भूमि सुधार क्या है | भारत में भूमि सुधार | Bhumi Sudhar Kya Hai

भूमि सुधार क्या है, भारत में भूमि सुधार (Bhumi Sudhar Kya Hai) भूमि सुधारों के उद्देश्य, काश्तकारी सुधार, जमींदारी-प्रथा, महालवाड़ी व्यवस्था, भूमि सुधारों का प्रभाव, भूमि सुधारों का मूल्यांकन, भूमि सुधार का क्या अर्थ है?, भूमि सुधार का मुख्य उद्देश्य क्या है?

Table of Contents

भूमि सुधार (Bhumi Sudhar Kya Hai)

कृषि संरचना में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप से होने वाले परिवर्तन भूमि सुधार कहलाते हैं। कृषि संरचना में परिवर्तन दो तरीकों से हो सकते हैं

1. सामाजिक-आर्थिक प्रक्रियाओं के चलन से स्वतः समय के साथ तथा

2. कृषि संरचना में ‘प्रत्यक्ष हस्तक्षेप’ के माध्यम से।

भारत मे भूमि सुधारों के माध्यम से प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की आवश्यकता इसलिए महसूस की गई क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व की अवधि से देश में पाई जाने वाली भू-धरण प्रणालियां शोषणकारी थीं।

इस अध्याय में हम निम्नलिखित मुद्दों पर विचार करेंगेः

1. स्वतंत्रता से पूर्व भारत में पाई जाने वाली भू-धरण प्रणालियां और उनका शोषणकारी चरित्र।

2. स्वतंत्रता के बाद सरकार द्वारा आरम्भ किए गए भूमि सुधारों के उद्देश्य।

3. मध्यस्थों के उन्मूलन, काश्तकारी सुधार तथा जोतो की सीमाबंदी के लिए अपनाई गई नीतियाँ।

4. भूमि के उप-विभाजन व विखंडन की समस्या और इस समस्या के निदान के लिए अपनाई गई नीतियां।

5. भारत मे भूमि सुधारों का आलोचनात्मक मूल्यांकन।

भूमि सुधारों के उद्देश्य

जैसा कि ऊपर कहा गया है, जमींदारी व्यवस्था शोषण पर आधारित व्यवस्था थी। इस व्यवस्था ने एक ‘परजीवी वर्ग’ पैदा कर दिया जो दूसरों की मेहनत पर पलता था।

इतना ही नहीं, अपने आर्थिक व सामाजिक प्रभुत्व के कारण यह परजीवी वर्ग वास्तविक काश्तकारों से उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा छीन लेता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था में भी इसी प्रकार के दोष उत्पन्न हो गए थे इसलिए स्वतन्त्रता के बाद भूमि सुधारों को लागू करते समय निम्न उद्देश्य सामने रखे गए-

1. पुराने भूमि सम्बन्धो को समाप्त करना तथा एक ऐसी नई व्यवस्था को जन्म देना जिसमें भूमि पर खेती करने वाले ही उसके वास्तविक स्वामी हों i

2. भूमि व्यवस्था के अन्तर्गत होने वाले सभी प्रकार के शोषण व सामाजिक अन्याय को समाप्त करना, काश्तकारों की स्थिति मजबूत बनाना तथा ग्रामीण जनसंख्या के सभी वर्गों को समान अधिकार व समान अवसर प्रदान करना।

इन उद्देश्यों को पूरा करने के लिए निम्नलिखित कदम उठाए गए-

1. मध्यस्थों का उन्मूलन

जमींदारी उन्मूलन या मध्यस्थों के उन्मूलन को स्वतंत्रता के तुरन्त बाद भूमि सूधार नीति का मुख्य आधर बनाया गया। स्वतंत्रता के समय देश का 57 प्रतिशत क्षेत्र जमींदारी व्यवस्था के अधीन था।

कुछ राज्यों में जमींदारी व्यवस्था के उन्मूलन के लिए कानून 1951 से पहले ही बना दिए गए परन्तु उन पर पालन व उनसे सम्बंधित कार्य पहली पंचवर्षीय योजना में ही किया गया।

उत्तर प्रदेश व मध्य प्रदेश जैसे अस्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में काम ज्यादा मुश्किल नहीं था क्योंकि भूमि रिकॉर्ड तथा प्रशासनिक मशीनरी पहले से ही मौजूद थी।

परन्तु बिहार, उड़ीसा व पश्चिम बंगाल जैसे स्थायी बन्दोबस्त वाले क्षेत्रों में तथा राजस्थान व सौराष्ट्र जैसे जागीरदारी वाले क्षेत्रों में भूमि रिकार्ड नहीं थे और न ही प्रशासनिक मशीनरी थी।

सरकारी दस्तावेजों में यह दावा किया गया कि पहली योजना के अन्त तक, कुछेक छोटे-छोटे क्षेत्रों को छोड़कर, मध्यस्थों का पूरी तरह उन्मूलन किया जा चुका था।

ऐसा अनुमान लगाया गया है कि मध्यस्थों से 17.30 करोड़ एकड़ जमीन ली गई और इसके परिणामस्वरूप 2 करोड़ काश्तकारों को लाभ हुआ।

2. काश्तकारी सुधार

काश्तकारी सुधारों के अन्तर्गत निम्नलिखित कदम उठाए गएः

i. लगान का नियमन

ii. काश्त अधिकार की सुरक्षा

iii. काश्तकारों को भूमि पर मालिकाना अधिकार।

3. कृषि का पुनर्गठन

कृषि के पुनर्गठन के अधीन निम्न नीतियां अपनाई गईः

i. भूमि का पुनर्वितरण

ii. जोतों की चकबन्दी

iii. सहकारी खेती।

भारत में भू-धारण प्रणालियां

भारत में भूमि सुधर कार्यक्रमो को लागू करने की दिशा मे कार्य प्रारम्भ होने से पहले भू-धारण की तीन प्रणालियां-जमींदारी, महालवाड़ी और रैयतवाड़ी प्रचलित थीं।

जमींदारी-प्रथा

इस देश में जमींदारी प्रथा का प्रारम्भ ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन काल में हुआ था। इससे पहले भूमि पर किसानो का स्वामित्व था।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर-जनरल कार्नवालिस ने आय बढ़ाने के उद्देश्य से इस देश में स्थायी बन्दोबस्त किया जिसके आधार पर जमींदारों को जहां एक ओर लगान एकत्रित करने का उत्तरदायित्व सौंपा गया वहां उन्हें अपने-अपने क्षेत्राे का मालिक भी बना दिया गया।

प्रारम्भ में जमींदारों को किसानों से एकत्रित लगान का 10/11 भाग राज्य को देना होता था और शेष 1/11 भाग वे अपने पास रखते थे।

महालवाड़ी व्यवस्था

महालवाड़ी व्यवस्था बैंटिक द्वारा आगरा व अवध में लागू की गई। बाद में इसे मध्य प्रदेश और पंजाब में भी लागू किया गया। महालवाड़ी व्यवस्था में मालगुजारी की दृष्टि से सम्पूर्ण गांव इकाई होता था।

बन्दोबस्त द्वारा गांव के लिए निर्धारित मालगुजारी को राजकोष में जमा करने का दायित्व गांव के मुखिया का होता था। मुखिया गांव के सभी भूमिधरियो से लगान वसूल करता था।

कांग्रेस भूमि सुधार समिति के अनुसार इस व्यवस्था में भू-सम्पत्ति का स्वामित्व सामूहिक अथवा सामाजिक था। महालवाड़ी प्रथा में बन्दोबस्त की अवधि, मालगुजारी का निर्धारण इत्यादि भिन्न-भिन्न स्थानों पर अलग-अलग था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था

रैयतवाड़ी व्यवस्था दक्षिणी तमिलनाडु, महाराष्ट्र, बरार, पूर्व पंजाब, असम तथा कुर्ग में लागू की गई थी। इस व्यवस्था में रैयत अथवा काश्तकार ही भूमि का स्वामी होता था और उसके तथा राज्य के बीच कोई मध्यस्थ नहीं होता था।

रैयत को भूमि बेचने, हस्तांतरण करने, गिरवी रखने, शिकमी देने तथा उपहार में देने का अधिकार प्राप्त था। जब तक वह बन्दोबस्त के समय निर्धारित मालगुजारी देता रहता था, उस समय तक उसे बेदखल नहीं किया जा सकता था। जमींदार व्यवस्था में ये अधिकार काश्तकारों को प्राप्त नहीं थे।

रैयतवाड़ी व्यवस्था में बन्दोबस्त अस्थायी होता था

रैयत के स्वामित्व की जोतों के लिए मालगुजारी अलग-अलग तय की जाती थी। बन्दोबस्त मध्य प्रदेश में 20 वर्ष के लिए, बम्बई  महाराष्ट्र में 30 वर्ष के लिए तथा मद्रास तमिलनाडु व संयुक्त प्रान्त उत्तर प्रदेश में 40 वर्ष के लिए किया जाता था।

रैयतवाड़ी व्यवस्था में भी स्थिति अच्छी नहीं रही। ब्रिटिश शासकों के लालच ने रैयतों को आर्थिक तथा शारीरिक दोनों ही दृष्टियों से बर्बाद कर दिया और उनकी स्थिति लगभग वही हो गई जो जमींदारी व्यवस्था में काश्तकारों की हो गई थी।

हम स्पष्ट कर आए हैं कि रैयतवाड़ी प्रथा में भू-स्वामित्व किसानों के साथ में होता है परन्तु थोड़े ही समय में यह स्वामित्व उसी वर्ग के लोगां के पास पहुंच गया जो बंगाल, बिहार तथा उड़ीसा में जमींदार बन बैठे थे।

इन क्षेत्रों में महाजन एवं साहूकर ऋण देकर किसानों को अपने चंगुल में फंसा लेते थे और बाद में उन्हें भूमि के स्वामित्व से वंचित कर देते थे। इस प्रकार इन क्षेत्रों में भी जमींदारों का नया वर्ग बन गया।

भूमि सुधारों का प्रभाव

मध्यस्थों के उन्मूलन के पश्चात् भूमि की एक बड़ी मात्रा राज्य सरकार के पास भूमिहीन कृषकों में पुनर्वितरित करने हेतु उपलब्ध हुई। उदाहरणस्वरूप लगभग 57.7 लाख हैक्टेयर भूमि, भूमिहीन कृषकों के बीच वितरित की गई।

साथ ही आजादी के पूर्व, जिन अनूसुचित जातियों और जनजातियों के पास कोई भूमि नहीं थी, कुछ राज्यों में भूमि सुधार कानून लागू होने के पश्चात् उन्हें भी भूमि उपलब्ध हुई। परिणामस्वरूप आज वे लगभग कुल कृषि भूमि का 8-9% भूमि के स्वामित्व हैं।

परन्तु मध्यस्थों के उन्मूलन के अतिरिक्त भूमि सुधार संबंधी अन्य उपायों में विशेष प्रगति नहीं हो पाई है। इसका प्रमुख कारण भूमि सुधार संबंधी कानूनों के व्याप्त कमियाँ हैं।

हाल के वर्षों में भूमि सुधार कार्यक्रम की दिशा

1. भूमि का पुनर्वितरण कुछ विशेष वर्गों को ध्यान में रखकर किया जा रहा है जैसेः महिला बेरोजगार नवयुवक।

2. पूरे देश में जोतो का समेकत अर्थात जोतो की चकबंदी पर बल दिया जा रहा है।

3. भूमि रिकार्ड का कम्प्यूटरीकरण किया जा रहा है और एक सुझाव डाटा तैयार किया जा रहा है।

4. भूमि की भौतिक स्थिति व गुणवत्ता के विकास के अंतर्गत भूमि संरक्षण के दृष्टिकोण को बल।

5. भूमि के पुनर्वितरण के अंतर्गत निर्धनों को बंजर भूमि प्रदान किए जाने की नीति को व्यवहार में लागू किया जा रहा है।

6. भूमि सुधार के अंतर्गत जनजातियों की भूमि हस्तांतरण पर रोक की नीति अपनाई गई है।

भूमि सुधारों का मूल्यांकन

वस्तुतः भूमि सुधार कार्यक्रम अपने लक्ष्यों की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाया, जिसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं-

1. भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भूमि सुधार कानून को लागू करने हेतु दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता थी। वाेट बैंक के चलते राजनीतिक वर्ग द्वारा भूमि सुधार कानून को दृढ़तापूर्वक लागू करने के संदर्भ में विशेष प्रोत्साहन नहीं दिया गया।

2. भूमि सुधार कानून क्रियान्वित करने का मुख्य दायित्व जिस प्रशासनिक तंत्र पर था वह स्वयं में इस कानून को लागू करने के संदर्भ में उदासीन था। साथ ही प्रशासनिक तंत्र में बड़े भू-स्वामियों के साथ निकट संबंध ने भी उन्हें भूमि सुधार कानून क्रियान्वित करने में बाधा उत्पन्न की।

3.  अधिकतर राज्यों में खुद देख-रेख को खुद-काश्त का हिस्सा मान लिया गया। साथ ही गाँव में भू-स्वामी की मौजूदगी भी अनिवार्य नहीं मानी गयी। परिणामस्वरूप काश्तकारों को बड़े पैमाने पर भूमि से बेदखल कर खुद-काश्त परिभाषा के अन्तर्गत बड़े किसानों ने स्वयं कृषि आरम्भ कर दी।

4. खुद-काश्त के लिए जमींदारों को बहुत बड़ी जमीन अपने पास रखने की अनुमति दे दी।

5. जोतो की सीमाबन्दी कानून से बचने के लिए जमींदारों ने काफी बड़ी भूमि अपने परिवार के सदस्यो के नाम हस्तान्तरित कर दी। यद्यपि इस बाधा को समाप्त करने हेतु बाद में कुछ कानून लाये गये।

6. कुछ राज्यों में बटाई के आधार पर खेती करने वालों को भी काश्तकार का दर्जा नहीं दिया गया।

7. काश्तकारों को बड़े भू-स्वामियों द्वारा कई बार मजबूर किया गया कि वे अपनी इच्छा से भूमि पर अधिकार छोड़ दें।

भारत की भू-नीति में वर्तमान सुधार

हमारे आर्थिक भविष्य का एक महत्वपूर्ण आधार भूमि संबंधित समस्याओं से निपटने का रवैया होगा।

ऐसा होने के दो बड़े कारण हैं

1. संसाधनों का कृषि से निर्माण और सेवाओं में स्थानांतरित होना विकास के लिए अनिवार्य शर्त है। यह संरचनात्मक परिवर्तन कारखानों को चलाने के लिए कामगारों को पर्याप्त अधिशेष देने के लिए कृषि की उत्पादकता में तेशी से सुधार के बिना हासिल नहीं किया जा सकता।

कम पैदावार वाली भारतीय कृषि में भूमि बाशारो की खामियों जैसे- असमानता, विखंडन, अच्छे भूमि आंकड़ों की कमी, असुरक्षित तथा गलत रूप से परिभाषित संपत्ति अधिकार, किरायेदारी का हतोत्साहन, और जमानत वेफ रूप में भूमि का गौण उपयोग करने में असमर्थता के लिए नेतृत्व की कमी, आदि के साथ अभी बहुत से क्षेत्राें में समाधान ढूंढ़ने का प्रयास करना होगा।

2. हमारी बड़ी जनसंख्या भूमि पर निर्भर है और इसकी एकाग्रता उपजाऊ क्षेत्राें में है। भारत में, गैर-कृषि उत्पादन को खेत की कीमत में बड़े पैमाने पर स्थान मिलना चाहिए।

‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ से ‘सिंगुर’ तक भूमि अधिग्रहण के लिए कड़ा प्रतिरोध पिछले एक दशक से अब तक देश भर में फैला है। यह परिपक्व होते लोकतंत्र की निशानी है कि विकास वेफ नाम पर अब गरीबों को बेदखल करना आसान नहीं रहा।

इसका मतलब यह नहीं है कि समस्याओं की पहचान नहीं हुई या विधायी प्रयास नहीं किए गए। सरकार द्वारा पारित किए गए दो महत्वपूर्ण कानूनों, खाद्य सुरक्षा और भूमि अधिग्रहण के साथ भूमि सुधार पर एक नया कानून पारित किया गया है जो है ‘भूमि अधिग्रहण अधिनियम’।

राज्य सरकार की भूमिका

नये कानून में राज्य सरकार की भूमिका को महत्वपूर्ण बनाया गया है। इसमें मुआवजे के लिए आधारभूत विधि उपलब्ध कराते हुए स्लाइडिंग स्केल की संरचना की गई है। जिसमें राज्यों को गुणक निर्धारित करने की अनुमति दी गई है।

जहाँ अधिग्रहित भूमि पाँच वर्षों तक रहेगी वहाँ उसके बारे में राज्य सरकारों को निर्णय लेने का अधिकार दिया गया है। ऐसी भूमि भू-स्वामी या भूमि बैंक को दी जा सकती है।

निजी खरीद के लिए जमीन की सीमा का राज्य सरकार निश्चित कर सकेगी तथा पुनर्वासन एवं पुनर्व्यवस्थापन समितियों के कार्यकलाप निर्धारित करने का कार्य भी राज्य सरकारों पर छोड़ा गया है।

नये कानून में सिंचित बहुफसली अथवा कृषि भूमि के अधिग्रहण को हतोत्साहित किया गया है। इसके लिए राज्य सरकारों को अधिकार दिए गए हैं।

राज्य सरकारों को अधिकार दिया गया है कि वे आँकलित मुआवजा राशि को बढ़ाने के लिए अन्य कानून बना सकते हैं।

खाद्य सुरक्षा के लिए व्यवस्था नये कानून में व्यवस्था की गई है कि जहाँ तक हो सके सिंचित बहुफसली तथा कृषि योग्य भूमि का अधिग्रहण न किया जाए तथा ऐसी परिस्थिति में बंजर भूमि को खेती योग्य बनाया जाएगा।

यदि बंजर भूमि उपलब्ध न हो तो अधिग्रहीत भूमि की कीमत के बराबर राशि कृषि क्षेत्र में विनियोग करने के लिए सरकार के पास जमा कराई जाएगी। किसी जिला विशेष या सम्पूर्ण राज्य में बहुफसली सिंचित भूमि के क्षेत्रफल के अधिग्रहण की अधिकतम सीमा का निर्धारण राज्य सरकार करेगी।

बंजर भूमि का एटलस

ग्रामीण विकास मन्त्रालय देश भर के सभी जिलों में उपलब्ध बंजर भूमि का एटलस बनाने का कार्य कर रही है। अभी तक राज्यों को ही अपने राज्य की बंजर भूमि की जानकारी है लेकिन अब जिलावार पूरे देश की बंजर भूमि की समग्र जानकारी उपलब्ध हो जाएगी।

एक अनुमान के अनुसार अभी देश में करीब 5 करोड़ हेक्टेयर बंजर जमीन है। बंजर भूमि की जानकारी एकत्रा हो जाने के बाद भूमि अधिग्रहण में बंजर जमीन को प्राथमिकता दी जा सकेगी।

निवेशकों की चिन्ता का समाधान

नये कानून में निवेशकों की चिन्ता का समाधान करने का भी प्रयास किया गया है। सार्वजनिक-निजी भागीदारी पीपीपी परियोजनाओं के मामले में सहमति 80 प्रतिशत से घटाकर 70 प्रतिशत कर दी गई है। इसके लिए आजीविका से सम्बन्धित लोगों की सहमति लेना आवश्यक नहीं होगा।

बाजार मूल्य की परिभाषा को सरल करने, भूमि मुआवजा निर्धारण में लचीली व्यवस्था, सिंचित बहुफसली भूमि तथा विशुद्ध बुवाई क्षेत्र की सीमा का निर्धारण, भूमि की निजी खरीद पर आरएण्डआर की सीमा निर्धारण में राज्यों को अधिकार, भूमि अधिग्रहण करने वाली संस्था के लिए सरल करने के अलावा नये कानून में कलेक्टर को यह अधिकार दिया गया है कि वह ऐसे सौदों का संज्ञान न ले जो बाजार मूल्य की संगणना करते समय वास्तविक मूल्य न दर्शाते हों।

पुनर्विचार का अधिकार

नये कानून के अन्तर्गत अगर कोई प्रभावित भूमि अधिग्रहण के बारे में किए गए निर्णय से सन्तुष्ट नहीं है तो उसे पुनर्वास एवं पुनर्व्यवस्थापन प्राधिकरण के समक्ष मुआवजे या अन्य सुविधाओं में संशोधन या वृदधि करने के बारे में याचिका दायर करने का अधिकार है।

नये कानून में प्राधिकरण की स्थापना का प्रावधान किया गया है। प्राधिकरण को 6 महीने के भीतर याचिका पर फैसला करना होगा। अगर इसके बाद भी प्रभावित परिवार प्राधिकरण के फैसले से सन्तुष्ट न हों तो वह अदालत में प्राधिकरण के फैसले के खि़लाफ अपील कर सकता है।

भूमि अधिग्रहण, पुनर्वासन तथा पुनर्व्यवस्थापन विधेयक,

2013 से नक्सल प्रभावित जिलों में भी व्यापक प्रभाव पड़ने की सम्भावना है। देश के 88 नक्सल प्रभावित जिले हैं जहाँ जंगल और जमीन से जुड़े मुद्दे प्रभावित कर रहे हैं। सही ढंग से इस कानून के लागू होने से आदिवासियों को भी अधिकाधिक फायदा होगा।

यह एक ऐसा विधेयक है जिसमें भू-स्वामी को शोषण से बचाने का पूरा प्रयास किया गया है और उसके अधिकारों को पूरी तरह से सुरक्षित रखा गया है।

भूमि मालिक की परिभाषा

अधिनियम भूमि मालिक के रूप में निम्नलिऽत को परिभाषित करता हैः

1. वह व्यक्ति जिसका नाम संबंधित प्राधिकारी के रिकॉर्ड में भूमि या भवन या उसके भाग के स्वामी के रूप में दर्ज किया गया है।

2. वह व्यक्ति जिसे अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी वन अधिकार की मान्यता अधिनियम, 2006 के तहत या किसी अन्य कानून के तहत वन अधिकार प्रदान किया जाता है।

3. वह व्यक्ति जो राज्य के किसी भी कानून के तहत भूमि पर पट्टठ्ठा अधिकार दिए जाने का हकदार है, जिसमें निर्दिष्ट भूमि भी शामिल है।

4. कोई भी व्यक्ति जिसे न्यायालय या प्राधिकरण के आदेश द्वारा घोषित किया गया हो।

भारत में भूमि सुधार हेतु सुझाव

स्वतंत्रता के समय से भूमि सुधार समानता और कृषि संवेदी निवेश दोनों को बढ़ावा देने की राज्य नीति में एक प्रमुख कारक रहे हैं। दुर्भाग्य से भूमि सुधारों की प्रगति धीमी रही है। भूमि के अधिक समान वितरण को साकार बनाने का मुख्य साधन भूमि परिसीमन कानून हैं।

इन कानूनों को अनेक राज्यों द्वारा पचास और साठ के दशकों के अंत में लागू किया गया तथा 1970 की शुरूआत में पिछले कानूनों की कमियों को दूर करने के लिए कानूनों में अधिक कठोर संशोधन किए गए थे। परन्तु कार्यान्वयन के अभिलेख संतोषजनक नहीं रहे हैं।

भूमि के लगभग 3 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्रफल को अब तक अधिशेष घोषित किया गया है, जो भारत में कृषि योग्य भूमि के निवल का मुश्किल से दो प्रतिशत है। इस भूमि का लगभग 30 प्रतिशत भाग अब तक वितरित नहीं किया गया है, क्योंकि यह कानूनी विवादों में उलझा हुआ है।

इसके अलावा बेनामी और गुप्त लेन देनों की बड़ी संख्या से परिसीमन की सीमाओं से ऊपर भूमि की महत्वपूर्ण मात्रा गैर कानूनी कब्जे में है। निम्न स्तरीय, अनुत्पादक, बंजर और खाली पड़ी जमीन के आवंटन की व्यापक रिपोर्ट हैं, जिन्हें भूमिहीन परिवारों को दिया गया, जिनमें से अनेक इसे बेचने के लिए मजबूर हैं, क्योंकि इनके पास इसे उत्पादक बनाने के संसाधन नहीं है।

अनेक दृष्टांतों में परिसीमन कानूनों के तहत ग्रामीण निर्धनों को आवंटित की गई भूमि उनके स्वामित्व में नहीं है। कुछ मामलों में लाभार्थियों को पट्टे जारी किए गए थे, किन्तु पट्टों में दर्शाई गई भूमि का स्वामित्व नहीं दिया गया था या अधिकारों के अभिलेख में संगत बदलाव नहीं किए गए थे।

ग्रामीण भारत में भूमिहीन और निर्धनों की तुलना में अधिकारों का संतुलन इतना अधिक भारी है कि भूमि परिसीमन के कानूनों का कार्यान्वयन कठिन है।

यह स्पष्ट है कि ग्रामीण निर्धनों को बड़े पैमाने पर प्रेरित किए बिना और ग्रामीण भारत में लोकतांत्रिक शासन को गहराई से लाए बिना इस दिशा में बहुत कम कार्य संभव है। पश्चिम बंगाल में भारत की आधे से अधिक भूमि परिसीमन अधिशेष के लाभार्थी है।

जबकि भारत की आधी से अधिक आबादी अपनी आजीविका के प्राथमिक स्रोत के रूप में कृषि पर निर्भर बनी हुई है। 83 प्रतिशत किसान दो हेक्टेयर से कम भूमि पर खेती करते हैं और उनके खेत का औसत आकार केवल 1.23 हेक्टेयर है। आम तौर पर यह टुकड़ों में और असिंचित है। ऐसे लोग भी हैं जो पूरी तरह भूमिहीन हैं, जबकि कृषि उनकी आजीविका का मुख्य स्रोत है।

उनके पास खरीदने के लिए अपर्याप्त वित्तीय संसाधन हैं और वे आम तौर पर छोटे भूखंडों के पट्टों पर, असुरक्षित शर्तों पर, अल्पावधियों के लिए, कई बार केवल एक मौसम के लिए निर्भर करते हैं।

अतः इनमें से अनेक को कार्यकाल की असुरक्षा और भूमि हस्तांतरण के बढ़ते जोखिम और शहरीकरण, औद्योगिकीकरण तथा सशक्त हितों के दबाव का सामना करते हैं।

कानूनी तौर पर अधिकांश राज्यों में भूमि को पट्टे देने के कानून क्षेत्रफल को बढ़ाने पर या तो उपेक्षित और छोटे किसानों पर रोक लगाते हैं, जिस पर वे भूमि को पट्टे पर देकर फसल उगाते हैं या अनौपचारिक काश्तकारों/हिस्से पर फसल उगाने वालों के लिए कार्यकाल संबंधी असुरक्षा पैदा करते हैं।

छोटे और उपेक्षित किसानों द्वारा अधिकांशतः अभिलेख के बिना काश्तकारी चलाई जाती हैं। इसी के साथ कुछ क्षेत्रों में अनुपस्थित भूमि स्वामित्व बहुत अधिक होता है ;विशेष रूप से पर्वतीय राज्यों और वर्षा सिंचित क्षेत्रों में, जिससे फसल उगाने योग्य विशाल क्षेत्रफल निष्क्रिय पड़े रहे जाते हैं।

दुर्भाग्य से अधिकांश काश्तकारी नियमों द्वारा काश्तकारी को भूमिगत बना दिया गया है या इसे अधिक अनौपचारिक बना दिया है।

विभिन्न राज्यों के सूक्ष्म अध्ययन दर्शाते हैं कि पट्टे पर दी गई भूमि का अनुपात एनएसएस और जनगणना, दोनों द्वारा बताए गए आंकड़ों से उल्लेखनीय रूप से अधिक है। कुछ मामलों में यह सकल कृषि के क्षेत्र का 20-25 प्रतिशत तक उच्च है।

काश्तकारी की संविदाएं मौखिक होती हैं और छोटी अवधि की होती हैं। पट्टे पर दी गई भूमि का अनुपात पिछड़े क्षेत्रों की तुलना में कृषि की दृष्टि से विकसित क्षेत्रों में अधिक होता है। अधिकांश परिवार वर्ग पट्टा बाजार में पट्टादाता और पट्टेदार के रूप में भाग लेते हैं।

जबकि पिछड़े कृषि क्षेत्रों में पारंपरिक पैटर्न अधिक सामान्य है, जिनमें छोटे और उपेक्षित किसान पट्टेदार के रूप में तथा बड़े और मध्यम स्तर के किसान कृषि की दृष्टि से उन्नत क्षेत्रों में पट्टादाता के रूप में पट्टा बाजार पर प्रभुत्व बनाते हैं, पट्टा बाजार एक संक्रमण की स्थिति में है, जहां सभी वर्गों के परिवार भाग लेते हैं। विपरीत काश्तकारी का रुझान इन क्षेत्रों में अधिक प्रबलित है।

अतः काश्तकारी को कानूनी बनाने और भूमि को पट्टे पर लेने और पट्टे पर देने की अनुमति के साथ छोटे और उपेक्षित किसानों के हितों को सुरक्षित करने के पर्याप्त रक्षोपाय का सशक्त प्रकरण है। पट्टा बाजार के उदारीकरण का अर्थ मौजूदा काश्तकारी विधानों का अभिनिषेध है।

इन्हें स्वामित्व के अधिकार को गैर हस्तांतरणीय तथा सुरक्षित बनाकर, कार्यकाल निर्धारित करते हुए, पट्टे का अभिलेख बनाकर और पट्टे की समाप्ति के बाद फसल उगाने के लिए भूमि को वापस भू-स्वामियों के पास भेजते हुए भूमि को पट्टे पर लेने और पट्टे पर देने की अनुमति में उपयुक्त परिवर्तन करने चाहिए।

काश्तकारी के कानूनों में सुधार से सभी वर्गों को उनके संसाधन एंडोवमेंट पर निर्भर करते हुए पट्टा बाजार में उपयुक्त रूप से भागीदारी की अनुमति दी जाएगी।

अध्ययनों में दर्शाया गया है कि पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में बड़े और मध्यम किसान जो आधुनिक निवेशों में निवेश करते हैं वे छोटे और उपेक्षित किसानों से भूमि पट्टे पर लेते हैं, बड़े पैमाने की अर्थव्यवस्था में कटौती करते हैं और खेत की उत्पादकता बढ़ाते हैं।

छोटे और उपेक्षित किसान जो अपनी भूमि को पट्टे पर देते हैं, उन्हें व्यावसायिक उगाही और उच्च आय के संदर्भ में भी लाभ मिलता है। बिहार और उड़ीसा जैसे अन्य राज्यों में, जहां पारिश्रमिक कम और रोजगार के अवसर भी कम हैं, छोटे और उपेक्षित किसान भूमि को पट्टे पर लेते हैं और अपनी कृषि भूमि का आकार बढ़ाते हैं तथा इस प्रकार काश्तकारी के सभी परिचर लाभों के साथ जीवन का एक उपयुक्त स्तर वहन करते हैं, जैसे वित्तीय संस्थानों से ट्टण लेना।

इन राज्यों के मध्यम और बड़े किसान शहरी क्षेत्रों में प्रवास करते हैं और अपनी भूमि खोने के जोखिम के बिना गैर कृषि रोजगार के अवसर अपनाते हैं। जब उनकी आजीविका गैर कृषि क्षेत्र में सुरक्षित हो जाती है तो वे अपनी भूमि बेच सकते हैं। काश्तकारी में उदारीकरण से कृषि योग्य भूमि के समेकन में भी सहायता मिलती है, क्योंकि किसान अपनी भूमि के टुकड़े को बेचने के स्थान पर उसे पट्टे पर देना अधिक पसंद करते हैं,

क्योंकि इसमें असुविधा नहीं है। दीर्घाअवधि की काश्तकारी संविदाओं से कृषि उत्पादकता बढ़ाने में भी सहायता मिलती है। ये बाधाएं आदिवासियों और महिला किसानों के लिए और भी अधिक बढ़ जाती हैं।

लगातार जैसे-जैसे महिलाओं की तुलना में अधिक पुरुष कृषि के लिए बाहर आते हैं, कृषि के महिलाकरण की ओर एक विस्थापन होता है।

अधिकांश महिलाएं वस्तुतः गृह प्रमुख के रूप में भी कार्य करती हैं जबकि प्रारूपिक तौर पर महिला किसानों की कुछ प्रत्यक्ष पहुंच भूमि तक होती है और निवेशों एवं अन्य सेवाओं तक उनकी पहुंच अत्यंत असमान होती है।

पर्यावरण संबंधी कारकों से पुनः निर्धन किसानों को नुकसान होता है। भू-जल स्तर में गिरावट आई है और मिटी का क्षरण हुआ है। यह सभी कुछ मौसम बदलाव की पृष्ठभूमि में हुआ है।

अब मुख्य प्रश्न हैः इन बाधाओं को अवसरों में किस प्रकार रूपांतरित किया जा सकता है? क्या लाभवंचित किसानों को स्थायी आजीविका मिल सकती है और वे उच्चतर वृद्धि तथा अधिक समावेशी विकास के लिए भारत के लिए लाभकारी बन सकते हैं?

FAQ

भूमि सुधार का क्या अर्थ है?

भूमि सुधार (Land reform) के अन्तर्गत भूमि से संबन्धित कानूनों तथा प्रथाओं में परिवर्तन आते हैं। यह सरकार द्वारा आरम्भ की जाने वाली प्रक्रिया है जिसमें प्रमुख रूप से कृषि भूमिं का पुनर्वितरण किया गया है।

भूमि सुधार का मुख्य उद्देश्य क्या है?

भूमि के कुशल प्रबंधन के लिए भूमि जोत का एकीकरण। जिससे कि छोटे और खंडित भू-स्वामियों के सामने आने वाली समस्याओं को दूर किया जा सके।

भूमि सुधार के तीन प्रकार कौन से हैं?

भारत में भूमि सुधार के प्रमुख तीन प्रकार हैं जमींदारी उन्मूलन, काश्तकारी कानूनों का सुधार, और भूमि सीमा।

भारत के प्रमुख भूमि सुधार क्या है?

भारत में भूमि सुधार कार्यक्रमों में मध्यस्थों का उन्मूलन, काश्तकारी सुधार, भूमि की चकबंदी तथा प्रति परिवार भूमि का निर्धारण और भूमिहीन लोगों के बीच अधिशेष भूमि वितरित करना शामिल था ।

भारत में भूमि सुधार की आवश्यकता क्यों पड़ी?

स्वतंत्रता के समय देश में भूमि छोटे छोटे टुकड़ो में बंटी हुई थी जिसके कारण भू स्वामियों को बहुत ही जयादा परेशानियों का सामना करना पड़ता था। और साथ ही साथ कृषि उत्पादन बहुत काम होता था, अत: कृषि उत्पादन बढ़ाने के लिए भूमि सुधार कार्यक्रम आवश्यक है।

भूमि सुधार कौन सी सूची के अंतर्गत आता है?

9वीं अनुसूची है।

भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत अधिनियमित पहला कानून कौन सा था?

भूमि सुधार कार्यक्रम के तहत भारतीय संविधान में पहला संशोधन अधिनियम, 1951 में हुआ और भूमि सुधार मामलों में शामिल मुद्दों से संबंधित है।

भारत में भूमि सुधार कब हुआ?

भूमि सुधार नियम, 1965

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