जलवायु परिवर्तन | Jalvayu Parivartan| जलवायु परिवर्तन PDF

जलवायु परिवर्तन क्या है? जलवायु परिवर्तन (Jalvayu Parivartan) के कारण एवं परिणाम, जलवायु परिवर्तन से बचने के उपाय, जलवायु परिवर्तन के कारण और प्रभाव, जलवायु परिवर्तन इन हिंदी।

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जलवायु परिवर्तन (Jalvayu Parivartan)

जलवायु परिवर्तन को समझने से पहले हमें यह समझ लेना अतिआवश्यक है कि आखिर जलवायु क्या होती है? सामान्यतः जलवायु का अभिप्राय किसी दिये गए क्षेत्र में लंबे समय तक औसत मौसम से होता है।

अतः किसी क्षेत्र विशेष में मुख्य रूप से औसत मौसम में परिवर्तन आता है तो वह जलवायु परिवर्तन कहलाता हैं।

जलवायु परिवर्तन को दुनिया के किसी एक स्थान विशेष में भी महसूस किया जा सकता है एवं संपूर्ण विश्व में भी। यदि जलवायु परिवर्तन के वर्तमान संदर्भ में बात करें तो यह देखने को मिलता है कि इसका प्रभाव लगभग संपूर्ण विश्व में देखने को मिल रहा है।

पृथ्वी के इतिहास में जलवायु अनेक बार परिवर्तित हुई है एवं जलवायु परिवर्तन की बहुत सी घटनाएँ सामने आई हैं। वैज्ञानिक बताते हैं कि आज के समय में पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता जा रहा है।

रिपोर्ट के मुताबिक पृथ्वी का तापमान बीते 100 वर्षों में 1 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ गया है। पृथ्वी के तापमान में यह परिवर्तन संख्या की दृष्टि से काफी कम प्रतीत हो सकता है, किन्तु इस परिवर्तन की वजह से मानव जाति पर बड़ा असर हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन के कुछ प्रभावों को वर्तमान में भी महसूस किया जा सकता है। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी के तापमान में वृद्धि होने से हिमनद पिघल रहे हैं और महासागरों का जल स्तर बढ़ता जा रहा, इसके फलस्वरूप प्राकृतिक आपदाओं और कुछ द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ गया है।

जलवायु परिवर्तन के प्रमाण

जलवायु परिवर्तन को सिद्ध करने के लिए बहुत से प्रमाण भूगर्भिक अभिलेखों में मिलते हैं जैसे

हिम युग और अंतर हिम युगों में क्रमशः परिवर्तन की प्रक्रिया

हिम नदियों का आगे बढ़ना और पीछे हटना

हिमानी निर्मित झीलों में अवसादों का निक्षेप

उष्ण एवं शीत युगों का होना

वृक्षों के तनों में वलय क्रमशः आद्र एवं शुष्क युगों का संकेत है

अभिनव पूर्व काल में जलवायु परिवर्तन

पिछले कुछ दशकों में जलवायु तथा मौसम संबंधी अल्पकालिक घटनाएं घटी हैं 20 सी सदी में 1990 का दशक सर्वाधिक गर्म था और इसी दशक में भयंकर बाढ़ में भी आई थी अफ्रीका में सहारा मरुस्थल के दक्षिण में स्थित साहिल प्रदेश में 1967 से 1977 के दौरान भयंकर सूखा पड़ा 1930 के दशक में संयुक्त राज्य अमेरिका के दक्षिण पश्चिम भाग में भीषण सूखा पड़ा इस क्षेत्र को धूल का कटोरा कहते हैं यूरोप में कई बार आद्र और शुष्क जलवायु के योग आते रहे हैं

जलवायु परिवर्तन के कारण

ग्रीनहाउस गैसें

पृथ्वी के चारों ओर वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों की एक परत चढ़ी हुई है, इस परत में मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी गैसें शामिल हैं।

वायुमंडल में उपस्थित ग्रीनहाउस गैसों की यह परत पृथ्वी की सतह पर तापमान संतुलन को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है और विश्लेषकों के अनुसार, यदि यह परत नहीं होती तो पृथ्वी का तापमान काफी कम हो जाता।

आज के युग में जैसे-जैसे मानवीय गतिविधियाँ बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन भी बढ़ रहा है और जिसके कारण वैश्विक तापमान में वृद्धि हो रही है।

मुख्य ग्रीनहाउस गैसें

कार्बन डाइऑक्साइडः यह सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रीनहाउस गैस है और इसका उत्सर्जन प्राकृतिक व मानवीय दोनों ही कारणों से होता है। कार्बन डाइऑक्साइड का सबसे अधिक उत्सर्जन ऊर्जा हेतु जीवाश्म ईंधन को जलाने के कारण होता है। आंकड़ों के अनुसार औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वैश्विक स्तर पर 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी देखने को मिली है।

मीथेनः जैव पदार्थों के अपघटन से मीथेन का उत्सर्जन होता है। उल्लेखनीय है कि मीथेन, कार्बन डाइऑक्साइड से भी अधिक प्रभावी ग्रीनहाउस गैस है, परंतु वायुमंडल में इसकी मात्रा कार्बन डाइऑक्साइड की अपेक्षा काफी कम है।

क्लोरोफ्लोरोकार्बनः इसका प्रयोग मुख्यतः रेफ्रिजरेटर और एयर कंडीशनर में किया जाता है जिसकी वजह से ओज़ोन परत पर इसका बहुत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

जलवायु पैटर्न में बदलाव – जलवायु पैटर्न में बदलाव विभिन्न प्रकार से हो सकता है, और वहां उत्सर्जन जैसी गतिविधियों के माध्यम से जलवायु प्रभावित होती है, पेट्रोल और प्राकृतिक गैसों का उपयोग ग्रीनहाउस गैस के प्रमुख कारण हैं, पशुपालन जैसे गायों सुअरों और मुर्गियों की संख्या में बढ़ोतरी भी जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदाई है क्योंकि इन गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों का बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होता है, इन गैसों ने न केवल तापमान बढ़ाया है बल्कि जलवायु चक्र को भी बुरी तरह प्रभावित किया है

समुद्रीय जल में वृद्धि-ग्लेशियरों के पिघलने के कारण महासागर गर्म हो रहे हैं तथा महासागरों का जल स्तर खतरनाक अनुपात में बढ़ रहा है जो की समुद्रीय तटीय इलाकों में तबाही का कारण बन सकता है

वनों की कटाई-बन हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है वे पर्यावरण पर ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव को कम करने में मदद करते हैं और इस प्रकार पृथ्वी को अपने मौसम चक्र को बनाए रखने में मदद करते हैं मनुष्य द्वारा अपने निजी स्वार्थ बस जंगलों की अंधाधुंध कटाई की जा रही है, जो कि पृथ्वी के पर्यावरण और इसकी जलवायु के लिए बड़ा खतरा बन रही हैं

प्राकृतिक कारण- प्राकृतिक कारणों में वे कारण हैं जो प्राकृतिक रूप से अपने आप ही हो जाते हैं जैसे, भूकंप, ज्वालामुखी का फटना, आदि ज्वालामुखी फटने से उसमें से जो लव निकलता है, उसके किसी जल स्रोत में जाने या कहीं भी जाने से वहां प्रदूषण फैल जाता है और जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण भी प्रदूषण ही है

कारखाने और अन्य प्रदूषण-कारखाने को सबसे अधिक प्रदूषण फैलाने वाला माना जाता है, क्योंकि इसके आसपास रहने से सांस लेना भी मुश्किल हो जाता है,, इसके अलावा प्रदूषण फैलाने वालों में वाहनों को लिया जाता है, यह सभी वायु प्रदूषण फैलाने में अपना योगदान देते हैं, इसके अलावा भी कई ऐसे उदाहरण हैं जो वायु प्रदूषण के कारक बनते हैं वायु प्रदूषण से गर्मी बढ़ती है और गर्मी बढ़ने से जलवायु में परिवर्तन होता है

ग्लोबल वार्मिंग

ग्लोबल वार्मिंग का मतलब पृथ्वी के वायुमंडल की तापमान में हो रही लगातार वृद्धि से है, जिसका प्रमुख कारण ग्रीनहाउस गैसों की उत्सर्जन में वृद्धि होना है

प्रमुख ग्रीनहाउस गैस-

कार्बन डाइऑक्साइड

क्लोरोफ्लोरोकार्बन

मीथेन

नाइट्रस ऑक्साइड

ओजोन

कार्बन डाइऑक्साइड

यह सबसे प्रमुख ग्रीनहाउस गैस है जिसकी मात्रा में वृद्धि निम्नलिखित कर्म से हुई है

नगरीकरण

औद्योगिकरण

जैव ईंधन जैसे कोयला, पेट्रोलियम तथा प्राकृतिक गैस की जलने

जलवायु परिवर्तन के प्रभाव

उच्च तापमान

पावर प्लांट, ऑटोमोबाइल, वनों की कटाई और अन्य स्रोतों से होने वाला ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन पृथ्वी को अपेक्षाकृत काफी तेज़ी से गर्म कर रहा है। पिछले 150 वर्षों में वैश्विक औसत तापमान लगातार बढ़ रहा है और वर्ष 2016 को सबसे गर्म वर्ष के रूप में रिकॉर्ड किया गया है। गर्मी से संबंधित मौतों और बीमारियों, बढ़ते समुद्र स्तर, तूफान की तीव्रता में वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के कई अन्य खतरनाक परिणामों में वृद्धि के लिये बढ़े हुए तापमान को भी एक कारण माना जा सकता है। एक शोध में पाया गया है कि यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के विषय को गंभीरता से नहीं लिया गया और इसे कम करने के प्रयास नहीं किये गए तो सदी के अंत तक पृथ्वी की सतह का औसत तापमान 3 से 10 डिग्री फारेनहाइट तक बढ़ सकता है।

वर्षा के पैटर्न में बदलाव

पिछले कुछ दशकों में बाढ़, सूखा और बारिश आदि की अनियमितता काफी बढ़ गई है। यह सभी जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप ही हो रहा है। कुछ स्थानों पर आवश्यकता से बहुत अधिक वर्षा हो रही है, जबकि कुछ स्थानों पर इतनी काम वरिष्ठ हो रही है कि सूखे की संभावना बन गई है।

समुद्र जल के स्तर में वृद्धि

वैश्विक स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं और समुद्र का जल स्तर ऊपर उठता जा रहा है जिसके कारण समुद्र के आस-पास स्थित द्वीपों के डूबने का खतरा भी बढ़ जाता है। मालदीव जैसे छोटे देशों में रहने वाले लोग इन परिस्थितियों को देखते हुए पहले से ही वैकल्पिक स्थलों की तलाश में हैं।

वन्यजीव प्रजाति का नुकसान

तापमान में वृद्धि और वनस्पति पैटर्न में बदलाव ने कुछ पक्षी प्रजातियों को विलुप्त होने के लिये मजबूर कर दिया है। विशेषज्ञों के अनुसार, पृथ्वी की एक-चौथाई प्रजातियाँ वर्ष 2050 तक विलुप्त हो सकती हैं। वर्ष 2008 में ध्रुवीय भालू को उन जानवरों की सूची में जोड़ा गया था जो समुद्र के स्तर में वृद्धि के कारण विलुप्त हो सकते थे।

रोगों का प्रसार और आर्थिक नुकसान

जानकारों ने अनुमान लगाया है कि भविष्य में जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप मलेरिया और डेंगू जैसी बीमारियाँ और अधिक बढ़ेंगी तथा इन्हें नियंत्रित करना मुश्किल होगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO के आँकड़ों के अनुसार, पिछले दशक से अब तक लगभग 150,000 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है।

जंगलों में आग

जलवायु परिवर्तन के कारण लंबे समय तक चलने वाली हीट वेव्स ने जंगलों में लगने वाली आग के लिये उपयुक्त गर्म और शुष्क परिस्थितियाँ पैदा की हैं। ब्राज़ील स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस रिसर्च के आँकड़ों के मुताबिक, जनवरी 2019 से अब तक ब्राज़ील के अमेज़न वन कुल 74,155 बार वनाग्नि का सामना कर चुके हैं। साथ ही यह भी सामने आया है कि अमेज़न वन में आग लगने की घटना बीते वर्षो में 85 प्रतिशत तक बढ़ गई हैं।

स्वास्थ्य

जलवायु परिवर्तन के कारण जनसंख्या के स्वास्थ्य पर कई तरह के प्रभाव पड़ते हैं। यदि वैश्विक जलवायु परिवर्तन अपने वर्तमान पथ पर जारी रहता है, तो यह प्रभाव भविष्य के दशकों में संभावित रूप से बढ़ जाएंगे।

स्वास्थ्य जोखिमों की तीन मुख्य श्रेणियों में शामिल हैंः

1. प्रत्यक्ष-अभिनय प्रभाव (जैसे गर्मी की लहरों, प्रवर्धित वायु प्रदूषण और भौतिक मौसम आपदाओं के कारण),

2.पारिस्थितिक तंत्र और संबंधों में जलवायु संबंधी परिवर्तनों के माध्यम से मध्यस्थता वाले प्रभाव (जैसे फसल की पैदावार, मच्छर पारिस्थितिकी, समुद्री उत्पादकता),

3.दरिद्रता, विस्थापन, संसाधन संघर्ष (जैसे पानी), और आपदा के बाद मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से संबंधित अधिक विसरित (अप्रत्यक्ष) परिणाम।

जलवायु परिवर्तन से बच्चों के कुपोषण, डायरिया से होने वाली बीमारियों से होने वाली मौतों और अन्य संक्रामक रोगों के प्रसार को कम करने की दिशा में अंतर्राष्ट्रीय प्रगति को धीमा करने, रोकने या उलटने का खतरा है।

जलवायु परिवर्तन मुख्य रूप से मौजूदा, अक्सर भारी, स्वास्थ्य समस्याओं को बढ़ा देता है, खासकर दुनिया के गरीब हिस्सों में। मौसम की स्थिति में बदलाव पहले से ही विकासशील देशों में गरीब लोगों के स्वास्थ्य पर विभिन्न प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं,

जलवायु परिवर्तन का परिणाम

जलवायु परिवर्तन की कारण संपूर्ण पृथ्वी प्रभावित होती है और अभूतपूर्व परिणाम नजर आते हैं जैसे:

हिम नदियां पिघल जाएगी

नदियों में बाढ़ की मात्रा बढ़ जाएगी

समुद्र का जल स्तर 15 से 20 मीटर ऊंचा हो सकता है

तटीय भाग और बंदरगाह डूब कर नष्ट हो जाएंगे

वाष्पन तथा वर्ष के प्रति रूपों में परिवर्तन आएगा

मानव में नई-नई बीमारियां उत्पन्न होगी

पौधों की नई-नई बीमारियां उत्पन्न होगी

नाशक जीवों की समस्याएं खड़ी होगी

ओजोन छिद्र में विस्तार होगा

ITCZ उत्तर की ओर विस्थापित होगा

उष्णकटिबंधीय चक्रवातों की शक्ति और उसकी आवृत्ति में वृद्धि होगी

वनस्पति, मृदा, कृषि उत्पादकता आदि प्रभावित होगी

विश्व में खाद्य आपूर्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा

बाढ़ और सुख की आवृत्ति और प्रवृत्ति में अनियमित आएगी

जलवायु परिवर्तन का प्रभाव

कृषि पर प्रभाव-कृषि में जलवायु परिवर्तन का संभावित प्रभाव दिखाई देता है, जलवायु परिवर्तन न केवल फसलों के उत्पादन को प्रभावित करेगा बल्कि उनकी गुणवत्ता पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा, पोषक तत्वों और प्रोटीन का अभाव अनाज में पाया जाएगा जिससे कि संतुलित आहार लेने के बाद भी मनुष्यों की स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा

मिट्टी पर प्रभाव-कृषि के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन का मिट्टी पर भी प्रभाव पड़ता है,, रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग के कारण मिट्टी पहले से ही प्रदूषित हो रही है, अब तापमान और जलवायु परिवर्तन के कारण मिट्टी की नमी और उर्वरता शक्ति प्रभावित होगी, इसकी अंतर्गत मिट्टी में लवणता की वृद्धि होगी

जल संसाधनों पर प्रभाव-जलवायु परिवर्तन के कारण जल संसाधनों पर भी इसका व्यापक असर देखने को मिलता है, जलवायु परिवर्तन के कारण बाढ़ और सूखे जैसी प्राकृतिक आपदाएं बढ़ जाएगी

पशुओं पर प्रभाव- फसलों और पेड़ों के साथ जलवायु परिवर्तन का प्रभाव पशुओं और जानवरों पर भी देखा जा सकता है, तापमान में बढ़ोतरी जानवरों के विकास, स्वास्थ्य और प्रजनन को भी प्रभावित करती है, गर्मी के कर्म में तनाव बढ़ जाता है जिससे उनकी शारीरिक क्रियाएं अवरुद्ध हो जाती हैं, तथा रोग से ग्रसित होने की संभावना भी बढ़ जाती है, यह अनुमान है कि तापमान में वृद्धि के कारण अगले कुछ वर्षों में पशुओं में गर्भधारण की दर बहुत कम हो सकती है

जैव विविधता को खतरा– जलवायु परिवर्तन का बहुत व्यापक प्रभाव जैव विविधता पर भी पढ़ रहा है, जैव विविधता पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है यदि जलवायु परिवर्तन की घटना को नियंत्रित करने का प्रयास नहीं किया गया तो कई प्रजातियां विलुप्त हो सकती हैं

वर्षा पर प्रभावजलवायु परिवर्तन के परिणाम स्वरुप दुनिया के मानसूनी क्षेत्र में वर्ष में वृद्धि होगी जिससे बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएं पैदा होगी जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी ताजे जल की आपूर्ति पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगे है जहां तक भारत का सवाल है, मध्य तथा उत्तरी भारत में कम वर्षा होगी जबकि इसके विपरीत देश की पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा होगी परिणाम स्वरुप बरसात जल की कमी से मध्य तथा उत्तरी भारत में सूखे जैसी स्थिति होगी जबकि पूर्वोत्तर तथा दक्षिण पश्चिमी राज्यों में अधिक वर्षा के कारण बाढ़ जैसी समस्या होगी दोनों ही स्थितियों में कृषि उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा सुख और बाढ़ के दौरान पीने और कपड़े धोने के लिए स्वच्छ जल की उपलब्धता कम हो जाएगी जल प्रदूषण होगा तथा जल निकास की व्यवस्थाओं को हानि पहुंचेगी

जलवायु परिवर्तन को रोकने हेतु प्रयास

ऐसा नहीं है कि इन सब परिणाम के बीच मनुष्य ने कुछ उपाय नहीं किया है हालांकि यह नाकाफी साबित हुए हैं कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में वृद्धि के साथ ही यह एक वैश्विक चिंता बन गई है जिसे निम्नलिखित सम्मेलनों और संधिया द्वारा पूरे विश्व के द्वारा प्रयास किया गया :

अंतर्राष्ट्रीय मानव पर्यावरण सम्मेलन (स्टॉकहोम सम्मेलन: पर्यावरण का मैग्नाकार्टा) 1972 संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की स्थापना, 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाने का निर्णय, मानव विकास और पर्यावरण के मध्य संघर्ष को कम करने की दिशा में किया गया प्रथम प्रयास

हैलेंसकी सम्मेलन 1974: सामुद्रिक पर्यावरण की सुरक्षा

लंदन सम्मेलन 1975: समुद्र में कचरे की निस्तारण का प्रतिबंध

यूरोपीय वन्य जीव व प्राकृतिक निवास क्षेत्र संरक्षण सम्मेलन 1979: प्रजाति संरक्षण

वियना सम्मेलन 1985: ओजोन परत का संरक्षण

मॉन्ट्रियल सम्मेलन 1987: ओजोन परत की संरक्षण के लिए पहला अंतरराष्ट्रीय समझौता 16 सितंबर 1987 को हुआ 16 सितंबर को ओजोन दिवस मनाने का निर्णय

रियो सम्मेलन (पृथ्वी सम्मेलन) 1992: पर्यावरण विकास के लिए अंतरराष्ट्रीय सहयोग एजेंडा 21 स्वीकृत किया गया, जलवायु परिवर्तन को नियंत्रित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन की स्थापना

नैरोबी घोषणा पत्र 1997: अंतरराष्ट्रीय संधियों का प्रभावी क्रियान्वयन

क्योटो सम्मेलन 1997: ग्रीन हाउस गैसों की पहचान तथा भूमंडलीय तापन को कम करना, वर्ष 1990 के स्तर में पांच प्रतिशत की कटौती का निर्णय

जोहानिसबर्ग (पृथ्वी + 10 सम्मेलन) 2002: सतत विकास पर विशेष बल, विश्व एक जुटता कोष की स्थापना पर सहमति

मॉन्ट्रियल सम्मेलन 2005: विकसित देशों द्वारा वर्ष 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम कर वर्ष 1990 के स्तर तक लाना

कोपेनहेगन सम्मेलन 2009: विकसित और औद्योगिक राष्ट्रों द्वारा वर्ष 2020 तक ग्रीन हाउस गैसों की उत्सर्जन में भारी कटौती का प्रावधान, कम कार्बन अर्थव्यवस्था की परिकल्पना

कानकुन सम्मेलन 2010: हरित जलवायु कोष स्थापित करने का निर्णय

डरबन सम्मेलन (CoP-17) 2011: डरबन प्लेटफार्म के अंतर्गत ग्रीन क्लाइमेट फंड की संकल्पना

दोहा सम्मेलन (CoP-18) 2012: क्लीन डेवलपमेंट मेकैनिज्म की अंतर्गत प्रदूषण कम करने का प्रयास

रियो 20 सम्मेलन 2012: पृथ्वी सम्मेलन के दो दशक पूरे होने के उपलक्ष में संयुक्त राष्ट्र का सतत विकास सम्मेलन, जिसमें द फ्यूचर वी वांट मसौदा प्रस्तुत किया गया, हरित व्यवस्था पर बल

पेरिस सम्मेलन (CoP-21) 2015: कार्बन उत्सर्जन लक्ष्यों हेतु कानूनी रूप से बाध्यकारी संधि

निष्कर्ष

जलवायु परिवर्तन एक भीषण समस्या है कुल मिलाकर जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग मानव समाज के लिए एक बड़ा खतरापन कर उभर रहा है आज तक मनुष्य इस तरह की बड़ी पर्यावरण संकट का सामना करने के लिए मजबूर नहीं हुआ अगर हम ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाते हैं तो हम पृथ्वी पर जीवन को बचाने में सक्षम नहीं हो पाएंगे

भूमिका

जलवायु परिवर्तन वर्तमान विश्व में सर्वाधिक चर्चित और सर्वाधिक प्राथमिकता वाले विषयों में प्रमुख स्थान रखता है। यह अत्यंत संवेदनशील एवं गतिशील विषय है। दरअसल, जलवायु एक ऐसा तत्व है जो कई तत्वों से मिलकर बना है और यही कारण है कि यह हमेशा प्राकृतिक रूप से बदलता रहता है।

विश्व में वर्तमान जलवायु का जो स्वरूप स्थापित है वह पहले ऐसा नहीं था, इसकी पुष्टि विद्वानों एवं वैज्ञानिक प्रमाणों से भी हो चुकी है। जलवायु में परिवर्तन हमेशा पृथ्वी के बाहर भी देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, मंगल ग्रह पर पहला जीवन कहा जाता है।

यह सर्वविदित है कि इसका वर्तमान अतीत से बिल्कुल अलग है। सूर्य भी कभी-कभी अपने तापमान में भिन्नता प्रदर्शित करता है, जिसके परिणामस्वरूप पूरे सौर मंडल की जलवायु प्रक्रिया में परिवर्तन होता है। इस प्रकार जलवायु अपना स्वभाव बदल लेती है। में एक परिवर्तनशील तत्व है।

अब सवाल यह उठता है कि जब जलवायु परिवर्तन एक प्राकृतिक घटना है तो फिर इस पर वैश्विक बहस क्यों हो रही है। क्या ये जानने से पहले ये जानना ज़रूरी है? जैसा कि उपरोक्त पैराग्राफ में बताया गया है, जलवायु कई तत्वों के संयोजन का परिणाम है, अर्थात, जलवायु एक क्षेत्र में तापमान, आर्द्रता, वायुमंडलीय दबाव, हवा, वर्षा, वायुमंडलीय कणों और अन्य मौसम संबंधी चर की भिन्नता का औसत पैटर्न है।

समय की एक लंबी अवधि. का पैरामीटर है. यहां यह जानना जरूरी है कि जलवायु मौसम से भिन्न अवस्था है। मौसम किसी स्थान की समकालिकता का वर्णन करता है। अब यह समझना आसान हो जाएगा कि जलवायु न केवल मानव समुदाय के लिए बल्कि संपूर्ण जड़-चेतन जगत के लिए कितनी महत्वपूर्ण है।

पृथ्वी की वर्तमान व्यवस्था, चाहे वह जानवरों की व्यवस्था हो या मानव की, जलीय, स्थलीय और वनस्पति सभी जलवायु का परिणाम है और यदि जलवायु प्रणालियों में परिवर्तन होता है तो पूरी व्यवस्था बदल जाएगी, क्योंकि वर्तमान व्यवस्था इतनी संवेदनशील है कि यदि वैश्विक तापमान में 1-2 डिग्री सेंटीग्रेड का भी परिवर्तन हो जाए तो संपूर्ण पृथ्वी का संपूर्ण जैविक एवं अजैविक जगत शीघ्र ही नष्ट हो जाएगा। आज हम समझ गए होंगे कि जलवायु परिवर्तन का अध्ययन वैश्विक जगत के लिए क्यों आवश्यक है।

अब सवाल यह उठता है कि क्या जलवायु बदल रही है और यदि हां, तो कैसे? इस बदलाव के लिए कौन जिम्मेदार है? प्रकृति स्वयं या मनुष्य, या दोनों? इसके परिणाम क्या होंगे? इस पर काबू पाया जा सकता है या नहीं, ऐसे कौन से उपाय होंगे जिनसे इस बदलाव को रोका जा सके। इन सभी मुद्दों पर अगले पन्नों में विस्तार से चर्चा करने का प्रयास किया गया है।

वर्तमान परिवर्तनों पर चर्चा करने से पहले, आइए देखें कि क्या पृथ्वी ने पहले भी जलवायु परिवर्तन का अनुभव किया है। ऐसे किसी भी क्षेत्र में जलवायु में होने वाले परिवर्तनों के ऐतिहासिक क्रम को ‘जलवायु कालक्रम’ कहा जाता है।

जे.ई. हब्स सर ने ऐसे अध्ययनों से यह सिद्ध कर दिया कि ‘पृथ्वी के इतिहास में जलवायु परिवर्तन हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।’ कभी-कभी यह परिवर्तन एक चक्र की तरह होता है तो इस परिवर्तन को जलवायु चक्र कहा जाता है।

हिमयुग की वैश्विक घटनाएँ इस चक्र की पुष्टि करती हैं।

हिमयुग (मिलियन वर्ष पूर्व) आगमन काल

प्री-कैम्ब्रियन हिमयुग 850-600

ऑर्डोविशियन हिमयुग 450-430

कार्डनिफेरस हिमयुग 300

प्लेइस्टोसिन हिमयुग

(सबसे प्रसिद्ध और अंतिम हिमयुग) 2-3 इसका अर्थ यह होगा कि पृथ्वी के पिछले इतिहास में जब मानव की उत्पत्ति भी नहीं हुई थी तब जलवायु परिवर्तन हुए हैं।

आमतौर पर यह आम धारणा है कि जलवायु परिवर्तन तेजी से होता है लेकिन यह हमेशा सच नहीं होता है। जुरासिक युग में अचानक जलवायु परिवर्तन के प्रमाण मिले हैं, जिसके कारण जलवायु के अचानक ठंडा होने से डायनासोर बड़े पैमाने पर विलुप्त हो गए। जुरासिक युग में जलवायु में अचानक परिवर्तन के कारण

इसका कारण यह बताया जाता है कि एक विशाल उल्कापिंड के पृथ्वी से टकराने के कारण उत्पन्न अपार धूल कणों के कारण सूर्यातप की मात्रा में भारी कमी आने के कारण पृथ्वी की जलवायु ठंडी हो गई थी।

वर्तमान में, वैश्विक मानव समाज मौसम की स्थिति में वार्षिक परिवर्तन और उतार-चढ़ाव के कारण निकट भविष्य में संभावित जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंतित है। पिछली शताब्दी का अंतिम दशक (1991-2000) विश्व तापमान इतिहास में सबसे गर्म दशक था और वर्ष 2005 सबसे गर्म वर्ष था। 2004-05 में वैश्विक बर्फबारी भी मौसम के बदलते मिजाज की चेतावनी है।

आज विश्व के सामने सबसे बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। दरअसल, आज मानवीय गतिविधियों, वन विनाश, ग्रीनहाउस गैसों, तेजी से विकास, ओजोन क्षरण आदि के परिणामस्वरूप संभावित जलवायु परिवर्तन की चिंता एक बड़ी समस्या बनी हुई है। क्योंकि ऐसा माना जाता है कि मानवीय गतिविधियों के कारण यदि वैश्विक तापमान बढ़ता है तो जलवायु में स्थानीय, क्षेत्रीय और वैश्विक परिवर्तन होंगे, जिसके परिणाम विनाशकारी होंगे।

उदाहरण: ग्लोबल वार्मिंग के कारण ग्लेशियरों और बर्फ की चोटियों के पिघलने की दर बढ़ जाएगी, जिसके कारण समुद्र के स्तर में वृद्धि होगी जिसके कारण द्वीप देश जलमग्न हो जाएंगे, तटीय क्षेत्र भी जलमग्न हो जाएंगे। वायुमंडलीय गतिविधि में एक बड़ा बदलाव होगा जो पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करेगा। इसलिए जलवायु परिवर्तन का अध्ययन आवश्यक हो जाता है।

जलवायु परिवर्तन के संकेत या साक्ष्य

हमें कैसे पता चलेगा कि पृथ्वी गर्म हो रही है?

वैज्ञानिक लगभग 1880 से ही पृथ्वी की सतह के तापमान का विस्तार से आकलन या माप कर रहे हैं और इसमें लगातार सुधार हुआ है और वर्तमान में भी भूमि और जल भागों सहित हजारों स्थानों का तापमान मापा जा रहा है।

विभिन्न अनुसंधान संगठन जैसे नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस स्टडीज, ब्रिटेन के हेडली सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज, जापान मौसम विज्ञान एजेंसी आदि इस कच्चे डेटा का उपयोग पृथ्वी की सतह के तापमान में दीर्घकालिक परिवर्तनों का अनुमान लगाने के लिए करते हैं।

ये सभी संगठन बहुत सावधानी से माप करते हैं और यह ध्यान में रखते हैं कि माप को कोई अन्य चीज़ प्रभावित नहीं कर सकती है जैसे शहर का तापमान धीरे-धीरे बढ़ना आदि। इन सभी के विश्लेषण से पता चलता है कि पिछले 100 वर्षों के दौरान पृथ्वी का औसत तापमान 0.8 OC बढ़ गया है।

इसमें सबसे ज्यादा बढ़ोतरी पिछले 35 साल में देखी गई. यदि हम तापमान में होने वाली इस वृद्धि को दैनिक अथवा मौसमी मानें। यह छोटा लग सकता है, लेकिन यह पूरे ग्रह के लिए एक महत्वपूर्ण बदलाव है। एक उदाहरण पर विचार करें – वाशिंगटन, डी.सी. और चार्ल्सटन, दक्षिण कैरोलिना, एक दूसरे से दो किलोमीटर दूर के बीच औसत वार्षिक तापमान अंतर से 0.8 डिग्री सेल्सियस अधिक है।

वे 450 मील दूर हैं. इस बात पर भी विचार करें कि हिमयुग और वर्तमान के औसत वार्षिक तापमान के बीच का अंतर केवल 50°C आंका गया है। सतह के तापमान के अलावा समुद्र के अलावा अन्य क्षेत्रों के तापमान को मापने में भी बहुत सावधानी बरती जाती थी। जैसे सतह के नीचे तापमान, लवणता और धाराओं को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का उपयोग किया जा रहा है।

मौसम के गुब्बारे वातावरण का तापमान, आर्द्रता और तापमान माप रहे हैं। वैश्विक पर्यावरण परिवर्तन के अध्ययन में उस समय एक महत्वपूर्ण सफलता और क्षमता का विकास हुआ। 1970 के दशक में जब रिमोट सेंसिंग की शुरुआत हुई, तो इन उपग्रहों ने सतही उपकरणों की तुलना में तापमान को अधिक विविधता से मापा।

इसके अलावा ग्लोबल वार्मिंग के कई अन्य लक्षण भी हैं जैसे गर्मी की लहरों की आवृत्ति बढ़ रही है, सर्दियों की अवधि कम हो रही है, उत्तरी गोलार्ध में सर्दी और बर्फ वाले क्षेत्र कम हो रहे हैं, दुनिया भर में ग्लेशियर पिघल रहे हैं, कई पौधे हैं और जानवर ठंडे इलाकों या उत्तरी अक्षांशों की ओर पलायन कर रहे हैं, क्योंकि जहां वे वर्तमान में हैं वहां का तापमान उनके लिए बहुत अधिक है, इसलिए इन सभी आंकड़ों से जो तस्वीर उभरती है वह स्पष्ट है कि पृथ्वी गर्म हो रही है।

हमें कैसे पता चलेगा कि वर्तमान वार्मिंग के लिए ग्रीनहाउस गैसें जिम्मेदार हैं?

1820 की शुरुआत में ही वैज्ञानिकों ने पृथ्वी और पृथ्वी के वायुमंडल के तापमान को नियंत्रित करने में ग्रीनहाउस गैसों की भूमिका को स्वीकार करना शुरू कर दिया था, जिसमें CO2 आदि पृथ्वी के वायुमंडल में एक कंबल की तरह काम करते हैं।

ये गैसें पृथ्वी पर सभी जीवन प्रणालियों के लिए पर्याप्त तापमान बनाए रखती हैं। दरअसल, जब सूर्य से प्राप्त ऊष्मा पृथ्वी की सतह से टकराती है, तो पृथ्वी ऊष्मा के कुछ भाग को सीधे अंतरिक्ष में परावर्तित कर देती है, कुछ मात्रा भूमि और जल भागों द्वारा अवशोषित कर ली जाती है, लेकिन इस अवशोषित मात्रा का उपयोग पृथ्वी किसी न किसी रूप में करती है।

तापमान संतुलन बनाए रखने के लिए वापस लौटना होगा, क्योंकि यदि अवशोषित मात्रा वापस नहीं की गई तो पृथ्वी का तापमान धीरे-धीरे बढ़ता जाएगा और परिणाम यह होगा कि पृथ्वी पर जीवन का अस्तित्व समाप्त हो जाएगा। अब पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा को ‘पृथ्वी विकिरण’ के नाम से जाना जाता है।

यह विकिरण वायुमंडल में मौजूद हरी गैसों द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है जिससे वातावरण काफी गर्म हो जाता है और यह पृथ्वी पर जीवन के लिए आदर्श तापमान की स्थिति है। अब इसके विपरीत, इन हरित गैसों की अनुपस्थिति में, स्थलीय विकिरण सीधे अंतरिक्ष में चला जाता है जिसके कारण पृथ्वी का वायुमंडल पर्याप्त गर्म नहीं रह पाता है और यदि पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान हिमांक बिंदु तक पहुँच भी जाता है, तो भी पृथ्वी पर जीवन नहीं होगा संभव हो।

कहने का तात्पर्य यह है कि हरित गैसों की अनुपस्थिति में पृथ्वी पर दिन और रात की दो चरम स्थितियाँ होती जिसके कारण जीवन संभव नहीं होता, अर्थात हरित गैसों की मात्रा में संतुलन है . लेकिन वर्तमान में मानक गतिविधियों के कारण वायुमंडल में हरित गैसों की मात्रा बढ़ रही है जिसके कारण पृथ्वी की सतह का तापमान बढ़ रहा है।

हमें कैसे पता चलेगा कि ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि का कारण मनुष्य हैं?

ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता को बुद्धिमान मानव प्रभाव से चुनौती दी जा रही है क्योंकि हरित गैसें पहले से ही वायुमंडल में प्राकृतिक रूप से पाई जाती हैं। कार्बन डाइऑक्साइड कार्बन चक्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है जो कई महत्वपूर्ण प्राकृतिक प्रक्रियाओं द्वारा उत्पादित और उपभोग किया जाता है।

जब से मनुष्यों ने लंबे समय से दबे कार्बन (जैसे कोयला, तेल) को खोदना और जलाना शुरू किया, दहन की गर्मी के कारण अतिरिक्त CO2 वातावरण में प्रवेश करना शुरू कर दिया। अन्य मानवीय गतिविधियाँ जैसे सीमेंट उत्पादन और पेड़ों और जंगलों को जलाने आदि से भी वातावरण में CO2 बढ़ने लगी।

1950 तक अधिकांश वैज्ञानिकों का मानना था कि मानवीय गतिविधियों से जो भी CO2 निकलती है, उसका अधिकांश भाग समुद्र द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। तब से लगातार वैज्ञानिक शोध पत्र प्रकाशित हो रहे हैं। यह देखना या परखना कि वायुमंडल और समुद्र में मौजूद कार्बन के बीच क्या संबंध है और नतीजा यह निकला कि महासागर उत्सर्जित अधिकांश CO2 को अवशोषित नहीं करता है।

इस अवधारणा का परीक्षण करने के लिए ‘कारलेस डेविड कीलिंग’ ने हवाई द्वीप में स्थित ‘मोआना लोआ अवजर्वताती’ (अमेरिका) में हवा से कार्बन के नमूने एकत्र करना शुरू किया। आज पूरे विश्व में जगह-जगह ऐसे परीक्षण केंद्र स्थापित किये जा रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि वातावरण में CO2 की मात्रा बढ़ रही है।

इसी तरह, आधुनिक माप से पहले CO2 की सांद्रता कैसे निर्धारित की जाती थी? इसलिए वैज्ञानिकों ने ग्रीन लैंड और अंटार्कटिका के बर्फ के टुकड़ों में फंसे हवा के बुलबुले की संरचना और घटकों का अध्ययन किया। ये आंकड़े कम से कम 2000 साल पुराने हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद लगभग 1800 तक CO2 धीरे-धीरे और फिर तीव्र गति से बढ़ने लगी। आज वायुमंडल में CO2 की सांद्रता 390 भाग प्रति मिलियन है, जो औद्योगिक क्रांति से पहले की तुलना में लगभग 40 प्रतिशत अधिक है।

मानवीय गतिविधियों ने वातावरण में अन्य महत्वपूर्ण गैसों की सांद्रता में भी वृद्धि की है, जैसे मीथेन, जो जीवाश्म ईंधन के जलने, मवेशी प्रजनन, परिवहन और प्राकृतिक गैस के उत्पादन और अन्य गतिविधियों से आती है। इसके अलावा, 1750 के बाद से नाइट्रस ऑक्साइड में लगभग 150 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।

CO की वृद्धि (जो मुख्य रूप से कृषि में उर्वरकों के उपयोग के साथ-साथ जीवाश्म ईंधन से भी होती है। कुछ औद्योगिक रसायन जैसे क्लोरोफ्लोरो कार्बन, जो हरित गैसों में महत्वपूर्ण है) और जो लंबे समय से वायुमंडल में है क्योंकि यह प्राकृतिक रूप से नहीं पाया जाता है, इसकी वृद्धि (निस्संदेह मानवीय कार्यों के कारण हो सकती है।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि हर साल तेल, कोयला और प्राकृतिक गैस के दहन से वायुमंडल में सीधे CO2 की मात्रा जुड़ती है। इसका पूरा डॉक्यूमेंटेशन तैयार कर लिया गया है. वैज्ञानिकों ने महासागरों और भूभाग द्वारा अवशोषित CO2 की औसत मात्रा का भी दस्तावेजीकरण किया है। विश्लेषण से पता चलता है कि मानवीय गतिविधियाँ वर्तमान CO2 में 45 प्रतिशत का योगदान करती हैं।

हरित गैसों का प्रभाव

1824 में, फ्रांसीसी भौतिक विज्ञानी ‘जोसेफ फ्रायरियर’ ने पहली बार सुझाव दिया कि वातावरण एक इन्सुलेटर के रूप में कार्य करता है। इसने वह सुझाव दिया जो बाद में हरी परत प्रभाव के रूप में जाना जाने लगा। 1850 में, आयरिश मूल के भौतिक विज्ञानी जॉन टाइन्डल ने पहली बार कहा कि पृथ्वी द्वारा उत्सर्जित गर्मी को वायुमंडल में मौजूद जल वाष्प और अन्य गैसों द्वारा अवशोषित किया जाता है।

मानवीय गतिविधियाँ पृथ्वी को कितना गर्म कर रही हैं?

हरित गैसें वायुमंडल को गर्म करने में एक प्रेरक एजेंट के रूप में कार्य करती हैं क्योंकि उनमें ग्रह के तापमान में उतार-चढ़ाव की प्रबल क्षमता होती है। इन ग्रीनहाउस गैसों में विभिन्न तापमानों को झेलने की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, मीथेन के लिए, एक अणु की ताप शक्ति CO2 के एक अणु की तापन शक्ति से 25 गुना है।

हालाँकि, CO2 पर तापमान का प्रभाव मीथेन की तुलना में अधिक समय तक रहता है क्योंकि यह वायुमंडल में अधिक मात्रा में और लंबे समय तक रहता है। कुछ प्रेरक एजेंट पृथ्वी के ताप संतुलन को शीतलन की ओर स्थानांतरित कर देते हैं। कुछ हरित गैसों से तापमान को समायोजित करते हैं।

उदाहरण के लिए, कुछ एरोसोल बहुत छोटे या ठोस कण होते हैं। वातावरण में तैरते रहो. इनका प्रभाव शीतल होता है क्योंकि ये सूर्य से आने वाले सूर्य के प्रकाश को वापस अंतरिक्ष में परावर्तित कर देते हैं। जीवाश्म ईंधन जलाने जैसी मानवीय गतिविधियाँ वायुमंडल में एयरोसोल कणों की संख्या बढ़ाती हैं। शहरी क्षेत्रों में इनकी वृद्धि अधिक है।

जब सभी मानव और प्राकृतिक प्रेरक एजेंटों पर एक साथ विचार किया गया, तो वैज्ञानिकों ने गणना की कि जलवायु ने 1750 और 2005 के बीच पृथ्वी के गर्म होने की प्रवृत्ति को प्रेरित किया। पृथ्वी की सतह पर 1.6 वाट प्रति वर्ग मीटर की अतिरिक्त ऊर्जा होने की गणना की गई है।

जब इसे पृथ्वी के क्षेत्रफल से गुणा किया जाता है, तो इसकी मात्रा 800 ट्रिलियन वाट होती है, जो दुनिया के सभी बिजली संयंत्रों के संयुक्त वार्षिक उत्पादन से 50 गुना से अधिक है। यह अतिरिक्त ऊर्जा हर दिन के हर सेकंड में पृथ्वी की जलवायु प्रणाली में जुड़ती है। गर्मी देने

CO की कुल मात्रा जलवायु में पाई जाने वाली विभिन्न प्रतिक्रियाओं से निर्धारित होती है। उदाहरण के लिए, यदि पृथ्वी गर्म हो रही है तो ध्रुवीय बर्फ और हिम पिघलेंगे, जब तापमान बढ़ेगा तो ऊष्मा अवशोषण के बाद पानी और भूमि का रंग गहरा हो जाएगा। एक अन्य महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया जल वाष्प है।

वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा में वृद्धि होगी, यह समुद्र की सतह और वायुमंडल की निचली परत में स्पष्ट रूप से दिखाई देगा। यदि तापमान 1OC बढ़ जाता है, तो जलवाष्प 7 प्रतिशत बढ़ जाएगा।

हमें कैसे पता चलेगा कि वर्तमान वार्मिंग में सूर्य का कोई योगदान नहीं है?

विज्ञान सिद्धांत का परीक्षण करने का दूसरा तरीका वैकल्पिक स्पष्टीकरणों की जांच करना है क्योंकि सूर्य का पृथ्वी के तापमान पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के तापमान में वृद्धि में इसके महत्वपूर्ण योगदान को निर्धारित करने के लिए सूर्य द्वारा जारी ऊर्जा के बदलते पैटर्न का अध्ययन किया। अधिकांश माप सीधे उपग्रह डेटा पर आधारित हैं जो 1979 से उपलब्ध हैं। ये उपग्रह डेटा हैं

इससे पता चलता है कि पिछले 30 वर्षों में सूर्य द्वारा जारी ऊर्जा में कोई वृद्धि नहीं हुई है और इसलिए उस दौरान गर्मी के लिए सूर्य को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता है।

उपग्रहों के युग से पहले, सूर्य द्वारा जारी ऊर्जा की मात्रा को अप्रत्यक्ष तरीकों से मापा जाता था, जैसे कि वार्षिक आधार पर सनस्पॉट या सनस्पॉट की संख्या। इन अप्रत्यक्ष अध्ययन विधियों से पता चला कि 20वीं शताब्दी के दौरान तापमान में बहुत कम वृद्धि होगी। ये वृद्धि कुछ समय के लिए ग्लोबल वार्मिंग में योगदान दे सकती है, लेकिन यह अनुमान 20वीं शताब्दी के बाद से वार्मिंग की व्याख्या नहीं कर सकता है।

आगे के प्रभावों में वर्तमान वार्मिंग में वायुमंडल का कोई भी योगदान शामिल है। परत में सौर भिन्नता का कोई योगदान नहीं पाया गया। इसका परीक्षण करने के लिए, डेटा को दो स्रोतों से संकलित किया गया था: मौसम के गुब्बारे, जो 1950 के दशक से दुनिया भर में 100 से अधिक स्थानों से दिन में दो बार लॉन्च किए गए थे, और इसके उपग्रह स्रोत, जो तब से वायुमंडल की विभिन्न परतों के तापमान की निगरानी कर रहे हैं।

1970 के दशक में, दोनों स्रोतों से डेटा को गहराई से देखा गया और पाया गया कि पैटर्न बिल्कुल वैसा ही था जैसा कि ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि की अपेक्षा की गई थी। पृथ्वी की सतह के पास अवशोषित ऊर्जा से, ये स्रोत क्रमशः वायुमंडल की ऊपरी और निचली परतों के गर्म होने और ठंडा होने के पैटर्न दिखाते हैं।

अब, यदि वर्तमान वार्मिंग प्रवृत्ति को उत्पादित सौर ऊर्जा के लिए जिम्मेदार माना जाता है, तो यह प्रवृत्ति वायुमंडल में लंबवत समानांतर देखी जानी चाहिए, जो कि मामला नहीं है।

हमें कैसे पता चलेगा कि वर्तमान तापमान वृद्धि की प्रवृत्ति प्राकृतिक चक्रों के कारण नहीं है?

जलवायु रुझानों का आकलन पूरी तरह से डेटा के माध्यम से किया जा रहा है, जहां तापमान, आर्द्रता, वर्षा और अन्य जलवायु परिवर्तन आदि जैसे कई चर हैं। ये सभी प्राकृतिक कारक विभिन्न प्रक्रियाओं और लंबे समय तक शीतलन और वार्मिंग पैटर्न के चल रहे संघर्ष का परिणाम हैं।

लाखों वर्ष पहले का समय. इन सभी में से, एल नीनो और ला नीना उष्णकटिबंधीय प्रशांत महासागर में शीतलन और वार्मिंग के प्राकृतिक अल्पकालिक जलवायु उतार-चढ़ाव का सबसे अच्छा उदाहरण हैं। प्रमुख अल नीनो और ला नीनो घटनाएं ग्रह के विभिन्न हिस्सों में तापमान और वर्षा के पैटर्न में बदलाव से संबंधित हैं।

यह घटना कई चरम मौसम स्थितियों से जुड़ी हुई है, जैसे कि 1992 में मध्य पूर्व में बाढ़, 2006 और 2007 में दक्षिण-पूर्वी राज्यों में गंभीर सूखा, आदि। अल नीनो के दौरान वैश्विक तापमान में वृद्धि होती है, जैसे कि 1998 में, और इसके दौरान कमी आती है। ला नीना, जैसे कि 2008 में। हालाँकि, ये उतार-चढ़ाव 20वीं सदी की वार्मिंग प्रवृत्ति से छोटे हैं। 2008 अभी भी इस अवधि के लिए रिकॉर्ड पर सबसे गर्म वर्ष था।

प्राकृतिक जलवायु विविधताएँ सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की कक्षा में धीमे बदलाव को भी प्रेरित कर सकती हैं जो पृथ्वी द्वारा प्राप्त सौर ऊर्जा की मात्रा को प्रभावित कर सकती हैं, जैसा कि हिमयुग की घटना या वायुमंडल में ज्वालामुखीय निकास की छोटी अवधि के साथ हुआ था। इसके लिए बदलें।

1919 में, माउंट पिनातुबो के विशाल विस्फोट ने समताप मंडल में बड़ी मात्रा में ज्वालामुखीय सामग्री जमा कर दी, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी अपेक्षाकृत ठंडी हो गई। हालाँकि, सतह का तापमान 2-5 वर्षों के बीच अपनी पिछली स्थिति में लौट आया जब ये पदार्थ वायुमंडल के बाहर स्थिर हो गए। 20वीं सदी के तापमान डेटा से पता चलता है कि कई ज्वालामुखी विस्फोटों के बाद ऐसे अल्पकालिक शीतलन प्रभाव देखे गए हैं।

कुछ समान तापमान भिन्नताओं को विभिन्न मजबूत एल नीनो और ला नीना के साथ जोड़कर देखा जाता है। लेकिन कुल मिलाकर तापमान वृद्धि की प्रवृत्ति अभी भी बनी हुई है। जलवायु वैज्ञानिक अल नीनो और ला नीना घटनाओं और अन्य अल्पकालिक प्राकृतिक उतार-चढ़ाव के संदर्भ में, दशकों और उससे अधिक समय के समय के पैमाने पर जलवायु प्रणाली पर मानव प्रभावों का आकलन करते हैं।

उपलब्ध तापमान डेटा, जलवायु परिवर्तन के अनुमान और प्राकृतिक जलवायु परिवर्तनशीलता के स्रोतों के कठोर मूल्यांकन के आधार पर, वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला है कि 90 प्रतिशत से अधिक संभावना है कि जीवाश्म ईंधन का दहन पिछले 50 से 60 वर्षों में ग्लोबल वार्मिंग की प्रवृत्ति के लिए जिम्मेदार है। साल। और उत्सर्जित गैसें और अन्य मानवीय गतिविधियाँ ही इसमें योगदान देती हैं।

यह जानकारी या निर्णय कि मानवीय गतिविधियाँ वर्तमान ग्लोबल वार्मिंग में योगदान करती हैं, ‘जलवायु मॉडल’ से ली गई हैं। वैज्ञानिकों ने इस मॉडल का उपयोग यह अनुमान लगाने के लिए भी किया कि यदि 20वीं शताब्दी में मनुष्यों ने अपनी गतिविधियों के माध्यम से पृथ्वी की जलवायु को नहीं बदला होता तो क्या होता।

संभव था कि गर्म करने की प्रक्रिया नगण्य रही होगी या बहुत धीमी प्रक्रिया से इसे ठंडा किया गया होगा। जब ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और अन्य गतिविधियों को मॉडल में शामिल किया जाता है, तो परिणाम सतह के तापमान में अधिक समान परिवर्तन होता है।

जलवायु मॉडल

कई दशकों तक, वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की जलवायु का अनुकरण करने के लिए दुनिया के सबसे उन्नत कंप्यूटरों का उपयोग किया। ये मॉडल भौतिकी के बुनियादी नियमों और गणितीय समीकरणों की एक श्रृंखला पर आधारित हैं जो वायुमंडल, महासागरों और सतह के व्यवहार को निर्धारित या निर्देशित करते हैं।

जलवायु मॉडल जलवायु के वर्तमान, अतीत और भविष्य का अध्ययन करने का एक अच्छा माध्यम है। जलवायु मॉडल की जाँच अवलोकनों या सर्वेक्षणों के आधार पर की जाती है ताकि वैज्ञानिक सटीक रूप से व्याख्या कर सकें कि अतीत और हाल में क्या हुआ था।

जलवायु परिवर्तन और प्रभाव (21वीं सदी और उसके बाद)

हमारे वैज्ञानिकों ने तापमान परिवर्तन की भयावहता की भविष्यवाणी करने और भविष्य में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को समझने और दुनिया भर में औसत तापमान वृद्धि कैसी होगी, इसे समझने में काफी प्रगति की है। 1OC, 2OC, 3OC, 4OC, यह प्रभावों की एक विस्तृत श्रृंखला से जुड़ा है।

इनमें से कई अनुमानित प्रभाव मानव समुदायों और जीवित जीवों के लिए गंभीर जोखिम पैदा करेंगे, जैसे: जल संसाधन, तटीय क्षेत्र, बुनियादी ढाँचा, मानव स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और भूमि और जलीय पारिस्थितिकी तंत्र। .

वैज्ञानिक भविष्य में जलवायु परिवर्तन का अनुमान कैसे लगाते हैं?

भविष्य में ग्लोबल वार्मिंग का निर्धारण करने वाले सबसे महत्वपूर्ण कारक CO2 और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और लोग ऊर्जा का उत्पादन और उपभोग कैसे करते हैं, इस पर निर्भर करेंगे। इसके अलावा देशों की नीतियां राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मानकों और नई तकनीक की उपलब्धता पर भी निर्भर करेंगी।

वैज्ञानिक भविष्य की ऊर्जा और उत्सर्जन का निर्धारण और अनुमान लगाने की कोशिश कर रहे हैं। इनमें से प्रत्येक परिदृश्य इस अनुमान पर आधारित है कि जनसंख्या वृद्धि, आर्थिक गतिविधि, ऊर्जा संरक्षण प्रथाओं, ऊर्जा प्रौद्योगिकी और भूमि उपयोग सहित समय के साथ आर्थिक, तकनीकी और पर्यावरणीय कारक कैसे बदलेंगे।

जलवायु कैसे व्यवहार करेगी इसका अनुमान लगाने के लिए वैज्ञानिक जलवायु मॉडल का उपयोग करते हैं। यह ग्रीनहाउस गैसों की सांद्रता पर निर्भर करेगा। प्रत्येक मॉडल वायुमंडल, महासागरों और जलवायु के अन्य भागों को पुन: पेश करने के लिए गणितीय समीकरणों के एक अलग सेट का उपयोग करता है।

भविष्यवाणियों और शुद्धता के साथ-साथ मॉडल की मजबूती का परीक्षण करने के लिए मॉडल का नियमित आधार पर एक-दूसरे के खिलाफ परीक्षण किया जाता है।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन का प्रतिनिधित्व करने के लिए 2005 में पूरा किया गया। अब तक के सबसे व्यापक मॉडल परीक्षण में दुनिया के 23 अलग-अलग मॉडल शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक में ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के लिए समान परिदृश्यों का उपयोग किया गया था।

आरेख उच्च, मध्यम और मध्यम उच्च, निम्न उत्सर्जन के साथ तापमान परिवर्तन को जोड़ता है। यहां लगातार तीन भविष्य के परिदृश्यों के लिए ग्राफ़ दिए गए हैं जो सदी के अंत तक वैश्विक औसत तापमान को स्पष्ट रूप से दर्शाते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि 20वीं सदी की तुलना में 2100 में तापमान में स्पष्ट वृद्धि हुई है। ये परिणाम बताते हैं कि मानवीय निर्णय जलवायु परिवर्तन का भयावह रूप प्रस्तुत करेंगे। उपरोक्त आंकड़ा तीन परिदृश्यों के लिए तापमान परिवर्तन दिखाता है, जो ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और तापमान के बीच सीधा संबंध दर्शाता है।

वर्षा के पैटर्न में कैसे बदलाव की संभावना है?

वैज्ञानिकों ने डेटा और मॉडलों का अध्ययन करके पाया है कि ग्लोबल वार्मिंग पहले से मौजूद प्रणाली में विरोधाभासों को बढ़ा देगी, जिसका अर्थ है कि जहां भी सूखा होगा, वहां और भी अधिक सूखा होगा, और जहां भी वर्षा होगी, वहां और भी अधिक वर्षा होगी। प्राप्त होगा।

क्योंकि तापमान बढ़ने से जल के घटकों का वाष्पीकरण बढ़ जाएगा, क्योंकि यदि तापमान 1% बढ़ जाएगा तो वायुमंडल में मौजूद वायु की जलवाष्प धारण करने की क्षमता 7 प्रतिशत बढ़ जाएगी। हालाँकि वाष्पीकरण बढ़ने से वातावरण में वर्षा होगी। और यह बर्फबारी के लिए अतिरिक्त नमी प्रदान करेगा, लेकिन यह वर्षा क्षेत्र के बाहर की भूमि और जमीन के हिस्सों को और भी शुष्क बना देगा।

इसी सामान्य दृष्टिकोण का उपयोग तापमान के साथ भी किया जा रहा है, जिसमें वैज्ञानिकों ने भविष्यवाणी की है कि ग्लोबल वार्मिंग में 1 साल की वृद्धि के साथ, उन क्षेत्रों में वर्षा 5-10 प्रतिशत कम हो जाएगी जहां सूखे की स्थिति अभी भी बनी हुई है।

इसका परिणाम यह होगा कि उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों को और भी अधिक सूखे का सामना करना पड़ेगा और तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर वर्षा में 5-10 प्रतिशत की कमी आएगी। उपध्रुवीय क्षेत्रों में इसका विपरीत होगा, जहां वर्षा बढ़ेगी, विशेषकर सर्दियों में।

समुद्री बर्फ और वर्षा पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

ग्रह के विभिन्न बर्फ रूपों में गिरावट आ रही है। मॉडलों से संकेत मिलता है कि इस सदी के अंत तक आर्कटिक महासागर के बर्फ मुक्त होने की संभावना है, और वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि प्रत्येक 1OC वैश्विक तापमान में वृद्धि से समुद्री वर्ष में गर्मी में 25 प्रतिशत की कमी आएगी। .

आर्कटिक के विपरीत, अंटार्कटिका में पिछले कई दशकों में समुद्री बर्फ में औसत वृद्धि देखी गई है। इसका संबंध समताप मंडल में स्थित ओजोन परत में छेद से हो सकता है। हालाँकि, मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल के बाद से इस छेद में गिरावट देखी गई है। अंटार्कटिका की बर्फ भी आर्कटिक की तुलना में तेजी से पिघल रही है क्योंकि दक्षिणी महासागर आर्कटिक महासागर की तुलना में अधिक गहराई पर तापमान अवशोषित करता है।

स्थानों और पहाड़ों पर होने वाली बर्फबारी के बारे में विद्वानों का कहना है कि कई इलाकों में सर्दियों के दौरान होने वाली बर्फबारी वसंत से पहले ही खत्म होती नजर आ रही है। एक संवेदनशीलता विश्लेषण के अनुसार, पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका में स्थानीय बर्फ के आवरण में औसतन 20 प्रतिशत की कमी देखी जा सकती है, साथ ही स्थायी तापमान में 0.1 वर्ष की वृद्धि देखी जा सकती है।

ये बर्फ से ढके क्षेत्र जलविद्युत और पीने के पानी का मुख्य स्रोत हैं। साइबेरिया, ग्रीनलैंड, अंटार्कटिका जैसे कुछ क्षेत्र, जहां मौसम पहले से ही लंबे समय से ठंडा है, जिससे बर्फबारी में मदद मिलती है। इन स्थानों पर बर्फबारी बढ़ने की प्रबल संभावना है क्योंकि तापमान में वृद्धि के कारण जलवाष्प में वृद्धि से बर्फबारी बढ़ सकती है।

तटीय क्षेत्र कैसे प्रभावित होंगे?

तटीय क्षेत्र पृथ्वी पर सबसे घनी आबादी वाले क्षेत्रों में से हैं, और समुद्र से कम ऊंचाई के कारण चिंता का कारण हैं। अनुमान है कि मानवीय गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैसों में वृद्धि से कई दशकों तक समुद्र के स्तर में वृद्धि की प्रबल संभावना है, इस आकलन के आधार पर वैज्ञानिकों ने 2100 तक समुद्र के स्तर में 0.5-1.0 मीटर की वृद्धि की संभावना व्यक्त की है।

यह अपने आप में गंभीर चिंता का विषय है. हालाँकि ग्लेशियरों के पिघलने से इसमें कमी आएगी लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि समुद्र के स्तर में यह वृद्धि और भी अधिक हो सकती है। समुद्र के स्तर में यह वृद्धि 1990 में किए गए एक अनुमान पर आधारित है। विशेष समुद्र तट पर बढ़ता खतरा भोजन के लिए एक बढ़ती चुनौती है। कई गैर-जलवायु कारक इस संकट को और बढ़ाते हैं जैसे मकानों का निर्माण आदि।

इसके अलावा, विभिन्न चरम घटनाएं भी धीमी गति से होने वाले परिवर्तनों के कारण जमीनी संरचनाओं को नुकसान पहुंचाती हैं जिन्हें तूफान, भूकंप आदि कहा जाता है। हालांकि, तटीय क्षेत्र में कुछ नदी डेल्टा क्षेत्र सिपी, नील, गंगा और मेकांग नदियों जैसे ‘हॉट-स्पॉट’ का भी प्रतिनिधित्व करते हैं।

यदि समुद्र का औसत स्तर 0.5 मीटर भी बढ़ जाता है, तो दुनिया भर में लगभग 5 से 200 मिलियन लोग तटीय बाढ़ से प्रभावित होंगे। 4 मिलियन से अधिक लोग स्थायी रूप से विस्थापित हो जायेंगे। अलास्का के तटीय शहर सबसे पहले प्रभावित होंगे। पुनर्वास इसलिए हो रहा है क्योंकि समुद्री बर्फ और पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से समुद्री लहरों के प्रवेश का रास्ता खुल जाएगा और कटाव को भी बढ़ावा मिलेगा।

समुद्र के स्तर में 1.0 मीटर की वृद्धि संयुक्त राज्य अमेरिका के कई तटीय क्षेत्रों में कटाव की समस्या पैदा करेगी।

पारिस्थितिकी तंत्र कैसे प्रभावित होगा?

चाहे वह स्थलीय पारिस्थितिकी तंत्र के जीव हों या जलीय पारिस्थितिकी तंत्र, सभी ने बदलते पर्यावरण के अनुरूप ढलने की कोशिश की है या फिर अपनी अनुकूलित जलवायु में स्थानांतरित होने का प्रयास किया है। लेकिन इनमें से कई वनस्पतियां और जीव-जंतु हैं जिनका स्थानांतरण नहीं किया जा सकता।

जलवायु का यह बदलता पैटर्न प्रजातियों और उपभोग अंगों और खाद्य वेब के अन्य पहलुओं के बीच परागण, प्रजनन, डिंबोत्सर्जन आदि जैसी जीवन चक्र प्रक्रियाओं के बीच बेमेल का कारण बन रहा है। मानवीय गतिविधियों के कारण ये पारिस्थितिकी तंत्र पहले से ही खतरे में थे, जलवायु परिवर्तन का इनकी स्थिति पर और भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, जिसकी भरपाई करना संभव नहीं होगा।

समुद्र में, परिसंचरण परिवर्तन पारिस्थितिकी तंत्र परिवर्तनों का एक प्रमुख चालक होगा। उपग्रह डेटा दिखा रहा है कि जलवायु परिवर्तन का समुद्री फाइटोप्लांकटन पर गहरा प्रभाव पड़ेगा, जो समुद्री खाद्य श्रृंखला का आधार है। जलवायु परिवर्तन से उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों पर इस प्लवक का प्रभाव बढ़ जाएगा। पानी के ऊर्ध्वाधर मिश्रण से समुद्र के पानी के पिघलने की दर भी बढ़ जाएगी।

इस समय गर्मी के प्रभाव के कारण ठंडे क्षेत्रों से ध्रुवों की ओर जानवरों का प्रवास गतिशील होगा। समुद्री सामंजस्य में बदलाव के कारण अन्य प्रभाव भी देखने को मिलेंगे। जैसे- तापमान बढ़ने से समुद्र तल के उप-सतही क्षेत्रों में ऑक्सीजन की मात्रा में कमी आ जायेगी, जो संभवतः ‘मृत क्षेत्र’ के रूप में विकसित हो जायेगा। महासागरों के अम्लीकरण से CO2 में वृद्धि होगी, जिससे प्रजातियों का जीवन खतरे में पड़ जाएगा।

विशेषकर ‘मोलस्का’। ‘ और प्रवाल भित्तियों के मामले में। लेकिन CO2 बढ़ने से सभी प्रजातियों को नुकसान नहीं होगा। उदाहरण के लिए, कुछ विविध प्रकार के फाइटोप्लांकटन और अन्य प्रकाश संश्लेषक जीव लाभान्वित होने की स्थिति में होंगे। भले ही महासागरों में CO2 की सांद्रता बढ़ती रहेगी, महासागरीय पारिस्थितिकी तंत्र ख़राब होता रहेगा।

कृषि एवं खाद्य उत्पादन पर क्या प्रभाव पड़ेगा?

जलवायु परिवर्तन से फसलों पर दबाव पड़ेगा, जिससे वैश्विक खाद्य सुरक्षा को खतरा पैदा हो जाएगा। हालाँकि वातावरण में CO2 पौधों की वृद्धि के लिए अनुकूल परिस्थितियाँ प्रदान करता है, लेकिन यह खाद्य उत्पादन को बढ़ाने में सक्षम नहीं होगा।

उच्च तापमान में फसलें बेहतर विकसित होती हैं, जिसका अर्थ है कि उन्हें बढ़ने में अधिक समय लगेगा, जबकि कम उत्पादन में समय लगता है। इसके अलावा, बदलती जलवायु के कारण चक्रवात, अत्यधिक तापमान, सूखा और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के कारण फसल को गंभीर नुकसान होगा।

कृषि प्रभाव विभिन्न फसलों और क्षेत्रों में अलग-अलग होंगे।

तापमान में मध्यम वृद्धि और वर्षा में वृद्धि से उच्च और मध्य अक्षांशों पर चरागाह भूमि और फसलों को लाभ होगा, लेकिन कम अक्षांश वाले क्षेत्रों में मौसमी सूखा और उत्पादन कम हो जाएगा। कैलिफोर्निया, जहां अमेरिका के 50 प्रतिशत फल और सब्जियों का उत्पादन होता है, जलवायु परिवर्तन के कारण उनके उत्पादन में भारी गिरावट आएगी, जिससे पूरे देश की सुरक्षा पर सवालिया निशान लग सकता है। वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार अमेरिका को इस संकट का सामना 2050 तक ही करना पड़ सकता है।

मॉडल और सिद्धांत डेटा के विश्लेषण से पता चला कि कुछ फसलों के लिए CO2 से जुड़े लाभ कुछ हद तक नकारात्मक कारकों के अनुरूप होंगे क्योंकि अन्य फसलों का उत्पादन पहले से कहीं अधिक होगा। अगर 20वीं सदी में तापमान 1OC बढ़ जाए तो इसका असर कम होगा.

1. 1OC तापमान बढ़ने से अमेरिका और अफ्रीका के मक्का उत्पादन और भारत के गेहूं उत्पादन में 5-15 प्रतिशत की गिरावट आएगी।

2. फसल रोगों और बीमारियों की भौगोलिक सीमा और आवृत्ति में परिवर्तन।

3. यदि तापमान 5OC तक बढ़ जाता है, तो दुनिया के लगभग सभी क्षेत्रों में फसल उत्पादन में भारी कमी आ जाएगी और वैश्विक अनाज की कीमत दोगुनी से भी अधिक हो जाएगी।

समृद्ध क्षेत्रों में उत्पादक इन जोखिमों को अनुकूलित करने में सक्षम हो सकते हैं, उदाहरण के लिए वे जो फसलें पैदा करते हैं और जिस समय वे उन्हें उगाते हैं, उसे अलग-अलग करके। अनुकूलन कम प्रभावी होगा जहां स्थानीय वार्मिंग 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक है और यह उष्णकटिबंधीय जलवायु है। क्षेत्रों तक ही सीमित रहेगा।

वर्तमान जलवायु एवं विकल्प

जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप, व्यक्तियों, व्यवसायों, सरकारों सहित सभी स्तरों पर निर्णय निर्माता जलवायु परिवर्तन के जवाब में कार्रवाई की योजना बना रहे हैं और यह भी जान रहे हैं कि क्या भविष्य में जलवायु परिवर्तन हल्के होंगे या हजारों वर्षों तक बने रह सकते हैं।

जलवायु में किस हद तक चरम सीमा आएगी, यह गैसों के उत्सर्जन पर निर्भर करेगा। देश का वैज्ञानिक प्रयास जलवायु परिवर्तन के परिणामों को सुधारकर और उपलब्ध विकल्पों का विस्तार करके जलवायु परिवर्तन की गंभीरता और इसके परिणामों को सीमित करना है। प्रभाव को अनुकूलित करने के लिए गतिविधियों में योगदान कर सकते हैं।

इस बात के पुख्ता सबूत हैं कि जलवायु परिवर्तन में मानवीय गतिविधियाँ प्रमुख योगदानकर्ता हैं। मानव और प्राकृतिक प्रणालियों की एक विस्तृत श्रृंखला के लिए महत्वपूर्ण जोखिम बने हुए हैं।

विज्ञान उत्सर्जन की सूचना या सुझाव कैसे देता है?

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भविष्यवाणी करने की क्षमता में सुधार से जलवायु परिवर्तन के जोखिमों का मूल्यांकन करना आसान हो जाता है। नीति निर्माता ने दो बुनियादी सवालों का समाधान नहीं किया.

1. किस हद तक हीटिंग स्वीकार्य है इसका मानक क्या है?

2. गैसों का उत्सर्जन उस तापमान सीमा के भीतर किस हद तक रहेगा?

विज्ञान पहले प्रश्न का उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि इसमें ऐसे मूल्य और निर्णय शामिल हैं जो इसके दायरे से परे हैं। फिर भी विज्ञान ने दूसरे प्रश्न का उत्तर देने में महत्वपूर्ण प्रगति की है।

ऊर्जा क्षेत्र में अपेक्षित सुधार के बावजूद, यदि वैश्विक व्यापार वैसे ही जारी रहा, तो वायुमंडल में CO2 उत्सर्जन जमा होता रहेगा और पृथ्वी गर्म होती रहेगी। वायुमंडल में CO2 की सांद्रता को स्थिर रखने और जलवायु परिवर्तन के प्रभाव में इसकी वृद्धि से बचने के लिए, हमें CO2 के वैश्विक उत्सर्जन को 80 प्रतिशत तक कम करना होगा।

एक अन्य उपयोगी परिकल्पना यह है कि CO2 से अपेक्षित वार्मिंग की मात्रा कार्बन उत्सर्जन की संचयी मात्रा पर निर्भर करती है। आज तक, मनुष्यों ने वायुमंडल में 500 बिलियन टन CO2 छोड़ा है। एक महत्वपूर्ण अनुमान बताता है कि यदि 1150 बिलियन टन CO2 वायुमंडल में छोड़ा जाता है, तो 2OC तापमान बढ़ जाएगा। यह मात्रा जितनी तेजी से बढ़ेगी तापमान भी उतनी ही तेजी से बढ़ेगा।

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने का विकल्प या समाधान क्या है?

जैसा कि चर्चा की गई है, दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन को सीमित करने या रोकने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका CO2 जैसी ग्रीनहाउस गैसों को नियंत्रित करना है, जो मुख्य रूप से चयनित देशों में जीवाश्म ईंधन के दहन से उत्सर्जित होती हैं।

घरेलू, औद्योगिक, आर्थिक और परिवहन प्रणालियाँ इसके प्रमुख स्रोतों में से हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इसके लिए क्या उपयोग किया जाता है, इसका मतलब सिर्फ यह है कि इसका उत्पादन कैसे होता है और किस प्रकार की ऊर्जा की खपत होती है।

वर्तमान वायुमंडलीय CO2 के 50 प्रतिशत के लिए अमेरिका जिम्मेदार है और यह देश वर्तमान वैश्विक CO2 उत्सर्जन में भी लगभग 20 प्रतिशत का योगदान देता है, जबकि वैश्विक आबादी का केवल 5 प्रतिशत अमेरिका में रहता है।

हाल के दशकों में, जैसे-जैसे विकासशील देशों ने विकास गतिविधियों में तेजी लाई है, कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैसों में संयुक्त राज्य अमेरिका की हिस्सेदारी में तेजी से गिरावट आई है। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि यह कमी अमेरिका के कुल उत्सर्जन में कमी के कारण नहीं बल्कि एशियाई, विशेषकर विकासशील देशों में वृद्धि के कारण हुई है।

विकासशील देशों में चीन और भारत से उत्सर्जन तेजी से बढ़ रहा है। इसलिए केवल अमेरिका द्वारा उत्सर्जन कम करने से जलवायु परिवर्तन की प्रवृत्ति नहीं बदलेगी।

हालाँकि, अमेरिका की कड़ी प्रशासनिक कार्रवाई अपने देश में उत्सर्जन कम करके अन्य देशों को भी इस रास्ते पर चलने के लिए मजबूर कर सकती है। दूसरे शब्दों में, वातावरण में CO2 को कम करने का अवसर उपलब्ध है। जो निम्नलिखित हैं-

1. वस्तुओं और सेवाओं की अंतर्निहित मांग में कमी: उदाहरण के लिए, उपभोक्ता व्यवहार और प्राथमिकताओं को प्रभावित करने के लिए शिक्षा और प्रचार कार्यक्रमों का विस्तार करके और पेट्रोलियम आदि पर विकासात्मक निर्भरता के पैटर्न को कम करके।

2. उपयोग की जा रही ऊर्जा की दक्षता में सुधार करके: उदाहरण के लिए, औद्योगिक उपकरणों आदि को इन्सुलेशन, हीटिंग, कूलिंग और प्रकाश व्यवस्था के लिए अधिक कुशल तरीकों का उपयोग करके और अधिक कुशल घरेलू उपकरणों और वाहनों का उपयोग करके। कम ऊर्जा खपत करने वाले उत्पादों की खरीद को प्रोत्साहित करके।

3. कम और शून्य कार्बन ऊर्जा स्रोतों के उपयोग का विस्तार करके, उदाहरण के लिए – कोयले और तेल से दूर प्राकृतिक गैस का उपयोग, परमाणु ऊर्जा का उपयोग, नवीकरणीय ऊर्जा का विकास और उपयोग जैसे – सौर, पवन, भूतापीय, जलविद्युत, बायोमास। स्थापना एवं विस्तार ताकि CO2 को सीमित एवं प्रतिबंधित किया जा सके।

4. वायुमंडल में CO2 का प्रत्यक्ष संग्रहण और पृथक्करण: उदाहरण के लिए – वनों और वनों को उगाकर, जो कार्बन के प्राकृतिक अवशोषक हैं, और मिट्टी का प्रबंधन करके। यांत्रिक तरीकों को विकसित करके जो आसपास की हवा से CO2 को साफ कर सकते हैं। कर सकता है।

उपर्युक्त अवसरों को विकसित करना होगा, इसके माध्यम से उत्सर्जन को कम करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की अधिक भागीदारी की आवश्यकता होगी जैसे निजी क्षेत्र के निवेशकों के साथ-साथ उपभोक्ताओं के त्योहार और उनके विकल्प और व्यक्तिगत रूप आदि।

साथ ही भूमि नीतियों का निर्माण केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के साथ स्थानीय स्तर पर ये सभी कारक सफलता में महत्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं। 4 प्रमुख उपकरण हैं जो उत्सर्जन में कमी के लिए नीतियां बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं-

1. उत्सर्जन पर एक मूल्य निर्धारित करके जैसे कार्बन टैक्स लगाना या एक सीमा और व्यापार प्रणाली बनाना।

2. उत्सर्जन को सीधे नियंत्रित करने या ऐसे ऑटोमोबाइल ईंधन अर्थव्यवस्था मानकों, उपकरण दक्षता मानकों, लेबलिंग मानकों को अनिवार्य करने के लिए कानूनी समर्थन का एक नियामक निकाय। नवीकरणीय या कम कार्बन सामग्री का उपयोग करके बिल्डिंग कोड और ऊर्जा उत्पादन।

3. उत्सर्जन को कम करने के लिए सार्वजनिक सब्सिडी या ऋण प्रदान करने के विकल्प की गारंटी देना।

4. उत्सर्जन को कम करने के लिए शिक्षा और जानकारी प्रदान करना और स्वैच्छिक उपायों को बढ़ावा देना।

केवल व्यापक राष्ट्रीय कार्यक्रमों के माध्यम से ही उपर्युक्त उपकरणों को लागू किया जा सकता है और सफलता प्राप्त की जा सकती है।

हालाँकि, अधिकांश अर्थशास्त्री और नीति विश्लेषक यह निष्कर्ष निकालते हैं कि CO2 उत्सर्जन पर कीमत लगाना, जो कि उच्च है और समय के साथ बढ़ने की संभावना है, उत्सर्जन को कम करने का एक बहुत महंगा रास्ता है। यह विचार दीर्घकालिक निवेश के लिए सबसे प्रभावी कारक है। हालाँकि, प्रमुख क्षेत्रों में तीव्र प्रगति सुनिश्चित करने के लिए पूरक नीतियों की भी आवश्यकता है।

अन्य उत्सर्जित मानव वार्मिंग पदार्थों या गैसों में CO2 के अलावा अन्य गैसें शामिल हैं जो मिलकर ग्लोबल वार्मिंग में उतना ही योगदान करती हैं जितना कि मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और कुछ औद्योगिक गैसें जैसे क्लोरोफ्लोरोकार्बन, जो अमेरिका की कुल ग्रीनहाउस गैसों का 15 प्रतिशत हिस्सा हैं। है। यह गैस CO2 की तुलना में अधिक तीव्रता से गर्म करने में योगदान करती है।

CO2 के बिना ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी बहुत कम लागत पर की जा सकती है। उदाहरण के लिए, कोयला खनन और तेल निष्कर्षण के बाद भूमि को मिट्टी से भरना गैस निष्कर्षण की तुलना में महंगा काम है। मीथेन में कमी से हवा की शुद्धता भी बढ़ती है।

CO2 के अलावा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन, मुख्य रूप से कृषि के लिए जिम्मेदार है, विशेष रूप से जिस तरह से मवेशी अपने भोजन को चिंतन के माध्यम से पचाते हैं और उत्पादन में नाइट्रोजन उर्वरकों का उपयोग करते हैं। ये ग्रीनहाउस गैस कटौती विभिन्न तरीकों से की जा सकती है। ‘प्रिवेंटिव एग्रीकल्चर’ से उर्वरकों का कुल उपयोग कम हो जाएगा और हम पशुधन अपशिष्ट प्रबंधन प्रणाली में सुधार करके भी इसे कम कर सकते हैं।

कुछ अल्पकालिक प्रदूषण जो ग्रीनहाउस गैसों में योगदान नहीं करते बल्कि वार्मिंग में योगदान करते हैं। जिसका एक उदाहरण ब्लैक कार्बन या कालिख है जो जीवाश्म ईंधन और जैव ईंधन और बायोमास के जलने से उत्सर्जित होता है (उदाहरण के लिए, विकासशील देशों में खाना पकाने में गाय के गोबर के उपले और लकड़ी आदि का उपयोग) ब्लैक कार्बन स्थायी वार्मिंग में विशेष योगदान देता है। इन अल्पकालिक प्रदूषण स्रोतों के उत्सर्जन को कम करने से निकट भविष्य में जलवायु परिवर्तन को कम करने में मदद मिल सकती है।

ग्लोबल डिमिंग

जलवायु परिवर्तन का तात्पर्य औसत मौसम स्थितियों के पैटर्न में ऐतिहासिक परिवर्तन से है। सामान्यतः इन परिवर्तनों का अध्ययन पृथ्वी के इतिहास को लम्बी अवधियों में बाँटकर किया जाता है। ऊर्जा घटक का कार्य पृथ्वी की सतह और निचले वायुमंडल के बीच ताप संतुलन बनाए रखना है।

पृथ्वी अपनी अधिकांश ऊर्जा सूर्य से लघु तरंगों के माध्यम से प्राप्त करती है। यदि यह सौर ऊर्जा पृथ्वी के वायुमंडल में एकत्रित हो जाये तो ग्लोबल वार्मिंग जैसी स्थिति उत्पन्न हो जायेगी। यदि फिर भी सौर ऊर्जा पूरी तरह से पृथ्वी से वापस चली जाए तो ग्लोबल डिमिंग या यूनिवर्सल ब्राइटनेस की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

ग्लोबल डिमिंग क्या है?

ग्लोबल डिमिंग, जिसे ग्लोबल डिमिंग या यूनिवर्सल ल्यूमिनेंस के रूप में भी जाना जाता है, पृथ्वी की सतह पर वैश्विक प्रत्यक्ष ऊर्जा मूल्य की मात्रा में क्रमिक कमी को संदर्भित करता है। यह पृथ्वी की सतह तक पहुँचने वाले सूर्य के प्रकाश की मात्रा में गिरावट को संदर्भित करता है।

इसका मुख्य कारण मानवीय गतिविधियों के कारण वातावरण में सल्फर कण जैसे कणों की उपस्थिति को माना जाता है। चूँकि वैश्विक धुंध के परिणामस्वरूप शीतलन की स्थिति भी देखी गई है, इसलिए ऐसा माना जाता है कि यह ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव को आंशिक रूप से कम कर सकता है।

ग्लोबल डिमिंग या यूनिवर्सल ब्राइटनेस के क्या कारण हैं?

1. एरोसोल: जैसे ठोस कण या तरल बूंदें, कोलाइड या वायु या अन्य गैसों के बलगम फिलामेंट वैश्विक डिमिंग के प्रमुख कारक हैं। वायुमंडल में अधिकांश एरोसोल केवल सूर्य से प्रकाश बिखेरते हैं, सूर्य की कुछ उज्ज्वल ऊर्जा को वापस अंतरिक्ष में भेजते हैं, जिससे पृथ्वी की जलवायु पर शीतलन प्रभाव पड़ता है।

2. सल्फर डाइऑक्साइड या उद्योग और आंतरिक दहन इंजनों द्वारा जलाए जाने वाले जीवाश्म ईंधन के उप-उत्पाद जैसे कण वायुमंडल में प्रवेश करते हैं और सीधे सौर ऊर्जा को अवशोषित करते हैं और पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से पहले इसे अंतरिक्ष में विकीर्ण कर देते हैं।

3. जब उद्योगों और आंतरिक दहन इंजनों द्वारा जलने वाले जीवाश्म ईंधन के सह-उत्पादों और सल्फर डाइऑक्साइड युक्त प्रदूषित पानी वाष्पित हो जाता है और बादलों का रूप ले लेता है (ऐसे बादलों को ‘भूरे बादल’ भी कहा जाता है), तब परिवर्तन में मौजूद कण सूर्य की रोशनी उत्सर्जित करते हैं ऊर्जा संग्रहीत एवं विकिरित होती है। जिसके फलस्वरूप पृथ्वी पर शीतलता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. हवा में उड़ने वाले विमानों से निकलने वाली वाष्प विकिरण उत्सर्जित करती है, जो वैश्विक डिमिंग के कारकों में से एक है।

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए क्या विकल्प या उपाय मौजूद हैं?

यद्यपि जलवायु अस्थिरता के ऐतिहासिक रिकॉर्ड के आधार पर अपने निवासियों, संसाधनों और बुनियादी ढांचे की रक्षा के लिए विभिन्न राज्यों, जिलों और समुदायों और देश के अधिकांश हिस्सों द्वारा कई प्रतिक्रियाएं और प्रयास किए गए हैं, लेकिन अपेक्षाकृत स्थिर को अनुकूलित करने के लिए योजनाएं बनाई गईं जलवायु।

जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन विभिन्न मॉडलों में अलग-अलग होगा, यानी दशकों या उससे अधिक समय के पैमाने पर, क्योंकि भविष्य की जलवायु संभावनाओं और उनके संबंधित प्रभावों की एक श्रृंखला पर विचार किया जाता है, और कुछ क्षेत्र पिछले अनुभव से बाहर होंगे। इसका परिणाम यह होगा कि प्रभाव की सीमा भी भिन्न-भिन्न होगी।

लाभ, ठोस जानकारी और विभिन्न प्रतिक्रियाओं की क्षमता और सीमा की कमी के कारण अनुकूलन प्रयास बाधित होते हैं। यह प्रभाव किसी भी देश की विविधता और असुरक्षा के कारण हो रहा है और अनुसंधान के लिए एक ही संस्थान या संरचना है जो केवल जलवायु परिवर्तन अनुकूलन कार्य पर ध्यान केंद्रित करती है। जबकि इसका उपयोग अल्पकालिक तरीके से किया जाता है जो कि एक अस्थायी रणनीतिक कार्य योजना है। और लंबी अवधि में, अधिक नाटकीय और उच्च लागत की आवश्यकता होती है।

निम्नलिखित चित्र में कुछ उदाहरण दिये गये हैं जिनमें अल्पकालीन कार्ययोजना के प्रभाव से समुद्र स्तर में वृद्धि को कुछ अपेक्षाओं के अनुरूप माना जा सकता है।

भारत और जलवायु परिवर्तन

हालाँकि जी.एच.जी. उत्सर्जन के मामले में भारत पहले पांच स्थान पर है, लेकिन अगर पहले के उत्सर्जन को हटा भी दिया जाए तो भी विकसित देशों की तुलना में भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन बहुत कम है। उत्सर्जन का उच्च स्तर इसकी बड़ी आबादी, भौगोलिक आकार और बड़ी अर्थव्यवस्था के कारण है।

जलवायु परिवर्तन के खतरे और कमजोरियाँ

जलवायु परिवर्तन का प्राकृतिक संसाधनों और लोगों की आजीविका पर भारी प्रभाव पड़ता है। इसका पर्यावरण और सामाजिक-आर्थिक क्षेत्रों पर व्यापक प्रभाव पड़ेगा; विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि भारत में कृषि, जल, प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति संवेदनशील हैं, यह उसी समय हो रहा है जब यह भारी विकास आवश्यकताओं से जूझ रहा है।

आईएनसीसीए रिपोर्ट में समुद्र के बढ़ते स्तर, चक्रवात की तीव्रता में वृद्धि, वर्षा जल आधारित फसलों की पैदावार में कमी, पशुधन दबाव, दूध उत्पादन में कमी, बाढ़ में वृद्धि और मलेरिया के प्रसार के प्रभावों की चेतावनी दी गई है।

कृषि जलवायु परिवर्तन में कोई भी अनिश्चितता खाद्य प्रणालियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकती है और इस प्रकार संसाधन की कमी से पीड़ित गरीब आबादी के बड़े हिस्से की असुरक्षा बढ़ सकती है। यही कारण है कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों के प्रति क्षेत्र की संवेदनशीलता को कम करने की आवश्यकता है और विशेष उपायों और प्रयासों के माध्यम से अनुकूली क्षमता को बढ़ाने के लिए तत्काल कार्रवाई करना आवश्यक है।

सैमिलेशन मॉडल सुझाव देते हैं कि अनुकूलन और उर्वरकों के अभाव में, अकेले तापमान में 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से गेहूं का उत्पादन 6 मिलियन टन तक कम हो सकता है। दूध उत्पादन हमारी खाद्य सूची में एक अत्यंत महत्वपूर्ण उत्पाद बनता जा रहा है। वैश्विक जलवायु परिवर्तन से जुड़े बढ़ते ताप तनाव से डेयरी पशुओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन की तीव्रता और विविधता और इस प्रकार जिन वन उत्पादों पर वे भरोसा करते हैं, उनके कारण भारत के जंगलों की संरचना में भी बदलाव आएगा। आजीविका भी प्रभावित होगी. गर्मी की लहरें, साधारण बीमारियाँ, जल प्रदूषण प्रमुख प्रभाव हैं जो जलवायु परिवर्तन के कारण हो सकते हैं,

उदाहरण के लिए, उष्णकटिबंधीय देशों की तरह भारत में भी मलेरिया जैसी सीधी बीमारियाँ होने का खतरा है। इसके बहुत व्यापक और तेजी से फैलने की आशंका है.

भारत द्वारा उठाए गए महत्वपूर्ण कदम

भारत ने 2008 में जलवायु परिवर्तन पर एक राष्ट्रीय कार्य योजना अपनाई जिसमें शमन और अनुकूलन दोनों उपाय शामिल हैं। आठ राष्ट्रीय मिशन, जो एनएपीसीसी का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में प्रमुख उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए बहुआयामी, दीर्घकालिक और समन्वित रणनीतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। सौर ऊर्जा और ऊर्जा दक्षता शमन को संबोधित करने के लिए डिज़ाइन किए गए दो मिशनों के साथ, अनुकूलन एनएपीसीसी का फोकस है।

भारत ने 2020 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता को 2005 के स्तर के 20-25 प्रतिशत तक कम करने के घरेलू लक्ष्य की घोषणा की है। इसे बहु-क्षेत्र कम कार्बन विकास कार्य योजना के माध्यम से हासिल किया जाएगा। इसका मतलब है कि कम कार्बन सतत विकास 12वीं पंचवर्षीय योजना का फोकस होगा।

 एनएपीसीसी के अलावा सभी राज्यों को भी राज्य स्तरीय कार्ययोजना तैयार करने को कहा गया है। इन योजनाओं को स्वशासन के विभिन्न स्तरों पर एनएपीसीसी के विस्तार के रूप में चिह्नित किया गया है जो आठ राष्ट्रीय मिशनों से जुड़े हुए हैं।

दिल्ली और गुजरात जैसे कुछ राज्य और हिमालयी राज्य पहले ही इस दिशा में आगे बढ़ चुके हैं और जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्रिय हो रहे हैं। दिल्ली ने एनएपीसीसी की तर्ज पर 2009-2012 के लिए एक जलवायु कार्य योजना तैयार की है।

जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण

वित्तपोषण के संदर्भ में, जलवायु परिवर्तन प्रमुख निहितार्थों वाला एक जटिल नीतिगत मुद्दा है। अंततः, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए सभी कार्यों में लागत शामिल होती है। अनुकूलन और शमन योजनाओं और परियोजनाओं को डिजाइन और कार्यान्वित करने के लिए भारत सहित देशों के लिए वित्त पोषण महत्वपूर्ण है।

समस्या भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अधिक गंभीर है, जो अनुकूलन की कम क्षमता के साथ, जलवायु परिवर्तन से सबसे अधिक प्रभावित होंगे और इसलिए उन्हें अधिक वित्तपोषण की आवश्यकता होगी। निःसंदेह, अधिकांश देश जलवायु परिवर्तन को एक वास्तविक खतरे के रूप में देखते हैं और अपने सीमित संसाधनों के साथ इसे अधिक व्यापक और एकीकृत तरीके से संबोधित करने का प्रयास कर रहे हैं।

डरबन में, एक दीर्घकालिक वित्तपोषण कार्य योजना शुरू की गई है। इसका उद्देश्य 2012 के बाद जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण को बढ़ाने के लिए चल रहे प्रयासों में योगदान देना और वैकल्पिक उपकरणों सहित सार्वजनिक और निजी, द्विपक्षीय और बहुपक्षीय उपकरणों की एक श्रृंखला में संसाधन जुटाने के विकल्पों का विश्लेषण करना है।

2. राष्ट्रीय नवीकरणीय ऊर्जा दक्षता मिशन

इसके तहत नई संस्थागत प्रणालियाँ बनाने का लक्ष्य है ताकि ऊर्जा कुशल बाज़ारों को विकसित और मजबूत किया जा सके। इसके लिए कई कार्यक्रम शुरू किये गये जिनमें निम्नलिखित शामिल हैं-

(i) बड़े उद्योगों की दक्षता बढ़ाने के लिए PAT प्रणाली

(iii) अति-कुशल उपकरणों की स्थापना में तेजी लाने के लिए अति-कुशल उपकरण कार्यक्रम।

इसका उद्देश्य ऊर्जा कुशल बाजार में निजी क्षेत्र के निवेश को आकर्षित करना है।

3. राष्ट्रीय किफायती आवास मिशन

इसका उद्देश्य शहरों में किफायती परिवहन, ऊर्जा कुशल इमारतों और टिकाऊ अपशिष्ट प्रबंधन को बढ़ावा देना है। इस मिशन दस्तावेज़ की अनुमानित कुल लागत 1000 करोड़ रुपये दर्शायी गयी है।

दरअसल, यह मिशन शहरों में अपशिष्ट प्रबंधन और ऊर्जा दक्षता बढ़ाने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। साथ ही, इससे होने वाली ऊर्जा बचत से शहरों की ऊर्जा मांग को पूरा करने में मदद मिलेगी।

4. राष्ट्रीय जल मिशन

इसके तहत एक नियामक तंत्र स्थापित कर पानी के अधिकतम उपयोग के लिए एक रूपरेखा विकसित करने का लक्ष्य है। जिसमें जल उपयोग में 20 प्रतिशत तक किफायत को बढ़ावा देने का लक्ष्य है। 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना अवधि में इस मिशन को लागू करने के लिए 89,101 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि का प्रावधान किया गया था। इसमें राज्य योजना और केंद्रीय योजना के माध्यम से क्रियान्वित की जाने वाली योजनाओं पर होने वाला व्यय भी शामिल है।

5. राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्रवाई नीति इसका उद्देश्य जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न चुनौतियों की पहचान करना और तटीय क्षेत्रों में रहने वाले समुदायों के स्वास्थ्य, जनसांख्यिकी, प्रवासन और आजीविका के क्षेत्रों में चुनौतियों का जवाब देने पर ज्ञान का प्रसार करना है।

इन रिपोर्टों में जलवायु वित्त जुटाने और मूल्यांकन मानदंड पर रिपोर्ट शामिल हैं।

विकासशील देशों की अनुकूलन और शमन आवश्यकताओं का एक बड़ा हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय वित्तपोषण निर्धारित करके पूरा किया जा सकता है। आने वाले समय में विकासशील देशों के लिए जलवायु परिवर्तन वित्तपोषण की आवश्यक राशि जुटाना एक बड़ी चुनौती होगी।

यद्यपि जलवायु वित्त की मांग और आपूर्ति के बीच अंतर को पाटने के लिए निजी क्षेत्र सहित वैकल्पिक साधनों का पता लगाया जा सकता है, विकासशील देशों के लिए वित्त पोषण की भविष्यवाणी और विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए सार्वजनिक वित्तपोषण एक मुख्य विषय बना रहना चाहिए।

जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्य योजना के तहत मिशन

1. राष्ट्रीय सौर मिशन

इसके तहत कुल ऊर्जा उपयोग में सौर ऊर्जा की भागीदारी बढ़ाना और परमाणु ऊर्जा, पवन ऊर्जा और बायोमास ऊर्जा जैसे नवीकरणीय और गैर-जीवाश्म ऊर्जा स्रोतों की आवश्यकता को महत्व देना है। इसके तहत वर्ष 2020 तक देश में 20,000 मेगावाट सौर ऊर्जा क्षमता स्थापित करने का लक्ष्य है। इसका पहला चरण जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय सौर मिशन के नाम से चल रहा है।

इसमें 1000 मेगावाट की क्षमता स्थापित करने की योजना है. फेज 2 में अनुमानित खर्च 4337 करोड़ रुपये है. चरण 2 के कार्यान्वयन की समीक्षा के बाद चरण 3 की आवश्यकता का आकलन किया जाएगा। देखा जाए तो सौर मिशन एक बहुत ही महत्वाकांक्षी और दूरदर्शी योजना है।

उल्लेखनीय है कि भारत में वर्ष के कुछ महीनों को छोड़कर लगभग पूरे वर्ष सौर ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। अतः यदि मिशन के लक्ष्यों के अनुरूप कार्य किया जा सके तो न केवल सौर ऊर्जा के रूप में प्राप्त ऊर्जा हमारी ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने में सहायक होगी। साथ ही सौर ऊर्जा से प्राप्त ऊर्जा पर्यावरण के अनुकूल भी होगी।

जलवायु परिवर्तन और उससे उत्पन्न चुनौतियों तथा पारिस्थितिकी पर उसके प्रभाव को देखते हुए जलवायु परिवर्तन पर कार्रवाई नीति एक अत्यंत महत्वपूर्ण मिशन है।

2. राष्ट्रीय हरित भारत मिशन

इसके तहत वन भूमि और सामुदायिक भूमि के अलावा 10 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में वन लगाने का लक्ष्य है। अगले 10 साल. इस मिशन के तहत 10 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में वन रोपण के लिए 46,000 करोड़ रुपये के खर्च का अनुमान है।

निश्चित रूप से राष्ट्रीय हरित भारत मिशन भारत में वनों का क्षेत्रफल बढ़ाने के साथ-साथ पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने और जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न होने वाली विकृतियों पर अंकुश लगाने में भी मदद करेगा।

3. राष्ट्रीय हिमालयी पारिस्थितिकी संवर्धन मिशन:

इसके तहत हिमालयी पर्यावरण के लिए एक निगरानी प्रणाली स्थापित की जा सकती है ताकि हिमालय के ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव का अनुमान लगाया जा सके और पर्वतीय पारिस्थितिकी को संतुलित करने के लिए सुरक्षा उपाय विकसित किए जा सकें। .

हिमालय के ग्लेशियरों के लगातार सिकुड़ने और उसके परिणामस्वरूप हिमालय की नदियों और उन पर निर्भर पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरे को देखते हुए यह मिशन बहुत महत्वपूर्ण है।

4. सतत कृषि विकास के लिए राष्ट्रीय मिशन

इस मिशन का उद्देश्य फसलों की नई किस्में विकसित करना है जो गर्मी और खराब मौसम के दुष्प्रभावों से खुद को बचा सकें और जलवायु परिवर्तन का अधिक कुशलता से सामना कर सकें।देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन ने कृषि के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी है।

ऐसे में राष्ट्रीय सतत कृषि विकास मिशन का उद्देश्य जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बीज विकसित करना है, जो न केवल कृषि उत्पादन को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से बचाएगा बल्कि खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने में भी मदद करेगा।

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FAQ

जलवायु परिवर्तन क्या होता है?

जलवायु परिवर्तन का आशय दशकों, सदियों या उससे अधिक समय में होने वाली जलवायु में दीर्घकालिक परिवर्तनों से है।

जलवायु परिवर्तन क्या है दो उदाहरण दीजिए?

सामान्य शब्दों में दशकों, सदियों या उससे अधिक समय में किसी स्थान विशेष और या पूरी धरती की जलवायु में आने वाला दीर्घकालिक बदलाव ही जलवायु परिवर्तन है। उदाहरण के लिए जहां बाढ़ आती थी वहां सूखा पड़ रहा है। जब सर्दी पड़नी चाहिए थी तब गर्मी हो रही है। तापमान में बदलाव आ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के क्या प्रभाव?

जलवायु परिवर्तन के फलस्वरूप बाढ़, सूखा तथा आँधी-तूफान जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बारम्बारता में वृद्धि के कारण अनाज उत्पादन में गिरावट दर्ज होगी। जोकि कुपोषण का कारण बनेगी।

जलवायु परिवर्तन के 5 कारण क्या हैं?

लजवायु परिवर्तन के 5 प्रमुख कारण भूस्खलन, ज्वालामुखी विस्फोट, पृथ्वी का झुकाव, समुद्री तूफान, बाढ़, सूखा आदि।

जलवायु परिवर्तन का सबसे मुख्य कारण क्या है?

जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण मनुष्य ही है। सामान्यतः जलवायु में परिवर्तन कई वर्षों में धीरे धीरे होता है। लेकिन मनुष्य के द्वारा पेड़ पौधों की लगातार कटाई और जंगल को खेती या मकान बनाने के लिए उपयोग करने के कारण इसका प्रभाव जलवायु में भी पड़ने लगा है।

जलवायु परिवर्तन की खोज कब हुई थी?

1896 में, स्वीडिश वैज्ञानिक स्वेन्ते अरहेनियस के एक मौलिक पेपर ने पहली बार भविष्यवाणी की थी कि वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड के स्तर में परिवर्तन से ग्रीनहाउस प्रभाव के माध्यम से सतह के तापमान में काफी बदलाव आ सकता है। 1938 में, गाइ कॉलेंडर ने पृथ्वी के वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड की वृद्धि को ग्लोबल वार्मिंग से जोड़ा।

जलवायु परिवर्तन की प्रमुख समस्या क्या है?

जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप बाढ़, भूस्खलन तथा भूमि अपरदन जैसी समस्याएँ पैदा होंगी। जल की गुणवत्ता में गिरावट आएगी तथा पीने योग्य जल की आपूर्ति पर गंभीर प्रभाव पड़ेंगे।

जलवायु परिवर्तन में 4 प्रमुख योगदानकर्ता कौन से हैं?

ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के प्राथमिक स्रोत बिजली और गर्मी (31%), कृषि (11%), परिवहन (15%), वानिकी (6%) और विनिर्माण (12%) हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिए कौन जिम्मेदार होता है?

जलवायु परिवर्तन का मुख्य जिम्मेदार कारण तेल, गैस, और कोयला जैसे जीवाश्म ईंधन का जलना है।

जलवायु परिवर्तन के 3 मुख्य प्राकृतिक कारण क्या हैं?

जलवायु पर प्राकृतिक कारणों में ज्वालामुखी विस्फोट, पृथ्वी की कक्षा में परिवर्तन और पृथ्वी की पपड़ी में बदलाव शामिल हैं।

जलवायु परिवर्तन से मनुष्य कैसे प्रभावित होते हैं?

जलवायु परिवर्तन के प्रभावों में प्रमुख रूप से तापमान में वृद्धि, वर्षा में परिवर्तन, कुछ चरम मौसम की घटनाओं की आवृत्ति या तीव्रता में वृद्धि और समुद्र के स्तर में वृद्धि शामिल है। ये प्रभाव हमारे द्वारा खाए जाने वाले भोजन, हमारे द्वारा पीने वाले पानी, जिस हवा में हम सांस लेते हैं और जिस मौसम का हम अनुभव करते हैं, उसे प्रभावित करके हमारे स्वास्थ्य को खतरे में डालते हैं।

जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका तो क्या होगा?

जलवायु परिवर्तन के करण ग्लोबल वार्मिंग की घटना बढ़ जाएगी जिससे अगली एक सदी में एक अरब लोग इसके कारण समय से पहले मर जाएंगे और इसमें गरीब तबके के लोग ज्यादा होंगे

जलवायु के जनक कौन है?

हंबोल्ट को जलवायु विज्ञान का जनक कहा जाता है।

जलवायु परिवर्तन में भारत का कौन सा स्थान है?

भारत आठवें स्थान पर है।

जलवायु परिवर्तन आंदोलन किसने शुरू किया था?

राचेल कार्सन ने 1962 में पर्यावरण आंदोलन की शुरुआत की थी।

जलवायु परिवर्तन कानून सबसे पहले किस देश में लागू हुआ?

न्यूजीलैंड (New Zealand) पहला ऐसा देश है जो जलवायु परिवर्तन (Climate Change) संबंधी कानून बना रहा है.

जलवायु परिवर्तन की खोज किस महिला ने की थी?

जलवायु परिवर्तन पर वर्तमान चिंताओं से बहुत पहले, 1856 में, यूनिस न्यूटन फूटे नाम की एक अमेरिकी महिला यह सिद्धांत देने वाली पहली व्यक्ति थी कि उच्च कार्बन डाइऑक्साइड स्तर के कारण ग्रह गर्म हो जाएगा।

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