनाती है। उस दल के नेता को राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाता है। अन्य मंत्रियों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करता है। जब किसी एक दल को बहुमत प्राप्त नहीं होता है तो दलों के गठबंधन को राष्ट्रपति द्वारा सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया जाता है।
3. सामूहिक उत्तरदायित्व
यह संसदीय सरकार का विशिष्ट सिद्धांत है। मंत्रियों का संसद के प्रति सामूहिक उत्तरदायित्व होता है और विशेषकर लोकसभा के प्रति गठबंधन ( अनुच्छेद 75 ) । वे एक टीम की तरह काम करते हैं और साथ-साथ रहते हैं। सामूहिक उत्तरदायित्व का सिद्धांत इस रूप में प्रभावी होता है कि लोकसभा, प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद को अविश्वास प्रस्ताव पारित कर हटा सकती है।
4. राजनीतिक एकरूपता
सामान्यतः मंत्रिपरिषद के सदस्य एक ही राजनीतिक दल से संबंधित होते हैं और इस तरह उनकी समान राजनीतिक विचारधारा होती है। गठबंधन सरकार के मामले में मंत्री सर्वसम्मति के प्रति बाध्य होते हैं।
5. दोहरी सदस्यता
मंत्री, विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों के सदस्य होते हैं। इसका तात्पर्य है कि कोई भी व्यक्ति बिना संसद का सदस्य बने मंत्री नहीं बन सकता। संविधान व्यवस्था करता है कि यदि कोई व्यक्ति जो संसद का सदस्य नहीं है और मंत्री बनता है तो उसे 6 माह के अंदर संसद का सदस्य बन जाना होगा।
6. प्रधानमंत्री का नेतृत्व
सरकार की व्यवस्था में प्रधानमंत्री नेतृत्वकर्ता की भूमिका निभाता है। वह मंत्रिपरिषद का, संसद का और सत्तारूढ़ दल का नेता होता है। इन क्षमताओं में वह सरकार के संचालन में एक महत्वपूर्ण एवं अहम भूमिका का निर्वहन करता है।
7. निचले सदन का विघटन
संसद के निचले सदन (लोकसभा) को प्रधानमंत्री की सिफारिश के बाद राष्ट्रपति द्वारा विघटन जा सकता है। दूसरे शब्दों में, प्रधानमंत्री, मंत्रिपरिषद का कार्यकाल पूर्ण होने से पूर्व नए चुनाव के लिए राष्ट्रपति से लोकसभा विघटन की सिफारिश कर सकता है। इसका तात्पर्य है कि कार्यकारिणी को संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका को विघटन करने का अधिकार है।
8. गोपनीयता
मंत्री गोपनीयता के सिद्धांत पर काम करते हैं और अपनी कार्यवाहियों, नीतियों और निर्णयों की सूचना नहीं दे सकते। अपना कार्य ग्रहण करने से पूर्व वे गोपनीयता की शपथ लेते हैं। मंत्रियों को गोपनीयता की शपथ राष्ट्रपति दिलवाते हैं।
संसदीय व्यवस्था के गुण
सरकार की संसदीय व्यवस्था के निम्नलिखित गुण हैं:
1. विधायिका एवं कार्यपालिका के मध्य सामंजस्य
संसदीय व्यवस्था का सबसे बड़ा लाभ यह है कि यह सरकार के विधायी एवं कार्यकारी अंगों के बीच सहयोग एवं सहकारी संबंधों को सुनिश्चित करता है। कार्यपालिका, विधायिका का एक अंग है और दोनों अपने कार्यों में स्वतंत्र हैं। परिणामस्वरूप इन दोनों अंगों के बीच विवाद के बहुत कम अवसर होते हैं।
2. उत्तरदायी सरकार
अपनी प्रकृति के अनुरूप संसदीय व्यवस्था में उत्तरदायी सरकार का गठन होता है। मंत्री अपने मूल एवं कार्याधिकार कार्यों के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी होते हैं। संसद, मंत्रियों पर विभिन्न तरीकों, जैसे – प्रश्नकाल, चर्चा, स्थगन प्रस्ताव एवं अविश्वास प्रस्ताव आदि के माध्यम से नियंत्रण रखती है।
3. निरंकुशता का प्रतिषेध
इस व्यवस्था के तहत कार्यकारी एक समूह में निहित रहती है (मंत्रिपरिषद) न कि एक व्यक्ति में । यह प्राधिकृत व्यवस्था कार्यपालिका की निरंकुश प्रकृति पर रोक लगाती है। अर्थात कार्यकारिणी संसद के प्रति उत्तरदायी होती है और उसे अविश्वास प्रस्ताव के माध्यम से हटाया जा सकता है।
4. वैकल्पिक सरकार की व्यवस्था
सत्तारूढ़ दल के बहुमत खो देने पर राज्य का मुखिया विपक्षी दल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित कर सकता है। इसका तात्पर्य है कि नए चुनाव के बिना वैकल्पिक सरकार का गठन हो सकता है। इस तरह डॉ. जेनिंग्स कहते हैं, “विपक्ष का नेता वैकल्पिक प्रधानमंत्री है। “
5. व्यापक प्रतिनिधित्व
संसदीय व्यवस्था में कार्यपालिका लोगों के समूह से गठित होती है (उदाहरण के लिए मंत्री लोगों का प्रतिनिधि है)। इस प्रकार यह संभव है कि सरकार के सभी वर्गों एवं क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो । प्रधानमंत्री, मंत्रियों का चयन करते समय इस बात का ध्यान रखता है।
संसदीय व्यवस्था के दोष
उपरोक्त गुणों के बावजूद संसदीय व्यवस्था निम्नलिखित दोषों से भी युक्त है:
1. अस्थिर सरकार
संसदीय व्यवस्था, स्थायी सरकार की व्यवस्था नहीं करती। इसकी कोई गारंटी नहीं कि कोई सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी। मंत्री बहुमत की दया पर इस बात के लिये निर्भर होते हैं कि वे अपने कार्यकाल को नियमित रख सकें। एक अविश्वास प्रस्ताव या राजनीतिक दल परिवर्तन या बहुदलीय गठन सरकार को अस्थिर कर सकता है। मोरारजी देसाई, चरण सिंह, वी. पी. सिंह, चंद्रशेखर, देवगौड़ा और आई. के. गुजराल के नेतृत्व वाली सरकारें इसका उदाहरण हैं।
2. नीतियों की निश्चितता का अभाव
संसदीय व्यवस्था में दीर्घकालिक नीतियां लागू नहीं हो पातीं क्योंकि सरकार के कार्यकाल की अनिश्चितता बनी रहती है। सत्तारूढ़ दल में परिवर्तन से सरकार की नीतियां परिवर्तित हो जाती हैं। उदाहरण के लिए 1977 में मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता सरकार ने पूर्व की कांग्रेस सरकार की नई नीतियों को पलट दिया। ऐसा ही कांग्रेस सरकार ने 1980 में सत्ता में वापस आने पर किया ।
3. मंत्रिमंडल की निरंकुशता
जब सत्तारूढ़ पार्टी को संसद में पूर्ण बहुमत प्राप्त होता है तो कैबिनेट निरंकुश हो जाती है और वह लगभग असीमित शक्तियों की तरह कार्य करने लगती है। एच.जे. लास्की कहते हैं कि ‘संसदीय व्यवस्था कार्यकारिणी को तानाशाही का अवसर उपलब्ध करा देती है।’ पूर्व ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैमसे मूर भी कैबिनेट की तानाशाही ” की शिकायत करते हैं। इंदिरा गांधी एवं राजीव गांधी का काल भी इसका गवाह है।
4. शक्ति पृथक्करण के विरुद्ध
संसदीय व्यवस्था में विधायिका एवं कार्यपालिका एक साथ और अविभाज्य होते हैं। कैबिनेट, विधायिका एवं कार्यपालिका दोनों की नेता होती है। जैसा कि बेगहॉट उल्लेख करते हैं-” कैबिनेट कार्यपालिका एवं विधायिका को जोड़ने में हाइफन जैसी भूमिका निभाती है, जो दोनों को जोड़ने के लिए बाध्य है।” इस तरह सरकार की पूरी व्यवस्था शक्तियों को विभाजित करने वाले सिद्धांत के खिलाफ जाती है। वास्तव में यह शक्तियों का मेल है।
5. अकुशल व्यक्तियों द्वारा सरकार का संचालन
संसदीय व्यवस्था प्रशासनिक कुशलता से परिचालित नहीं होती क्योंकि मंत्री अपने क्षेत्र में निपुण नहीं होते। मंत्रियों के चयन में प्रधानमंत्री के पास सीमित विकल्प होते हैं। उसकी पसंद संसद सदस्यों तक प्रतिबंधित रहती है और बाह्य प्रतिभा तक विस्तारित नहीं होती। इसके अतिरिक्त मंत्री अधिकांश समय अपने संसदीय कार्यों, कैबिनेट की बैठकों एवं दलीय गतिविधियों में व्यस्त रहते हैं ।
संसदीय व्यवस्था की स्वीकार्यता के कारण
संविधान सभा’ में अमेरिकी राष्ट्रपति व्यवस्था के पक्ष में एक मत उभरा, लेकिन इसके जनकों ने ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था को निम्नलिखित कारणों से प्रमुखता दी
1. व्यवस्था से निकटता
संविधान निर्माताओं ने ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था को इसलिए भी अपनाया कि यह भारत में ब्रिटिश शासनकाल से ही यहां अस्तित्व द में थी। के. एम. मुंशी ने तर्क दिया कि “इस देश में पिछले तीस या चालीस वर्षों से सरकारी काम में कुछ उत्तरदायित्वों को शुरू कराया गया है। इससे हमारी संवैधानिक परंपरा संसदीय बनी है। इस अनुभव के बाद हमें पीछे क्यों जाना चाहिए। “
2. उत्तरदायित्व को अधिक वरीयता
डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने संविधान सभा में इस ओर इशारा किया कि एक लोकतांत्रिक कार्यकारिणी को दो शर्तों से अवश्य संतुष्ट करना चाहिए – स्थायित्व एवं उत्तरदायित्व । दुर्भाग्य से अब तक यह 1 संभव नहीं हो सका कि ऐसी व्यवस्था को खोजा जाए, जिसमें दोनों समान स्तरों को सुनिश्चित किया जा सकता।
अमेरिकी व्यवस्था ज्यादा स्थायित्व देती है, लेकिन कम उत्तरदायित्व । दूसरी तरफ ब्रिटिश व्यवस्था ज्यादा उत्तरदायित्व देती है, लेकिन कम स्थायित्व । प्रारूप संविधान ने कार्यपालिका की संसदीय व्यवस्था की सिफारिश करते हुए स्थायित्व की तुलना में उत्तरदायित्व की अधिक वरीयता दी है”।’
3. विधायिका एवं कार्यपालिका के टकराव को रोकने की आवश्यता
संविधान निर्माता चाहते थे कि विधायिका एवं कार्यपालिका के बीच टकराव को नकारा जाए, जो कि अमेरिका की राष्ट्रपति प्रणाली में पाया जाता है। उन्होंने सोचा कि एक प्रारंभिक लोकतांत्रिक सरकार के इन दो घटकों के बीच संघर्ष को और स्थायी खतरे को वहन नहीं किया जा सकता। वे चाहते थे कि एक ऐसी सरकार बने, जो देश के चहुंमुखी विकास के लिए अनुकूल हो ।
4. भारतीय समाज की प्रकृति
भारत, विश्व में सर्वाधिक मिश्रित राज्य एवं सर्वाधिक जटिल समाज वाला है। इस तरह संविधान निर्माताओं ने संसदीय व्यवस्था को अपनाया ताकि सरकार में विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों के लोगों के हित में बहुत अवसर सुलभ हो सकें और राष्ट्रीय भावना को लोगों के बीच बढ़ाते हुए अखंड भारत का निर्माण हो सके।
संसदीय व्यवस्था को जारी रखा जाना चाहिए या इसे राष्ट्रपति व्यवस्था में परिवर्तित कर दिया जाना चाहिए, इस बात को लेकर 1970 के दशक से देश में बहस एवं वाद-विवाद जारी है।
इस मामले पर विस्तार से स्वर्ण सिंह समिति द्वारा विचार किया गया, जिसका गठन 1975 में कांग्रेस सरकार द्वारा किया गया था। समिति का मत था कि संसदीय व्यवस्था अच्छा कर रही है और इस तरह इसकी कोई जरूरत नहीं कि इसको राष्ट्रपति शासन व्यवस्था में परिवर्तित किया जाए।
संसदीय एवं राष्ट्रपति व्यवस्था की तुलना
संसदीय व्यवस्था विशेषतायें
1. दोहरी कार्यकारिणी ।
2. बहुमत के दल का शासन ।
3. सामूहिक उत्तरदायित्व ।
4. राजनीतिक एकरूपता ।
5. दोहरी सदस्यता ।
6. प्रधानमंत्री का नेतृत्व ।
7. निचले सदन का विघटन होना ।
8. शक्तियों का समिश्रण ।
गुण
1. विधायिका एवं कार्यपालिका के बीच टकराव ।
2. गैर- उत्तरदायी सरकार ।
3. गैर – उत्तरदायी नेतृत्व की संभावना
4. सीमित प्रतिनिधित्व ।
दोष
1. अस्थायी सरकार ।
2. नीतियों की निश्चितता नहीं।
3. शक्तियों के विभाजन के विरुद्ध ।
4. अकुशल व्यक्तियों द्वारा सरकार का संचालन ।
राष्ट्रपति शासन व्यवस्था विशेषतायें
1. एकल कार्यकारिणी ।
2. राष्ट्रपति एवं विधायिका का पृथक रूप से निश्चित अवधि के लिए निर्वाचन ।
3. उत्तरदायित्व का अभाव।
4. राजनीतिक एकरूपता नहीं रहती।
5. एकल सदस्यता ।
6. राष्ट्रपति का नियंत्रण |
7. निचला सदन विघटन न होना ।
8. शक्तियों का विभेद ।
गुण
1. विधायिका एवं कार्यपालिका के बीच सामंजस्य ।
2. उत्तरदायी सरकार ।
3. निरंकुशता पर रोक ।
4. व्यापक प्रतिनिधित्व ।
दोष
1. स्थायी सरकार।
2. नीतियों में निश्चितता ।
3. शक्तियों के विभाजन पर आधारित ।
4. विशेषज्ञों द्वारा सरकार ।
भारतीय एवं ब्रिटिश मॉडल में विभेद
भारत सरकार में संसदीय व्यवस्था विस्तृत रूप से ब्रिटिश संसदीय व्यवस्था पर आधारित है। यद्यपि यह कभी भी ब्रिटिश पद्धति की नकल नहीं रही। यह उससे निम्नलिखित मामलों में भिन्न है:
1. ब्रिटिश राजशाही के स्थान पर भारत में गणतंत्र पद्धति है। दूसरे शब्दों में भारत में राज्य का मुखिया (राष्ट्रपति) निर्वाचित होता है, जबकि ब्रिटेन में राज्य का मुखिया (जो कि राजा या रानी) आनुवांशिक है।
2. ब्रिटिश व्यवस्था संसद की संप्रभुता के सिद्धांत पर आधारित है, जबकि भारत में संसद सर्वोच्च नहीं है और शक्तियों पर प्रतिबंध है क्योंकि यहां एक लिखित संविधान, संघीय व्यवस्था, न्यायिक समीक्षा और मूल अधिकार हैं?
3. ब्रिटेन में प्रधानमंत्री को संसद के निचले सदन (हाउस ऑफ कॉमन्स) का सदस्य होना चाहिए, जबकि भारत में प्रधानमंत्री संसद के दोनों सदनों में से किसी एक का सदस्य हो सकता है।
4. सामान्यतः ब्रिटेन में संसद सदस्य बतौर मंत्री नियुक्त किए जाते हैं। भारत में जो व्यक्ति संसद सदस्य नहीं भी है, उसे भी अधिकतम 6 माह तक की अवधि के लिए बतौर मंत्री नियुक्त किया जा सकता है।
5. ब्रिटेन में मंत्रियों की कानूनी जिम्मेदारी होती है, जबकि भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। ब्रिटेन के विपरीत भारत में मंत्री को राज्य के मुखिया के रूप में कार्यालयी कार्य में प्रति हस्ताक्षर करना जरूरी नहीं होता ।
6. ब्रिटिश कैबिनेट व्यवस्था में’ छाया कैबिनेट‘ (शैडो कैबिनेट) एक अनोखी संस्था है। इसे विपक्षी पार्टी द्वारा गठित किया जाता है ताकि सत्तारूढ़ दल के साथ संतुलन बना रहे और अपने सदस्यों को भावी मंत्रालय कार्यों के लिए तैयार किया जा सके। भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है।
संसदीय सरकार की सफलता की शर्तें
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि संसदीय शासन प्रणाली में गुणों के साथ-साथ कुछ दोप भी हैं। यदि संसदीय शासन प्रणाली के दोपों को दूर कर दिया जाए तो इससे अच्छी सरकार कोई नहीं दे सकता।
आज संसदीय शासन दलबन्दी का अखाड़ा बनकर रह गया है। इसमें शासन कार्यों के निप्पादन का उत्तरदायित्व तो कार्यपालिका का है, लेकिन शक्तियां विधायिका के पास अधिक हैं। मन्त्रिमण्डल को विधायिका के नियन्त्रण में ही कार्य करना पड़ता है।
इस तरह की अनेक कमियां संसदीय शासन के दृष्टिगोचर होती है। इन कमियों को यदि दूर कर दिया जाए तो संसदीय शासन से अच्छा विकल्प कोई नहीं है। इन कमियों को दूर करके संसदीय शासन प्रणाली को सफलता का ताज पहनाया जा सेता है।
कुछ विद्वानों ने संसदीय सरकार को सफलता केलिए निम्न सुझाव दिये हैं:-
• संसदीय शसन प्रणाली में संसद को सर्वोच्च माना जाए और उसकी कार्यवाही में अनावश्यक गतिरोध उत्पन्न करने से परहेज किया जाएं
• संसदीय शासन में कार्यपालिका के पास उत्तरदायित्वों का निवर्हन करने के लिए सम्पूर्ण शवितयां होनी चाहिए। उसके विधायिका के निमन्त्रण से कुछ ढील दी जाए।
• संसदीय कार्यवाही में स्पीकर को निप्पक्ष व निर्णायक भूमिका निभानी चाहिए। राजनीतिक तटस्थता ही संसदीय कार्यवाही को प्रभावी बना सकती है। स्पीकर को इसी तटस्थता का पालन करना चाहिए ।
संसदीय शासन प्रणाली की मर्यादा बनाए रखने के लिए समय पर ही चुनाव कराने चाहिए। चुनावों में पूरी पारदर्शिता बरतना भी संसदीय सरकार को विश्वासपात्र बनाता है ।
• संसदीय शासन प्रणाली में विरोधी दल को अनावश्यक आलोचना से परहेज करना चाहिए।
• संसदीय शासन प्रणाली में प्रतियोगी दल व्यवस्था होनी चाहिए ताकि कड़े संघर्ष के बाद सत्तासीन हुआ जा सके। इसका तात्पर्य यह है कि दलों को मुकाबला बराबरी का होना चाहिए।
• संसदीय शासन प्रणाली में राष्ट्राध्यक्ष को ध्वजमात्र बनकर ही कार्य करना चाहिए। उसे प्रधानमन्त्री और मन्त्रिण्डल के कार्यों में अनावश्यक हस्तोप से बचना चाहिए ।
• सत्तारूढ़ दल को जनमत का सम्मान करते रहना चाहिए। उसे कभी भी जनभावनाओं के विरुद्ध नहीं जाना चाहिए।
इस प्रकार उपरोक्त बातों का ध्यान रखकर चलने से संसदीय सरकार उन दोनों से मुक्त हो सकती है, जो उस पर लगाए जातेहैं। इससे संसदीय प्रणाली की जो काया पलट होगी, वह विश्व के उन देशों में भी स्थान प्राप्त करने की अधिकारी बन सकती हैं, जहां पर संसदीय व्यवस्था नहीं है।
सारांश
दोनों सरकारों के अपने-अपने कुछ गुण-दोप हैं। यह निश्चय करना एक कठिन काम है कि कौन-सी शासन प्रणाली सबसे अधिक उपयुक्त है या नहीं। यह तो देश- विशेष की परिस्थितियों पर ही निर्भर करता है। अमुक देश में किसी शासन प्रणाली की सफलता ही उसकी उपयोगिता का आधार होती है।
उदाहरण के लिए भारत मेंसंसदीय शासन प्रणाली अधिक उपयुक्त है तो अमेरिका में अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली अधिक उपयुक्त है। यद्यपि इन देशों में भीदोनों तरह की शासन प्रणालियों की कुछ कमियां हैं। यदि उन कमियों को दूर कर दिया जाए तो वे वहीं पर भविष्य में भी अधिकउपयोगी रहेंगी।
आज विश्व में प्रत्येक देश किसी न किसी रूप में इन दोनों शासन प्रणालियों से अवश्य जुड़ा है। यदि आंकड़ों केहिसाब से देखा जाए तो संसदीय सरकारें, अध्यक्षात्मक सरकारों की तुलना में आज विश्व में अधिक हैं।
यद्यपि आज बदलतीपरिस्थितियों में सुरक्षा व आर्थिक विकास की दृष्टि से एक ऐसी सरकार की आवश्यकता महसूस की जाने लगी है जो नागरिकों की स्वतन्त्रताओं की रक्षा करने के साथ-साथ उन्हें आर्थिक विकास के अवसर प्रदान करें।
आज अधिकतर विद्वान संसदीय सरकारको अधिक उपयुक्त मानने लगे हैं। यद्यपि यह आवश्यक नहीं है कि संसदीय सरकार अध्यक्षात्मक सरकार का स्थान ले सके ।
अभ्यास – प्रश्न
1. संसदीय सरकार की अवधारणा को स्पष्ट करें।
2. संसदीय सरकार के अर्थ और परिभाषा की व्याख्या करें।
3. संसदीय शासन प्रणाली की विशेषताओं का वर्णन करें।
4. संसदीय सरकार के गुण की समीक्षा करें।
5. संसदीय सरकार के दोष को स्पष्ट करें।
6. संसदीय सरकार की सफलता की शर्तें की व्याख्या करें।
FAQ
संसदीय प्रणाली में कितने सदस्य होते हैं?
सदन की अधिकतम सदस्य संख्या 550 होगी, वर्तमान में सदन की सदस्य संख्या 543 है।
संसदीय प्रणाली कहाँ से लिया गया?
ग्रेट ब्रिटेन
संसदीय प्रणाली का दूसरा नाम क्या है?
भारतीय संसदीय प्रणाली को कैबिनेट सरकार या कैबिनेट प्रणाली या जिम्मेदार सरकार के रूप में भी जाना जाता है।
भारत में संसदीय प्रणाली की शुरुआत कब हुई?
1853 के चार्टर अधिनियम से।