मौलिक अधिकार (Fundamental Rights in Hindi)वे अधिकार हैं जो व्यक्तियों की भलाई के लिए आवश्यक हैं और उन्हें नैतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से विकसित करने में भी मदद करते हैं। भारतीय संविधानमें मौलिक अधिकारों (Fundamental Rights)को संयुक्त राज्य अमेरिका के बिल ऑफ राइट्स से प्रेरित हो कर जोड़ा गया था।
मूल अधिकार का अर्थ
वे अधिकार जो व्यक्ति के जीवन के लिए मौलिक तथा अनिवार्य होने के कारण संविधन द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते हैं और जिन अधिकारों में राज्य द्वारा भी हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता, मूल अधिकार कहलाते हैं।
इन अधिकारो को निम्न आधारों पर मूल अधिकार कहा जाता है।
व्यक्ति के पूर्ण मानसिक, भौतिक और नैतिक विकास के लिए ये अधिकार बहुत आवश्यक हैं। इनके अभाव में उनके व्यक्तित्व का विकास रूक जाएगा। इसलिए लोकतन्त्रात्मक राज्य में प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मूल अधिकार प्रदान किए जाते हैं।
इन अधिकारों को मूल कहने का द्वितीय कारण यह है कि इन्हें देश की मूल बिधि अर्थात संविधान में स्थान दिया जाता है और साधरणतया संवैधानिक संशोधन की प्रक्रिया के अलावा इनमें और किसी प्रकार से परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
मूल अधिकार साधराणतया अनुल्लंघनीय हैं अर्थात् व्यवस्थापिका, कार्यपालिका, या बहुमत दल द्वारा उनका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता है।
मूल अधिकार न्याय-योग्य होते हैं अर्थात् न्यायपालिका इन अधिकारों की रक्षा के लिए सभी आवश्यक कदम उठा सकती है। मूल अधिकार की व्यवस्था भारतीय संविधान की सर्वाधिक प्रमुख व्यवस्थाओं में से एक है।
भारतीय संविधान के अधिकार-पत्र की विशेषताएं
1. सर्वाधिक विस्तृत अधिकार–पत्र
भारतीय संविधान का तृतीय भाग जिसमें मूल अधिकारों का विवेचन किया गया है, विश्व के अन्य किसी भी संविधान में दिए गए अधिकार-पत्र से विस्तृत है।
मूल अधिकारों के सम्बन्ध में संविधान में कुल 23 अनुच्छेद; अनुच्छेद 12 से 30 और 32 से 35 हैं और इनमें से कुछ अनुच्छेद तो असाधरण रूप से लम्बेहै।
अधिकार-पत्र के इतने अधिक व्यापक होने का एक प्रमुख कारण यह रहा है कि प्रत्येक अधिकार के साथ प्रतिबधो की भी व्यवस्था की गई है। मूल अधिकारों के सम्बन्ध् में पूर्ण और स्पष्ट व्यवस्था के प्रयास में ही अधिकार –पत्र इतना विस्तृत हो गया है।
2. मूल अधिकार (Fundamental Rights) व्यावहारिकता पर आधारित
भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकार कोरे सिद्धान्तों की अपेक्षा वास्तविकता पर आधारित और सम्पूर्ण समाज के लिए उपयोगी हैं।
उदाहरण के लिए, सभी व्यक्तियों हेतु समानता के अधिकार को स्वीकार करते हुए भी पिछड़े हुए और दलित वर्गों के विकास के लिए संविधान में विशेष व्यवस्थाएं की गई हैं,
शिक्षा और संस्कृति की स्वतन्त्रता के अधिकार के अन्तर्गत अल्पसंख्यकों के शिक्षा और भाषा सम्बन्धी हितों की रक्षा का प्रबन्ध किया गया है और धर्मिक स्वतन्त्रता के अधिकार की व्यवस्था इस दृष्टिकोण से की गई है कि समाज में धर्मिक सहिष्णुता को प्रोत्साहन मिले।
3. मूल अधिकार सीमित हैं निरंकुश नहीं
भारतीय संविधान द्वारा प्रदान किए गए मूल अधिकार असीमित नहीं हैं, वरन् संविधान के द्वारा ही उन पर प्रतिबन्ध भी लगा दिए गए हैं।
4. प्राकृतिक या अगणित अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं
भारतीय संविधान के अन्तर्गत प्राकृतिक या अगणित अधिकारों के लिए कोई स्थान नहीं है और संविधान केवल उन्हीं अधिकारों को स्वीकार करता है जिनका वर्णन संविधान के तीसरे भाग में किया गया है।
सर्वोच्च न्यायालय संविधान में उल्लिखित अधिकारों के अलावा अन्य अधिकारों को लागू करने की कार्यवाही नहीं कर सकता।
5. मूल अधिकारों(Fundamental Rights)की रक्षा के लिए व्यवस्था
संविधान के अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत नागरिक अपने अधिकारों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालयों की शरण ले सकता है और न्यायपालिका, व्यवस्थापिका या कार्यपालिका के ऐसे सभी कानूनों और कार्यों को अवैधानिक घोषित कर देगी जो मूल अधिकारों को अनुचित रूप से प्रतिबधित करते हों।
संविधान के द्वारा अधिकारों की रक्षा के लिए जिस प्रकार के उपचारों की व्यवस्था की गई है, वे पर्याप्त प्रभावशाली और महत्वपूर्ण हैं।
संविधन द्वारा प्रदत्त मूल अधिकार (Fundamental Rights In Hindi)
भारतीय संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को 7 मूल अधिकार प्रदान किए गए थे, किन्तु 44वें संवैधनिक संशोधन 1979 द्वारा सम्पत्ति के अधिकार को मूल अधिकार के रूप में समाप्त कर दिया गया।
अब सम्पत्ति का अधिकार केवल एक कानूनी-अधिकार के रूप में है। इस प्रकार अब भारतीय नागरिकों को निम्नलिखित 6 मूल अधिकार प्राप्त हैं
1. समानता का अधिकार अनुच्छेद 14-18
कानून के समक्ष समानता(अनुच्छेद14)- अनुच्छेद 14 के अनुसार भारत के राज्य क्षेत्र में राज्य किसी भी व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता या कानून से समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
इसके द्वारा राज्य पर बंधन लगाया गया है कि वह सभी व्यक्तियों के लिए एक-सा कानून बनाएगा तथा उन्हें एकसमान लागू करेगा।
कानून के समक्ष समानता का तात्पर्य यह नहीं है कि औचित्यपूर्ण आधार पर और कानून द्वारा मान्य किसी भेदभाव की भी व्यवस्था नहीं की जा सकती है।
यदि कानून पर लगाने के सम्बन्ध में धनि और गरीब में और सुविधएं प्रदान करने में स्त्रियों और पुरूषों में भेद करता है तो इसे कानून के समक्ष समानता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता।
1. धर्म नस्ल, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधर पर भेदभाव का निषेध अनुच्छेद 15-
अनुच्छेद 15 मे कहा गया है कि ‘‘राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्मस्थान, आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जाएगा।’’
कानून के द्वारा निश्चित किया गया है कि सब नागरिकों के साथ दुकानों, होटलों तथा सार्वजनिक स्थानों जैसे कुओं, तालाबों, स्नानगृहों, सड़कों, आदि के प्रयोग के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का भेदभाव नही किया जाएगा।
2. राज्य के अधीन नौकरियों का समान अवसर अनुच्छेद 16
अनुच्छेद 16 के अनुसार, ‘‘सब नागरिकों को सरकारी पदों पर नियुक्ति के समान अवसर प्राप्त होंगे और इस सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान या इनमें से किसी के आधार पर सरकारी नौकरी या पद प्रदान करने में भेदभाव नहीं किया जाएगा।’’
इसके अन्तर्गत राज्य को यह अधिकार है कि वह राजकीय सेवाओं के लिए आवश्यक योग्यताएं निर्धारित कर दे। संसद कानून द्वारा संघ में सम्मिलित राज्यों को अधिकार दे सकते है कि वे उस पद के उम्मीदवार के लिए राज्य का निवासी होना आवश्यक ठहरा दें। इसी प्रकार सेवा में पिछड़े हुए वर्गों के लिए भी स्थान आरक्षित किये जा सकते हैं।
3. अस्पृश्यता का निषेध अनुच्छेद 17– सामाजिक समानता को और अधिक पूर्णता देने के लिए अस्पृश्यता का निषेध किया गया है। अनुच्छेद 17 में कहा गया है कि ‘‘अस्पृश्यता से उत्पन्न किसी अयोग्यता को लागू करना एक दण्डनीय अपराध होगा।’’
हिन्दू समान से अस्पृश्यता के विष को समाप्त करने के लिए संसद द्वारा 1955 में ‘अस्पृश्यता अपराध अधिनियम’ पारित किया गया जो पूरे भारत में लागू होता है।
इस कानून के अनुसार अस्पृश्यता एक दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है। ‘अस्पृश्यता अपराध अधिनियम को 1976 में संशोधित कर इसका नाम ‘नागरिक अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955’ कर दिया गया है। 1989 में इस कानून का और अधिक कठोर बनाते हुए इसे ‘अनुसूचित जाति व जनजाति निरोधक कानून 89’ का नाम दे दिया गया।
यह कानून अस्पृश्यता के अन्त के लिए अब तक बनाये गये कानूनों में सबसे अधिक कठोर है। आवश्यकता इस बात की है कि इस कानून का उपयोग अवश्य, हो लेकिन कोई दुरूपयोग न हो।
4. उपाधियों का निषेध अनुच्छेद 18- ब्रिटिश शासनकाल में सम्पत्ति आदि के आधार पर उपाधियाँ प्रदान की जाति थीं, जो सामाजिक जीवन में भेद उत्पन्न करती थीं। अतः नवीन संविधान में इनका निषेध कर दिया गया है।
अनुच्छेद 18 में व्यवस्था की गई है कि ‘‘सेना अथवा विद्या सम्बन्धी उपाध्यिों के अलावा राज्य अन्य कोई उपाध्यिां प्रदान नहीं कर सकता।’’ इसके साथ ही भारत का कोई नागरिक बिना राष्ट्रपति की आज्ञा के विदेशी राज्य से भी कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता।
अनुच्छेद 18 की उपर्युक्त व्यवस्था के बावजूद भारत में 1950 से ही भारत सरकार द्वारा भारतरत्न, पद्म विभूषण, पद्मभूषण और पद्म श्री की उपाध्यिां प्रदान की जाती रही हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस सम्बन्ध में कहा है कि, ‘उपाध्यिां प्रदान करने की यह व्यवस्था संविधान के प्रतिकूल नहीं है, लेकिन इस सम्बन्ध में शासन का समस्त कार्य विवेक संगत रूप में और उचित मापदण्डों पर आधारित होना चाहिए।’
2. स्वतन्त्रता का अधिकार अनुच्छेद 19-22:
भारतीय संविधान का उद्देश्य विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वधीनता सुनिश्चित करना है अतः संविधान के द्वारा नागरिकों को विविध स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई हैं। इस सम्बन्धों में अनुच्छेद 19 सबसे अधीक महत्वपूर्ण है।
मूल संविधान के अनुच्छेद 19 द्वारा नागरिकों को 7 स्वतन्त्रताएं प्रदान की गई थीं और इसमें छठी स्वतन्त्रता, ‘सम्पत्ति की स्वतन्त्रता’ थी।
44 वे संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मौलिक अधिकार के साथ-साथ ‘सम्पत्ति की स्वतन्त्रता’ भी समाप्त कर दी गई है और अब 19वें अनुच्छेद के अन्तर्गत नागरिकों को 6 स्वतन्त्रताएं ही प्राप्त हैं।
1. विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता– भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने तथा अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतन्त्रता प्राप्त है। प्रेस भी विचारों के प्रचार का एक साधन होने के कारण इसी में प्रेस की स्वतन्त्रता भी शामिल है।
संविधान के ‘प्रथम संशोधन अधिनियम 1951’ द्वारा विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को और सीमित कर दिया गया और अब राज्य जिन आधरों पर विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर युक्ति-युक्ति, प्रतिबन्ध लगा सकता है।
वे इस प्रकार हैं-राज्य की सुरक्षा, विदेशी राज्यों से मित्रतापूर्ण सम्बन्ध, सार्वजनिक व्यवस्था, शिष्टाचार या सदाचार, न्यायालय अपमान, मानहानि या अपराध के लिए उत्तेजित करना। 1963 के 16वें संशोधान द्वारा स्वतन्त्रता पर एक और प्रतिबन्ध लगा दिया गया है।
अब यदि कोई व्यक्ति भारत राज्य से उसके किसी भाग को अलग करवाने का प्रचार करें, तो राज्य के द्वारा उसकी विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का सीमित किया जा सकता है।
अब 44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा व्यवस्था की गई है कि प्रेस संसद तथा राज्य विधान मण्डलों की कार्यवाही के प्रकाशन के सम्बन्ध में पूर्ण स्वतन्त्र है और राज्य के द्वारा इस सम्बन्ध् में प्रेस पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकेगा।
2. अस्त्र-शस्त्र रहित तथा शान्तिपूर्वक सम्मेलन की स्वतन्त्रता– व्यक्तियों के द्वारा अपने विचारों के प्रचार के लिए शान्तिपूर्वक और बिना किन्हीं शस्त्रों के सभा या सम्मेलन किया जा सकता है तथा उनके द्वारा जुलूस या प्रदर्शन का आयोजन भी किया जा सकता है।
यह स्वतन्त्रता भी असीमित नहीं है और राज्य के द्वारा सार्वजनिक सुरक्षा के हित में इस स्वतन्त्रता को सीमित किया जा सकता है।
3. समुदाय और संघ के निर्माण के स्वतन्त्रता-संविधान के द्वारा सभी नागरिकों को समुदायों और संघ के निर्माण की स्वतन्त्रता प्रदान की गई है, परन्तु यह स्वतन्त्रता भी उन प्रतिबन्धो के अधीन है, जिन्हें राज्य साधरण जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए लगा सकता है।
इस स्वतन्त्रता की आड़ में व्यक्ति ऐसे समुदायों का निर्माण नहीं कर सकता जो षडयन्त्र करें अथवा शान्ति और व्यवस्था को भंग करें।
4. भारत राज्य क्षेत्र में अबाध भ्रमण की स्वतन्त्रता-भारत के सभी नागरिक बिना किसी प्रतिबन्ध या विशेष अधिकार-पत्र के सम्पूर्ण भारत के क्षेत्र में घूम सकते हैं।
इस अधिकार पर राज्य सामान्य जनता के हित और अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के हित में उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
5. भारत राज्य क्षेत्र में अबाध निवास की स्वतन्त्रता-भारत के सभी नागरिक अपनी इच्छानुसार स्थाई या अस्थाई रूप में किसी भी स्थान पर बस सकते हैं। किन्तु राज्य के द्वारा सामान्य जनता के हित और अनुसूचित जातियों तथा जानजातियों के हित में इन पर उचित प्रतिबन्ध लगाया जा सकता है।
6. वृत्ति, उपजीविका या कारोबार की स्वतन्त्रता-संविधान ने सभी नागरिकों को वृत्ति, उपजीविका, व्यापार अथवा व्यवसाय की स्वतन्त्रता प्रदान की है, किन्तु राज्य जनता के हित मे इन स्वतन्त्रताओं पर उचित प्रतिबन्ध लगा सकता है।
राज्य किन्हीं व्यवसायों को करने के लिए आवश्यक योग्यताएं निर्धरित कर सकता है अथवा किसी कारोबार या उद्योग को पूर्ण अथवा आंशिक रूप में स्वयं अपने हाथ में ले सकता है।
इस प्रकार संविधान द्वारा प्रदान की गई उपर्युक्त स्वतन्त्रताएं असीमित नहीं है और इनमें से प्रत्येक पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए हैं। इन प्रतिबन्धें के होते हुए भी ये स्वतन्त्रताएं इस दृष्टि से सुरक्षित हैं कि इन स्वतन्त्रताओं पर केवल युक्ति-युक्त प्रतिबन्ध ही लगाए जा सकेंगे और प्रतिबन्ध की युक्ति युक्तता या औचित्य का निर्णय न्यायालय हीकरेगा।
अपराध दोष सिदधि के विषय में संरक्षण अनुच्छेद 20- अनुच्छेद 20 में कहा गया है कि ‘‘किसी व्यक्ति को उस समय तक अपराधी नहीं ठहराया जा सकता जब तक कि उसने अपराध के समय में लागू किसी कानून का उल्लंघन न किया हो।’’
इसके साथ ही एक अपराध के लिए व्यक्ति को एक ही बार दण्ड दिया जा सकता है और किसी अपराध में अभियुक्त व्यक्ति को स्वयं अपने विरूद्ध गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा जीवन की सुरक्षा अनुच्छेद 21– अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार को मान्यता प्रदान की गई है। इसमें कहा गया है कि ‘‘किसी व्यक्ति को उसके जीवन तथा दैहिक स्वाधीनता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर अन्य किसी प्रकार से वंचित नहीं किया जा सकता।’’
सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 में अपने एक महत्वपूर्ण निर्णय में कहा है कि ‘जीवन के अधिकार’ में आवास का अधिकार सम्मिलित है।
44वें संवैधानिक संशोधन 1978 द्वारा जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को और अधिक महत्व प्रदान किया गया है। अब आपातकाल में भी जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को समाप्त या सीमित नहीं किया जा सकता है।
बन्दीकरण की अवस्था में संरक्षण अनुच्छेद 22- अनुच्छेद 22 के द्वारा बन्दी बनाए जाने वाले व्यक्ति को कुछ अधिकार प्रदान किए गए हैं। इसमें कहा गया है कि उसके अपराध के बारे में अथवा बन्दी बनाने के कारणों को बतलाए बिना किसी व्यक्ति को अधिक समय तक बन्दीगृह में नहीं रखा जाएगा।
उसे वकील से परामर्श करने और अपने बचाव के लिए प्रबन्ध करने का अधिकार होगा तथा बन्दी बनाए जाने के बाद 24 घण्टे के अन्दर-अन्दर; इसमें बन्दीगृह से न्यायालय तक जाने का समय शामिल नहीं है उसे निकटतम न्यायाधीश के सामने उपस्थित किया जाएगा।
अनुच्छेद 22 के द्वारा बन्दी बनाए जाने वाले व्यक्तियों को जो अधिकार प्रदान किए गए हैं वे दो प्रकार के अपराधियों पर लागू नहीं होंगे। प्रथम, शत्रु देश के निवासियों पर और द्वितीय, ‘निवारक निरोध आधीनियम’ के अन्तर्गत गिरफ्तार व्यक्तियों पर।
निवारक निरोध
अनुच्छेद 22 के खण्ड 4 में निवारक निरोध की चर्चा की गई है और यह भारतीय संविधन की सबसे अधिक विवादास्पद धारा है। यद्यपि संविधान में निवारक निरोध की परिभाषा नहीं दी गई है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि निवारक निरोध का तात्पर्य वास्तव में, किसी प्रकार का अपराध किए जाने से पूर्व और बिना किसी प्रकार की न्यायिक प्रक्रिया के ही नजरबन्दी है। निवारक निरोध का उद्देश्य व्यक्ति को अपराध के लिए दण्ड देना नहीं, वरन् उसे अपराध करने से रोकना है।
सामान्य काल और संकट काल दोनों में लागू-निवारक निरोध के सम्बन्ध में विशेष बात यह है कि भारतीय संविधन के अनुसार निवारक निरोध सामान्य काल तथा संकट काल दोनों में लागू होगा। विश्व में अन्य किसी भी प्रजातन्त्रात्मक राज्य में ऐसी व्यवस्था नहीं पाई जाती है।
3. शोषण के विरूद्ध अधिकार:
अनुच्छेद 23 और 24 अनुच्छेद 23 के द्वारा बेगार तथा इसी प्रकार का अन्य जबरदस्ती लिया हुआ श्रम निषिद्ध ठहराया गया है कि जिसका उल्लंघन विधी के अनुसार दण्डनीय अपराध है।
भारत में सदियों से किसी न किसी रूप में दासता की प्रथा विद्यमान थी, जिसके अनुसार हरिजनों, खेतिहर श्रमिकों तथा स्त्रियों पर विभिन्न प्रकार के अनाचार किए जाते थे। नवीन संविधन के अन्तर्गत मानवीय शोषण के इन सभी रूपों को कानून के अनुसार दण्डनीय घोषितकर दिया गया है।
इस अधिकारों का एक महत्वपूर्ण अपवाद है। राज्य सार्वजनिक उद्देश्य ये अरिवार्य श्रम की योजना लागू कर सकता है, लेकिन ऐसा करते समय राज्य नागरिकों के बीच धर्म, मूलवंश, जाति, वर्ण या सामाजिक स्तर के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा।
बाल श्रम का निषेध-अनुच्छेद 24 में कहा गया है कि 14 वर्ष से कम आयु वाले किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम पर नियुक्त नहीं किया जा सकता, लेकिन बच्चों को अन्य प्रकार के कार्यों में लगाया जा सकता है। भारत के विभिन्न भागों में शोषण का एक रूप बंधुआ मजदूरी के रूप में प्रचलित था, जिसे समाप्त करने के लिए 1975-76 में कुछ कदम उठाए गए।
4. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार:
अनुच्छेद 25-28 अन्तःकरण की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 25 में कहा गया है कि सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य तथा इस भाग के अन्य उपबन्धो के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अन्तःकरण की स्वतन्त्रता तथा कोई भी धर्म अंगीकार करने, उसका अनुसरण एवं प्रचार करने का अधिकार प्राप्त होगा। सिखों द्वारा कृपाण धरण करना और लेकर चलना धार्मिक स्वतन्त्रता का अंग माना गया है।
अनुच्छेद 25 में व्यवस्था की गई है कि सार्वजनिक प्रकृति की हिन्दू धर्मिक संस्थाओं; मन्दिरों और अन्य स्थानों में हिन्दू समाज के सभी वर्गों को समान रूप से प्रवेश करने का अधिकार होगा अर्थात् इन संस्थाओं में हिन्दु समाज के किसी भी व्यक्ति को प्रवेश करने से नहीं रोका जा सकेगा।
धर्मिक मामलों का प्रबन्ध करने की स्वतन्त्रता-अनुच्छेद 26 प्रत्येक धर्म की अनुयायिायें को निम्न अधिकार प्रदान करता हैः
I. धार्मिक संस्थाओं तथा दान से स्थापित सार्वजनिक सेवा संस्थाओं की स्थापना तथा उनके पोषण का अधिकार।
II. धर्म सम्बन्धी निजी मामलों का स्वयं प्रबन्ध करने का अधिकार।
III. चल और अचल सम्पत्ति के अर्जन और स्वामित्व का अधिकार।
IV. उस सम्पत्ति का विधी के अनुसार संचालन करने का अधिकार।
वस्तुतः अनुच्छेद 26, अनुच्छेद 25 का एक उपसिद्धान्त मत्रा है।
धर्मिक व्यय के लिए निश्चित धन पर कर की अदायगी से छूट-अनुच्छेद 27 में कहा गया है कि राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसे कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है, जिसकी आय किसी विशेष धर्म अथवा धर्मिक सम्प्रदाय के उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गई हो।
राजकीय शिक्षण संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा निषिद्ध-भारत राज्य का स्वरूप धर्मनिरपेक्ष राज्य का है, जिसे धार्मिक क्षेत्र में निष्पक्ष रहना है। अतः अनुच्छेद 28 में कहा गया है कि ‘‘राजकीय निधि संचालित किसी भी शिक्षण संस्था में किसी प्रकार की धर्मिक शिक्षा प्रदान नहीं की जाएगी।
इसके साथ ही राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त या आर्थिक सहायता प्राप्त शिक्षण संस्था में किसी व्यक्ति को किसी धर्म विशेष की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकेगा।’’
किन्तु अन्य अधिकारों की भांति ही धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार भी प्रतिबंधित नहीं है। राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता एवं स्वास्थ्य इत्यादि के हित में इसके प्रयोग पर प्रतिबन्ध लगा सकता है। इसी प्रकार आर्थिक, राजनीतिक या अन्य किसी प्रकार के सार्वजनिक हित की दृष्टि से राज्य धर्मिक क्षेत्र में हस्तक्षेप कर सकता है।
5. संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार:
अनुच्छेद 29 और 30 हमारे संविधन के द्वारा भारत में सभी नागरिकों को संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी स्वतन्त्रता का अधिकार भी प्रदान किया गया है। अनुच्छेद 29 के अनुसार, ‘‘नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को अपनी भाषा, लिपि या संस्कृति सुरक्षित रखने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है।’’
यह भी कह दिया गया है कि किसी राजकीय या राजकीय सहायता से संचालित शिक्षण संस्था में प्रवेश के सम्बन्ध में मूलवंश, जाति, धर्म और भाषा या इनमें से किसी एक के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।
अनुच्छेद 30 के अनुसार भाषा पर आधरित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि की शैक्षणिक संस्थाओं की संस्थापना तथा उनके प्रशासन का अधिकार होगा। यह भी व्यवस्था की गई है कि शिक्षण संस्थाओं को अनुदान देने में राज्य इस आधार पर भेदभाव नहीं करेगा कि वे धर्म या भाषा पर आधारित किसी अल्पसंख्या वर्ग के अधीन हैं।
44वें संवैधानिक संशोधन द्वारा सम्पत्ति के मूल अधिकार को समाप्त करने का जो कार्य किया गया है उसके सम्बन्ध में यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इससे अल्पसंख्यकों को अपनी रूचि की शिक्षण संस्थाओं की स्थापना तथा इन शिक्षण संस्थाओं के प्रशासन के अधिकार पर कोई आघात नहीं पहुंचेगा।
6. संवैधानिक उपचारों का अधिकार:
अनुच्छेद 32 संविधान में मूल अधिकारों के उल्लेख से अधिकारों महत्वपूर्ण बात उन्हें क्रियान्वित करने की व्यवस्था है, जिसके बिना मूल अधिकार अर्थहीन सिद्ध होंगे।
संविधान निर्माताओं ने इस उद्देश्य से संवैधानिक उपचारों के अधिकार को भी संविधान स्थान दिया है, जिसका तात्पर्य यह है कि नागरिक अधिकारों को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों की शरण ले सकते हैं। इन न्यायालयों के द्वारा व्यवस्थापिका द्वारा निर्मित उन सभी कानूनों और कार्यपालिका के कार्यों को अवैधानिक घोषित कर दिया जाएगा जो मौलिक अधिकारों के विरूद्ध हों।
संवैधानिक उपचारों के अधिकारों की व्यवस्था के महत्व को दृष्टि में रखते हुए डा. अम्बेडकर ने कहा था, ‘‘यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन-सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्यप्राय हो जाएगा, तो इस अनुच्छेद; अनुच्छेद 32 को छोड़कर मैं और किसी अनुच्छेद की ओर संकेत नहीं कर सकता। यह तो संविधान का हृदय तथा आत्मा है।
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के द्वारा नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए निम्न पांच प्रकार के लेख जारी किए जा सकते हैं-
1. बन्दी प्रत्यक्षीकरण- व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए यह लेख सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है।
इसके द्वारा न्यायालय बन्दीकरण करने वाले अधिकारी को आदेश देता है कि वह बन्दी बनाए गए व्यक्ति को निश्चित समय और स्थान पर उपस्थिति करें, जिससे न्यायालय बन्दी बनाए जाने के कारणों पर विचार कर सके।
दोनों पक्षों की बात सुनकर न्यायालय इस बात का निर्णय करता है कि नजरबन्दी वैद्य या अवैध और यदि अवैध होती है तो न्यायालय बन्दी को फौरन मुक्त करने की आज्ञा दे देता है।
इस प्रकार अनुचित एवं गैर-कानूनी रूप से बन्दी बनाए गए व्यक्ति बन्दी प्रत्यक्षीकरण के लेख के आधर पर स्वतन्त्रता प्राप्त कर सकते हैं।
2. परमादेश – परमादेश का लेख उस समय जारी किया जाता है जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्तव्य का निर्वाह नहीं करता। इस प्रकार केआज्ञापत्र के आधार पर पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का आदेश जारी किया जाता है।
3. प्रतिषेध – यह आज्ञात पत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों द्वारा निम्न न्यायालयों तथा अर्थ-न्यायिक न्यायाधिकरणों को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहां कार्यवाही न करें, क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र के बाहर है।
4. उत्प्रेषण – यह आज्ञापत्र अधिकांशत किसी विवाद को निम्न न्यायालय से उच्च न्यायालय में भेजने के लिए जारी किया जाता है, जिससे वह अपनी शक्ति से अधिक अधिकारों का उपभोग न करे या अपनी शक्ति का दुरूपयोग करते हुए न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतो को भंग न करे।
इस आज्ञापत्र के आधार पर उच्च न्यायालय निम्न न्यायाधीशों से किन्ही विवादो के सम्बन्ध में सूचना भी प्राप्त कर सकते हैं।
5. अधिकार-पृच्छा- जब कोई व्यकित ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है, जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक रूप से अधिकार नहीं है तो न्यायालय अधिकार-पृच्छा के आदेश द्वारा उस व्यक्ति से पूछता है कि वह किस आधार पर इस पद पर कार्य कर रहा है और जब तक वह इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर नहीं देता, वह कार्य नहीं कर सकता।
व्यक्तियों के द्वारा साधरण परिस्थितियों में ही न्यायालयों की शरण लेकर अपने मौलिक अध्किारों की रक्षा की जा सकती है, लेकिन, युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह जैसी परिस्थितियों में जबकि राष्ट्रपति के द्वारा संकटकाल की घोषणा कर दी गई हो, मौलिक अधिकारों की रक्षा के लिए कोई व्यक्ति किसी न्यायालय से प्रार्थना नहीं कर सकेगा।
इस प्रकार संविधान के द्वारा संकटकाल में नागरिकों के मौलिक अधिकारों; जीवन और व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के अधिकार को छोड़कर को स्थगित करने की व्यवस्था की गई है।
मूल अधिकारों की आवश्यकता और महत्व
व्यक्ति और राज्य के आपसी सम्बन्धें की समस्या सदैव से ही बहुत अधिक जटिल रही है और वर्तमान समय की प्रजातन्त्रीय व्यवस्था में इस समस्या ने विशेष महत्व प्राप्त कर लिया है।
यदि एक ओर शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए नागरिकों के जीवन पर राज्य का नियन्त्रण आवश्यक है तो दूसरी ओर राज्य की शक्ति पर भी कुछ ऐसी सीमाएं लगा देना आवश्यक है जिससे राज्य मनमाने तरीके से आचरण करते हुए व्यक्तियों की स्वतन्त्रता और अधिकारों के विरूद्ध कार्य न कर सकें।
मूल अधिकार व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और अधिकारों के हित में राज्य की शक्ति पर प्रतिबन्ध लगाने के श्रेष्ठ उपाय हैं।
FAQ
मौलिक अधिकार किसे कहते हैं यह कितने प्रकार के होते हैं?
मौलिक अधिकारों का अर्थ | Meaning of Fundamental Rights. मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये मौलिक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य द्वारा हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता
मौलिक अधिकार कहाँ से लिया गया है?
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं के रूप में मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया था।
कौन सा मौलिक अधिकार सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है?
जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार स्वतंत्रता के सबसे महत्त्वपूर्ण अधिकारों में ‘जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार’ है। किसी भी नागरिक को कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया का पालन किये बिना उसके जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जा सकता।
मौलिक अधिकार की स्थापना कब हुई?
मौलिक अधिकार भारत में कब लागू हुआ? संविधान के तीसरे भाग के अनुच्छेद 12 से 35 तक में मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इसलिए जिस दिन से भारत का संविधान प्रभावी हुआ उसी दिन से उसके सारे अनुच्छेद भी प्रभावी हो गए (26 जनवरी 1950 से प्रभावी हुआ) । भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार कब और क्यों शामिल किए गए?
मौलिक अधिकार क्या है?
भारतीय संविधान के अंतर्गत भारतीय नागरिकों को शुरू में सात मौलिक अधिकारो की गारंटी प्रदान की गई थी जिनमें – समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के विरुद्ध अधिकार, धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक का अधिकार, संपत्ति का अधिकार तथा संवैधानिक उपचार का अधिकार।
मौलिक अधिकार कौन कौन से हैं?
मौलिक अधिकार (भाग- 1)
समता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
मौलिक अधिकार का अर्थ क्या है?
संविधान सभी नागरिकों को व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से कुछ बुनियादी स्वतंत्रताएँ प्रदान करता है । इन्हें संविधान में मौलिक अधिकारों की छह व्यापक श्रेणियों के रूप में गारंटी दी गई है, जो उचित हैं। संविधान के भाग III में निहित अनुच्छेद 12 से 35 मौलिक अधिकारों से संबंधित हैं।
भारत का पहला मौलिक अधिकार क्या है?
समानता का अधिकार जिसमें कानून के समक्ष समानता, धर्म, वंश, जाति लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध शामिल है, और रोजगार के संबंध में समान अवसर शामिल है।
मौलिक अधिकार की आवश्यकता क्यों है?
ये अधिकार व्यक्ति के प्रत्येक पक्ष के विकास हेतु मूल रूप में आवश्यक हैं, इनके अभाव में व्यक्ति के व्यक्तित्व का विकास अवरुद्द हो जायेगा। इन अधिकारों का उल्लंघन नही किया जा सकता। मौलिक अधिकार न्याय योग्य हैं तथा समाज के प्रत्येक व्यक्ति को समान रूप से प्राप्त होते है।
मौलिक अधिकार का जनक कौन है?
सरदार वल्लभभाई पटेल को भारत में मौलिक अधिकारों का जनक माना जाता है। मूल संविधान में मौलिक अधिकारों की सात श्रेणियां थीं।
कौन सा मौलिक अधिकार हटा दिया गया है?
संपत्ति के अधिकार को 1978 में 44वें संविधान संशोधन के साथ एक मौलिक अधिकार के रुप से हटा दिया गया था।
शिक्षा का अधिकार क्या है?
संविधान (छियासीवां संशोधन) अधिनियम, 2002 ने भारत के संविधान में अंत: स्थापित अनुच्छेद 21-क, ऐसे ढंग से जैसाकि राज्य कानून द्वारा निर्धारित करता है, मौलिक अधिकार के रूप में छह से चौदह वर्ष के आयु समूह में सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करता है।
बच्चों के मौलिक अधिकार क्या है?
6-14 साल की उम्र के सभी बच्चों को नि:शुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा का अधिकार है (धारा 21 ए)। 14 साल की उम्र तक सीमा बच्चों को किसी भी खरतनाक रोजगार/काम से सुरक्षा का अधिकार है (धारा 24)। उन्हें दुराचार से बचने और गरीबी के कारण अपनी उम्र या ताकत से ज्यादा बड़े काम करने की मजबूरी से बचने का अधिकार है (धारा 39 ई)।
मौलिक अधिकार कहाँ से लिया गया है?
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताओं के रूप में मौलिक अधिकार संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान से लिया गया था।