राजनीतिक दल किसे कहते हैं | Rajnitik Dal Kise Kahate Hain

राजनीतिक दल का अर्थ और परिभाषा (Rajnitik Dal Kise Kahate Hain), राजनीतिक दलों की उत्पत्ति व विकास, भारत में दल व्यवस्था, दलीय व्यवस्था की विशेषताएं, राजनैतिक दलों की समस्याएं, भारतीय राजनीतिक दलों का वर्गीकरण

राजनीतिक दल | Rajnitik Dal Kise Kahate Hain

साधरण शब्दों में राजनीतिक दल एक ऐसा संगठन है जो सम्पूर्ण देश या समाज के व्यापक हित के सन्दर्भ में अपने सेवार्थियों के हितों को बढ़ावा देने के लिए निश्चित सिद्धान्तों, नीतियों और कार्यक्रम का समर्थन करता है और उन्हें कार्यान्वित करने के उद्देश्यसे राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है।

भूमिका

आधुनिक युग लोकतन्त्रीय युग है। लोकतन्त्रीय शासन को लोगों का लोगों के लिए और लोगों द्वारा माना गया है। लोकतन्त्र में प्रभुसत्ता किसी एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों के समूह के पास नहीं होती, अपितु समूची जनता के पास होती है।

राजनीतिक दलों के बिना जनता की प्रभुसत्ता का निर्णय नहीं हो सकता और न ही बहुमत का राज्य स्थापित हो सकता है। राजनीतिक दलों द्वारा जनता अप्रत्यक्ष रूप में शासन में भाग ले सकती हैं और राजनीतिक दलों के बिना लोकतन्त्र की सम्भावना नहीं हो सकती ।

स्वतन्त्र भारत ने भी लोकतन्त्रीय शासन प्रणाली को अपनाया है। इसलिए भारत में भी राजनीतिक दलों का विकास होना स्वाभाविक था। भारत में कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं, जिनका जन्म स्वतन्त्रता प्राप्त करने के पश्चात् हुआ और कुछ राजनीतिक दल ऐसे हैं जो अंग्रेजों के राज्यकाल के समय में अस्तित्व में आए थे ।

राजनीतिक दल का अर्थ और परिभाषा

साधरण शब्दों में राजनीतिक दल एक ऐसा संगठन है जो सम्पूर्ण देश या समाज के व्यापक हित के सन्दर्भ में अपने सेवार्थियों के हितों को बढ़ावा देने के लिए निश्चित सिद्धान्तों, नीतियों और कार्यक्रम का समर्थन करता है और उन्हें कार्यान्वित करने के उद्देश्यसे राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना चाहता है।

राजनीतिक दल को अनेक विद्वानों ने निम्न प्रकार से परिभाषित किया है :-

मसलदान के अनुसार- राजनीतिक दल उस स्वैच्छिक समूह को कहते हैं जो कुछ सामान्य राजनीतिक व सामाजिक सिद्धान्तों के आधार पर तथा कुछ समान्य लक्ष्यों और आदर्शों की पूर्ति के लिए शासन चलाने का प्रयत्न करता है तथा अपने सदस्योंको सत्तारूढ़ करने की चेप्टा करता है ओर उसके लिए चुनाव तथा अन्य साधनों का भी प्रयोग करता है।”

फ्रेडरिक के अनुसार- एक राजनीतिक दल उन व्यक्तियों का समूह है जो अपने नेताओं के लिए शासकीय नियन्त्रण प्राप्त करने अथवा उसे बनाए रखने के उद्देश्यसे स्थायी रूप से संगठित होते हैं और आगे अनुशासित रहकर लाभ प्राप्त करने के प्रयासकरते हैं।

बर्क के अनुसार- “राजनीतिक दल मनुष्यों का एक समूह है जो कुछ निश्चित सिद्धान्तों के आधार पर जिनमें वे सहमत हैं, अपनेसामूहिक प्रयत्नों से राष्ट्रीय हित को आगे बढ़ाने के लिए एकता में बंधे होते हैं।”

मैकाइवर के अनुसार- राजनीतिक दल वह समुदाय है जिसका संगठन किसी विशेष सिद्धान्त या नीति के समर्थन के लिएहुआ हो और वह संविधानिक साधनों द्वारा सरकार बनाने के लिए इस सिद्धान्त या नीति का सहारा लेता हो। “

मैक्स वेबर के अनुसार- राजनीतिक दल स्वेच्छा से बनाया हुआ वह संगठन है जो शासन शक्ति को अपने हाथ में लेना चाहता है और इसको हस्तगत करने के लिए प्रचार तथा आन्दोलन का सहारा लेता है। इस शासन शक्ति को हाथ में लेने के पीछेएक ही उद्देश्य हो सकता है जो या तो वस्तुनिष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति है या व्यक्तिगत स्वार्थ या दोनों है ।”

राजनीतिक दलों की उत्पत्ति व विकास

राजनीतिक दल की उत्पत्ति के बारे में अनेक मत प्रचलित हैं। पीटर मकर्ल ने इसे संस्थागत ढांचे से जोड़ा है। उसका कहना है किराजनीतिक दल की उत्पत्ति संस्थागत परिवेशमें ही हुई है।

राजनीतिक व्यवस्था में विशेष प्रकार की संस्थागत संरचनाओं का निर्माण ही दल व्यवस्था का विकास कर देता है। ला पालोम्बारा एवं वीनर के अनुसार ऐतिहासिक संकटों से निपटने के लिए ही दलों का जन्म हुआ है।

आधुनिक युग में अनेक विद्वानों ने राजनीतिक दलों का सम्बन्ध औद्योगिक क्रान्ति से जोड़ा है। कार्ल मार्क्स तथा लेनिनकी ऐसी ही धारणा है कि दल औद्योगिक क्रान्ति की उत्पत्ति है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राजनीतिक दलों की उत्पत्ति के अनेक कारण भी हो सकते हैं और एक कारण भी।

लोकतन्त्रीय तथा तानाशाही देशों में दलों की उत्पत्ति के कारण कभी समान नहीं हो सकते। इन देशों में इनकी उत्पत्ति का आधार एक दूसरे से सर्वथा भिन्न है।

राजनीतिक दलों की बीज प्राचीन काल में भी विद्यमान थे। प्राचीन यूनान में प्लेबियन्सतथा पैट्रीशियन्स दो दलों का अस्तित्व था। लेकिन दलीय व्यवस्था को व्यवस्थित करने का श्रेय ब्रिटेन को ही जाता है। इंग्लैण्डमें गृहयुद्ध का प्रारम्भ ही दलों द्वारा हुआ था । उस समय दलों का स्वरूप गुटीय था। उनके कार्य करने के तरीके असभ्य थे।

कैवेलियर्स राजवंश के तथा राउण्ड डैड्स संसद के अधिकारों के समर्थक दल थे। बाद में इन दलों को ही क्रमशः उदार तथा अनुदार बन गए। इंग्लैण्ड में श्रमिक दल का उदय तो औद्योगिक क्रान्ति का परिणाम है।

अमेरिका में भी राजनीतिक दलों की उत्पत्ति संविधान निर्माताओं की इच्छा के विपरीत हुई है। फिलाडेल्फिया सम्मेलन के दौरान ही प्रतिनिधिगणसंघवादी और संघ विरोधी दो भागों में बंटने लगे थे। धीरे-धीरे अमेरिका में भी दल प्रणाली विकसित होती गई और रिपब्लिकनतथा डैमोक्रेटिक दलों का जन्म हो गया, जो आज भी कार्य कर रहे हैं।

लेनिन के समय से पूर्व ही सोवियत संघ में भी साम्यवादी दल का उद्भव हो चुका था जो आज विश्व के कई देशों में कार्य कर रहा है। चीन में साम्यवादी दल आज सफलतापूर्वक कार्यकर रहा है।

फ्रांस, भारत, स्विस, कनाडा, जापान आदि सभी देशों में आज रजानीतिक दल कार्यरत् हैं। कहीं पर एकदलीय प्रणाली है, कहीं पर द्विदलीय तो कहीं पर बहुदलीय प्रणाली है। भारत तथा स्विट्जरलैण्ड में बहुदलीय प्रणाली है, अमेरिका तथा ब्रिटेन में द्विदलीय है तथा चीन में एकदलीय प्रणाली है।

राजनैतिक दल के प्रकार –

(1) प्रतिक्रियावादी राजनीतिक दल, जो पुरानी सामाजिक-आर्थिक तथा राजनीतिक संस्थाओं से चिपके रहना चाहते हैं।

(ii) रूढ़िवादी दल, जो यथा स्थिति में विश्वास रखते हैं।

(iii) उदारवादी दल, जिनका लक्ष्य विद्यमान संस्थाओं में सुधार करना है तथा

(iv) सुधारवादी दल, जिनका उद्देश्य विद्यमान व्यवस्था को हटाकर नई व्यवस्था स्थापित करना होता है।

राजनीतिक दलों का उनकी विचारधारा के आधार पर वर्गीकरण करते हुए राजनीतिक वैज्ञानिकों ने सुधारवादी दलों को बाईं ओर, उदारवादी दलों को मध्य में तथा प्रतिक्रियावादी दलों तथा रूढ़िवादी दलों को दाईं ओर रखा है। दूसरे शब्दों में इन्हें वाम दल, केंद्रीय दल तथा दक्षिण पंथी दल कहा जाता है।

विश्व में तीन तरह की दल व्यवस्था है। उदाहरण के लिए:

(i) एक दल व्यवस्था में केवल सत्तारूढ़ दल होता है और विरोधी दल की व्यवस्था नहीं होती है, जैसे- पूर्व वामपंथी राष्ट्र जैसे- रूस तथा अन्य पूर्वी यूरोपीय राष्ट्र।

(ii) दो दल व्यवस्था, जिसमें दो बड़े दल विद्यमान होते हैं, जैसे- अमेरिका तथा ब्रिटेन’ तथा

(iii) कई दल व्यवस्था जिसमें कई दल एक साझा सरकार बनाते हैं, जैसे- फ्रांस, स्विट्जरलैंड तथा इटली ।

राजनीतिक दलों के कार्य

1. दल चुनाव लड़ते हैं। अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में चुनाव राजनीतिक दलों द्वारा खड़ा किए गए उम्मीदवारों के बीच लड़ा जाता है। राजनीतिक दल उम्मीदवारों का चुनाव कई तरीकों से करते हैं। अमरीका जैसे कुछ देशों में उम्मीदवार का चुनाव दल के सदस्य और समर्थक करते हैं।

अब इस तरह से उम्मीदवार चुनने वाले देशों की संख्या बढ़ती जा रही है। अन्य देशों, जैसे भारत में, दलों के नेता ही उम्मीदवार चुनते हैं।

2. दल अलग-अलग नीतियों और कार्यक्रमों को मतदाताओं के सामने रखते हैं और मतदाता अपनी पसंद की नीतियाँ और कार्यक्रम चुनते हैं। देश के लिए कौन-सी नीतियाँ ठीक हैं

इस बारे में हममें से सभी की राय अलग-अलग हो सकती है। पर कोई भी सरकार इतने अलग-अलग विचारों को एक साथ लेकर नहीं चल सकती। लोकतंत्र में समान या मिलते-जुलते विचारों को एक साथ लाना होता है ताकि सरकार की नीतियों को एक दिशा दी जा सके। पार्टियाँ यही काम करती हैं।

पार्टियाँ तरह-तरह के विचारों को कुछ बुनियादी राय तक समेट लाती हैं। जिनका वे समर्थन करती हैं। सरकार प्रायः शासक दल की राय के अनुरूप अपनी नीतियाँ तय करती है।

3. पार्टियाँ देश के कानून निर्माण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। कानूनों पर औपचारिक बहस होती है और उन्हें विधायिका में पास करवाना पड़ता है लेकिन विधायिका के अधिकतर सदस्य किसी न किसी दल के सदस्य होते हैं। इस कारण वे अपने दल के नेता के निर्देश पर फ़ैसला करते हैं।

4. दल ही सरकार बनाते और चलाते हैं। हमने पिछले साल पढ़ा था कि नीतियों और बड़े फैसलों के मामले में निर्णय राजनेता ही लेते हैं और ये नेता विभिन्न दलों के होते हैं। पार्टियाँ नेता चुनती हैं, उनको प्रशिक्षित करती हैं और फिर पार्टी के सिद्धांतों और कार्यक्रम के अनुसार फैसले करने के लिए उन्हें मंत्री बनाती हैं ताकि वे पार्टी की इच्छा के अनुसार सरकार चला सकें।

5. चुनाव हारने वाले दल शासक दल के विरोधी पक्ष की भूमिका निभाते हैं। सरकार की गलत नीतियों और असफलताओं की आलोचना करने के साथ वह अपनी अलग राय भी रखते हैं। विपक्षी दल सरकार के खिलाफ़ आम जनता को भी गोलबंद करते हैं।

6. जनमत निर्माण में दल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे मुद्दों को उठाते और उन पर बहस करते हैं। विभिन्न दलों के लाखों कार्यकर्ता देश भर में बिखरे होते हैं। समाज के विभिन्न वर्गों में उनके मित्र संगठन या दबाव समूह भी काम करते रहते हैं। दल कई दने लोगों की समस्याओं को लेकर आंदोलन भी करते हैं। अक्सर विभिन्न दलों द्वारा रखी जाने वाली राय के इर्द-गिर्द ही समाज के लोगों की राय बनती जाती है।

7. दल ही सरकारी मशीनरी और सरकार द्वारा चलाए जाने वाले कल्याण कार्यक्रमों तक लोगों की पहुँच बनाते हैं। एक साधारण नागरिक के लिए किसी सरकारी अधिकारी की तुलना में किसी राजनीतिक कार्यकर्ता से जान-पहचान बनाना, उससे संपर्क साधना आसान होता है।

इसी कारण लोग दलों पर पूरा विश्वास न करते हुए भी उन्हें अपने करीब मानते हैं। दलों को भी हर हाल में लोगों की माँगों और जरूरतों पर ध्यान देना होता है वरना अगले चुनाव में लोग उन्हें धूल चटा सकते हैं।

देश में राष्ट्रीय दलो की संख्या

हाल ही में केंद्रीय चुनाव आयोग द्वारा आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा दिए जाने के बाद देश में अब कुल 6 राष्ट्रीय पार्टियां हैं। इनमे-

1. भारतीय जनता पार्टी (भाजपा)

2. कांग्रेस

3. बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी)

4. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्सवादी)

5. नेशनल पीपुल्स पार्टी (एनपीपी)

6. आम आदमी पार्टी (एएपी)

भारत में दल व्यवस्था

भारत मे स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय प्रभावकारी दलों के संगठन की आवश्यकता महसूस हुई। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एक विशेप अस्तित्व वाले संगठन के रूप में पैदा हुई जिसने देश में अंग्रेज विरोधी तत्वों को एकत्रित किया । स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद इस दल ने एक राजनीतिक दल के रूप में कार्य करना प्रारम्भ कर दिया, यद्यपि महात्मा गांधी चाहते थे कि यह केवल समाज सेवा संगठन के रूप में कार्य करें ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद देश की राजनीति में कांग्रेस दल की भूमिका इतनी महत्वपूर्ण थी कि भारत का प्राय: एक प्रभुत्वशाली दलीय व्यवस्था के रूप में वर्णन किया गया। कांग्रेस आम जनता का सर्वप्रिय दल था तथा इसके योजना कार्य में सब कुछ सम्मिलित था । प्रायः इसको भारतीय समाज का लघुरूप माना जाता था जिसमें राष्ट्रके समस्त तत्वों का प्रतिबिम्ब था ।

परन्तु इससे हमें गलत परिणामों पर नहीं पहुंचना चाहिए। कोंग्रेस में ही विभिन्न तत्व विद्यमान थे जो महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अलग-अलग विचार रखते थे। कांग्रेस दल जो आन्दोलन दल से एक राजनीतिक दल में बदल गया था. चाहता सब विभिन्न तत्वों को अपने विशालतम संगठन में समा सकता था।

इसके बाद कांग्रेस दल एक केन्द्रीय दल बन गया जिसमें वामपन्थी और दक्षिणपन्थी राजनीति साथ-साथ शामिल थी। इसने दल में एक आन्तरिक शोधक रचना का गठन किया। जिसमें कांग्रेस की बाहरी परिस्थितियों के अनुसार इनके भिन्न-भिन्न तत्व एक-दूसरे में घुल-मिल सकते थे।

यह एक तथ्य है कि भारत में कांग्रेस का प्रभाव सम्पूर्ण नहीं था । यद्यपि लोकसभा में कांग्रेस को भारती बहुमत प्राप्त था फिर भी कभी भी राष्ट्रीय चुनावों में इसे सार्वजनिक मतों का बहुमत नहीं मिला। दूसरी और विरोधी दलों को लोकसभा में यद्यपि कम स्थान प्राप्त थे, परन्तु उनके पीछे मतदाताओं की पर्याप्त शक्ति थी और राज्य स्तर पर कांग्रेस का प्रभाव और भी कम था।

भारत में विरोध विशेषतः सरकार का विरोध था। कांग्रेस दल सत्तारूढ दल था अतः विरोध का अभिप्राय कांग्रेस के विरोध से था विरोधी पक्ष का प्रयास मुख्यत: कांग्रेस की आलोचना करना तथा इसको सत्ता से हटाना था ।

दलीय व्यवस्था की विशेषताएं

भारतीय दलीय व्यवस्था में तीन अवसर ऐसे आए है, जब इसमें मूलभूत परिवर्तन घटित हुए। उदाहरणतः 1977 में विरोधी दलों द्वारा संचालित जनता सरकार का केन्द्र में सत्तारूढ़ होना। इससे पहले 1967 में लगभग 8 राज्यों में (हरियाणा सहित) पहली बार विरोधी दलों ने अपनी सरकारें बनाई जो कांग्रेस पार्टी के एकाधिकार को एक गहरा झटका माना गया।

1987 में भी एक बार विरोधी दलों ने मिल कर राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार स्थापित की। 1991 में कांग्रेस राष्ट्रीय सत्ता से हाथ धो बैठी और ढेर सारी विरोधी दलों के गठबन्धन की सरकार बनी जो 2003 तक चल रही है। इस प्रकार एकल दल आधिपत्य टूट करबहुल – दलीय व्यवस्था का पर्दापण हो गया है। इस परिपेक्ष में भारतीय दल व्यवस्था की विशेषताएं निम्न हैं:-

(I) बहुदलीय पद्धतिः 1977 तक कांग्रेस का अधिपत्य रहा। परन्तु 1980 में फिर कांग्रेस पार्टी का एकाधिकार स्थापित हो गया । 1989 में फिर मिली जुली सरकार बनी जिसमें कई विरोधी दल शामिल थे परन्तु 1991 के पश्चात् कांग्रेस दल कीप्रधानता का श्रीगणेश हुआ जो 1996 के चुनाव गहरी जडे़ पकड़ गया और वर्तमान राष्ट्रीय प्रजातान्त्रिक मोर्चे सरकार (2003) में 24 दल शामिल है। 1999 के लोक सभा चुनावों में राजनैतिक दलों की संख्या 654 से अधिक हो गई है।

(II) व्यक्तिगत नेतृत्व पर आधारितः 1951 से 1964 तक कांग्रेस में जवाहर लाल नेहरू की प्रधानता रही 11970-76 और 1980-84 में इन्दिरा गांधी का व्यक्तित्व पार्टी में छाया रहा 1984 के बाद राजीव गांधी का प्रभाव रहा 1991 के पश्चात् अटल बिहारी के व्यक्तित्व पर भारतीय जनता पार्टी टिकी हुई है। उधर विरोधी दल कांग्रेस में सोनिया गांधी का ही प्रभाव है।

(III) राजनैतिक दलों में निरन्तर विभाजन एवं विघटन की प्रवृत्ति: अब तक कांग्रेस पार्टी तीन बार विभाजित हो चुकी है। 1989 में कांग्रेस (ओ) और कांग्रेस (आई). 1977 में गठित जनतापार्टी विभाजित होकर चार अन्य पार्टियों में बँट गई 1978 और 1995 में कांग्रेस में पुनः विघटन हुआ जनता दल काविभाजन सबसे अधिक और अति शीघ्रता से हुआ है। अन्य प्रमुख दलों में भी विघटन हुआ है।

(IV) अवसरवादिता की उभरती प्रवृत्तिः भारतीय राजनीति में अवसरवादिता सदैव से विद्यमान रही है और अभी हाल ही केवर्षों में यह निरन्तर उग्र रूप ग्रहण कर रही है। रजनी कोठारी के अनुसार, “व्यक्ति का महत्व अभी भी राजनीति में बहुत है । भारत में एक ही संगठन के अभिन्न अंग अलग-अलग काम करते हैं।

एक ही दल के राष्ट्रीय और राज्य शाखाएंप्रतिकूल दिशाओं में चलती हैं और ऐसे गुटों व तत्वों से हाथ मिलाती हैं जो विचारधारा और नीति में उनसे भिन्न हैं जनवरी 1980 के केरल विधानसभी चुनावों में इन्दिरा कांग्रेस और जनता पार्टी ने परस्पर सहयोग करते हुए एक ही फ्रण्ट केअन्तर्गत चुनाव लड़ा, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर ये दल एक-दूसरे के कट्टर विरोधी थे और हैं। इस प्रकार की अवसरवादिता के अन्य अनेक उदाहरण उपलब्ध हैं।

(V) राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रम में स्पष्ट भेद का अभाव: भारत के राजनीतिक दलों की नीतियों और कार्यक्रमों में स्पष्ट भेद का अभाव है और इसी कारण वे जनता के सम्मुख स्पष्ट विकल्प प्रस्तुत करने में असमर्थ रहे हैं।

इस प्रकार के विचार भेद के अभाव का एक कारण यह है कि आज भारत के राजनीतिक रंगमंच पर जितने भी पात्र दृष्टिगोचर होते हैं, उन सबको राजनीतिक प्रशिक्षण राष्ट्रीय आन्दोलन में ही प्राप्त हुआ है, लेकिन इसका द्वितीय और अधिक प्रमुख कारण यह है कि स्वयं राजनीतिक दलों की नीतियां और कार्यक्रम अत्यधिक अस्पष्ट और अनिश्चित हैं।

कांग्रेस के अतिरिक्त अन्य लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी समाजवाद को ही अपना लक्ष्य घोषित किये हुए हैं। अनेक राजनीतिक दलों के पास अपना कोई निश्चित कार्यक्रम न होने के कारण उनके द्वारा विध्वंस कारी कार्यों का आश्रय लिया जाता है और विघटनकारी तत्त्वों को प्रोत्साहित किया जाता है I

(VI) साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय दल: भारत में अनेक राजनीतिक दल साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय आधार पर गठित है। ऐसे दलोंमें अन्ना द्रविड़ मुनेत्रा कड़गम ( D. M. K.), द्रविड मुनेत्रा कड़गम (D. M. K.) अकाली दल, हिन्दू महासभा, मुस्लिम लीग मुस्लिम मजलिस, नेशलन कांफ्रेंस, असम गण परिषद, सिविकम संग्राम परिषद और अन्य अनेक दलों का नाम लिया जासकता है।

नागालैण्ड, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम प्रदेश और अरुणाचल प्रदेश में तो नागालैण्ड लोकतान्त्रित दल औरमणिपुर पीपुल्स पार्टी आदि ही प्रभावाशाली है और अखिल भारतीय दलों का प्रभाव लगभग नगण्य है।

लोकसभा चुनावोंमें तो ये साम्प्रदायिक और क्षेत्रीय दल अपनी शक्ति तथा प्रभाव का सीमित परिचय ही दे पाते हैं, लेकिन विधानसभा चुनावों में अपनी शक्ति का परिचय देने में सफल रहते हैं। 1989-2002 में शिव सेना ने भी अपनी शक्ति में पर्याप्त वृद्धि की जो एक साम्प्रदायिक दल है तथा क्षेत्रीय भी ।

(VII) राजनीतिक दलों की आन्तरिक गुटबन्दी: भारती की दल प्रणाली की एक प्रमुख विशेषता विभिन्न दलों की आन्तरिकगुटबन्दी है । लगभग सभी राजनीतिक दलों में छोटे-छोटे गुट पाये जाते हैं, एक वह गुट जो सत्ता में है और दूसरा असन्तुष्टहै।

इन गुटों में पारस्परिक मतभेद इस सीमा तक पाया जाता है कि कभी-कभी निर्वाचन में एक गुट के समर्थन प्राप्तउम्मीदवार को दूसरे गुट के सदस्य पराजित करने का भरसक प्रयत्न करते हैं। दल में आन्तरिक गुटबन्दी कांग्रेस दलमें सबसे ज्यादा पायी जाती है क्योंकि इसमें सत्ता के लिए निरन्तर संघर्ष चलता रहा है जिसका प्रभाव सम्पूर्ण दल कीप्रगति पर पड़ता है।

अन्य राजनीतिक दलों में भी स्थिति यही है। 1996 में सत्तारूढ़ जनता दल या संयुक्त मोर्चे के अन्यघटक भी गुटबन्दी से मुक्त नहीं हैं। इस प्रकार की गुटबन्दी पश्चिमी देशों के राजनीतिक दलों में नहीं जायी जाती है। शासक दल और अन्य दलों में गुटबन्दी की यह स्थिति भारतीय राजनीति का अभिशाप बनी हुई है।

(VIII) राजनीतिक दल – बदल: भारत में दल-बदल की स्थिति सदैव से विद्यमान रही है. लेकिन 1967 से 1970 के वर्षों में यहप्रवृत्ति बहुत अधिक भीषण रूप में देखी गयी। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान और मध्य प्रदेश, आदिराज्यों में विशेष रूप से यह प्रवृत्ति देखी गयी कि एक राजनीतिक दल के सदस्य के रूप में निर्वाचित विधानसभा के सदस्योंद्वारा अपने निर्वाचकों की अनुमति प्राप्त किये बिना ही विधानसभा में अपने राजनीतिक दलों की सदस्यता में परिवर्तनकर लिया गया।

इस प्रकार के दल परिवर्तन के परिणामस्वरूप इन राज्यों में बहुत जल्दी-जल्दी सरकारों का पतन हुआऔर राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न हो गई। 1991-92 के दौरान दल-बदल की घटनाएं काफी बैठी।

1998 में उत्तर प्रदेश में जगदम्बिका पाल और कल्याण सिंह ने दल-बदल का नया इतिहास रचाया। 1999 मेंहरियाणा में बंशीलाल सरकार देखते ही देखते दल बदल की भेंट चढ़ गई और इसका लाभ औमप्रकाश चौटाला को मिला।

(IX) निर्दलीय सदस्यों की संख्या में कमी: 1952 के लोक सभा चुनाव में निर्दलय सदस्यों की संख्या 849 थी जो 1996 में बढ़ कर 10535 हो गई परन्तु 1998-99 में चुनाव सुधार के सख्त प्रावधानों के कारण इस समस्या में भारी कमी आई और ये केवल 1915 ही रह गए। 7.6 राजनैतिक दलों की समस्याएं

भारत में राजनैतिक दलों की मुख्य समस्याएं

(1) संगठनात्मक समस्याएं: भारत में बहुल राजनैतिक व्यवस्था है। जिसमें विभिन्न जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति के लोग रहते है। धर्मनिरपेक्षता की दृष्टि से व्यवस्था को चलाना सम्भव नहीं माना जाता जिससे दलों के संगठन प्रभावशाली एवं मजबूतनहीं हो पाते। इसी कारण दलों में विभाजन एवं विघटन हो जाते है। क्षेत्रीय दल भी इससे अछूत नहीं रहे।

(2) दल-बदल : भारत में दल-बदल एक सामान्य सी बात है । दल-बदल देश में राजनीतिक स्थिरता को क्षति पहुंचाने केसाथ-साथ प्रशासन तथा संसदीय संस्थाओं में लोगों के विश्वास पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है। यह दल-बदल 1967 से 1968 तक लगभग 16 सरकारों के पतन के लिए उत्तरदायी है। दल-बदल स्वस्थ दल प्रणाली के विकास में एकबाधा है ।

(3) वित्त साधन : भारत में राजनीतिक दल सामान्यतः अपना वित्तीय लेखा-जोखा, यहां तक कि सदस्य तथा कोप संचालनके साधनों से प्राप्त धन का ब्यौरा भी नहीं छापते ।

व्यावहारिक रूप से सभी राजनीतिक दलों की आय का सामान्य स्रोत संसद तथा राज्य विधानसभाओं के सदस्यों परलगाया गया चन्दा है। सभी राजनीतिक दलों की आय के मुख्य स्रोत दान थैलियां तथा कोप संचालन भी है। 1956 केकम्पनी अधिनियम ने पहली बार राजनीतिक चन्दों के साथ दान तथा अन्य को कोपों के योगदान की सीमित कर दिया ।

कम्पनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दान देने पर प्रतिबन्ध लगाने के लिए एक विधेयक 1968 में पारित किया गया, परन्तुराजनीतिक दलों के वित्त साधनों की गति लगातार पूर्ववत् चलती रही। आय का एक कम विवादास्पद तरीका दल केनेताओं को प्राप्त थैलियां हैं। ये स्थानीय दल कार्यकर्त्ताओं द्वारा जनता तथा व्यापारी लोगों से सामान्यतः एकत्रा की जाती हैं तथा अवसर चुनावों के समय नेताओं को भेंट कर दी जाती हैं।

(4) नेतृत्व का संकटः राजनीतिक दलों में नेतृत्व का संकट पाया जाता है। प्रखर और निर्मल नेतृत्त्वका अभाव है। राजनीति को हमारे नेताओं ने एक गन्दा खेल बना दिया है। उनमें राजनीतिक अवसरवादिता देखने को मिलती है।

(5) काले धन का प्रभावः चुनाव बहुत खर्चीले हो जाने से वास्तविक जनसेवी चुनाव मैदान में उतरने से कतराते हैं। दलों कोपूंजीपतियों और कम्पनियों से आर्थिक सहायता मिलती रही है।

जो लोग धन देते हैं, वे बदले में अनुचित लाभ उठानाचाहते हैं। पूर्व राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी ने यह कहा था कि एक व्यक्ति चुनाव में लाखों रूपये खर्च करने के बादईमानदार हरगिज नहीं रह सकता। यह एक ऐसा कटु सत्य है जो हमारी राजनीतिक व्यवस्था के खोखलेपन को प्रकटकरता है।

(6) जातिवाद और साम्प्रदायिकता: जातिवाद और साम्प्रदायिकता जैसे जीवन मूल्य हमें विरासत में मिले हैं, जिनके कारणहर दल को इन तत्वों के साथ समझौता करना पड़ता है। योग्य उम्मीदवारों की बजाय उन्हें ऐसे लोगों को चुनावी टिकटदेने पड़ते हैं जिनकी जाति वालों का उन चुनावों के क्षेत्रा में बाहुल्य हो ।

(7) राजनीति का अपराधीकरणः सभी राजनीतिक दलों में अपराधी तत्व घुस आये हैं। अपराधियों ने राजनीतिक नेतृत्व कोअपने पंजे में फंसा लिया है। 1966 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर टिप्पणी करते हुए इण्डिया टुडे ने लिखा है किसीभी अपराध का नाम लीजिए और आपको एक – न – एक सांसद मिल सकता है जिसके ऊपर उसका आरोप लगा होगा ।

इस मामले में उत्तर प्रदेश सबसे आगे है। चुनाव में रिकार्ड 435 आपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी खड़े हुए थे। उनमेंसे 27 तो संसद में भी पहुंच गए। इस सूची में 14 सांसदों के साथ भाजपा सबसे ऊपर है, हालांकि उनमें से ज्यादातरछोटे-मोटे मामलों में आरोपी हैं। सपा के पास आपराधिक रिकार्ड वाले सात सांसद हैं जिनमें से चार हिस्ट्रीशीटर हैं : कांग्रेस के एक और बसपा के तीन सांसदों के नाम आपराधिक मामलों से जुड़े हैं।”

(8) भारत में ‘सह-अस्तित्व की संस्कृति का अभाव है: विधानमण्डल में जब दलों की संख्या अधिक हो जाती है तोकभी-कभी मिले-जुले मन्त्रिमण्डल का गठन करना पड़ता है। मिली-जुली सरकारें तभी ठीक प्रकार चल सकती हैं जबकिविभिन्न घटकों के बीच परस्पर विश्वास हो। भारत का यह दुर्भाग्य रहा है कि हमारे नेता नीतियों के कारण नहीं व्यक्तिगतआधारों पर आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हैं। संक्षेप में, देश को सुस्पष्ट विचारधाराओं पर आधारित दो या तीन अखिलभारतीय दलों की आवश्यकता है। 6. 7 भारतीय राजनीतिक दलों का वर्गीकरण

सारांश

राजनीतिक दल उस स्वैच्छिक समूह को कहते हैं जो कुछ सामान्य राजनीतिक व सामाजिक सिद्धान्तोंके आधार पर तथा कुछ समान्य लक्ष्यों और आदर्शों की पूर्ति के लिए शासन चलाने का प्रयत्न करता है तथा अपने सदस्योंको सत्तारूढ़ करने की चेष्टा करता है ओर उसके लिए चुनाव तथा अन्य साधनों का भी प्रयोग करता है।

कांग्रेस के कमजोर होने से क्षेत्रीय एवं राज्य स्तरीय दलों का वर्चस्व बढ़ता जा रहा है। शिव सेना, तेलगूदेशम् अन्ना द्रमुक, अकालीदल, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, लोकशक्ति, तृणमूल कांग्रेस, बीजू जनता दल जैसे दलआज भी अपने-अपने प्रभाव वाले राज्यों में राज्य राजनीति की प्रमुख धुरी हैं।

अभ्यास-प्रश्न

1. राजनीतिक दल के अर्थ और परिभाषा को स्पष्ट करें।

2. राजनीतिक दलों की उत्पत्ति व विकास का उल्लेख करें ।

3. भारत में दल व्यवस्था का वर्णन करें।

4. दलीय व्यवस्था की विशेषताओं का उल्लेख करें।

5. राजनैतिक दलों की समस्याओं का उल्लेख करें।

FAQ

भारत का पहला राजनीतिक दल कौन है?

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस है जिसकी स्थापना 1885 में हुई थी

NDA में कितने दल है 2023?

वर्तमान में 38 पार्टियां हैं।

राजनीतिक दल और दबाव समूह में क्या अंतर है?

राजनीतिक दल – वह दल जो देश की राजनीती में सक्रीय रूप से भाग लेते है और उनके सामने अनेक उद्देश्य होते हैं जो जीवन के हर पहलू राजनीतिक सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक आदि को छूते हैं वहीं दबाव-समूहों का अपना उद्देश्य होता है जिसके लिए वह निरंतर प्रयत्न करते रहते है।

राजनीति को अंग्रेजी में क्या कहते हैं?

Politics

विश्व की सबसे बड़ी पार्टी कौन है?

विश्व की सबसे बड़ा राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी है।

भारत में कितने राष्ट्रीय दल हैं?

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