भारत में आर्थिक सुधारों (Bharat Mein Arthik Sudhar) को नीतिगत परिवर्तनों के रूप में परिभाषित किया जाता है जिनका उद्देश्य किसी देश की आर्थिक दक्षता में सुधार करना है।
आर्थिक सुधार (Bharat Mein Arthik Sudhar)
आर्थिक सुधार एक वृहद अर्थ वाला शब्द है। प्रायः इसका उपयोग अल्पतर सरकारी नियंत्रण, अल्पतर सरकारी निषेध, निजी कम्पनियों की अधिक भागीदारी, करों की अल्पतर दर आदि के संदर्भ में किया जाता है।
आर्थिक सुधारों का एक पक्ष आन्तरिक होता है और दूसरा बाह्य। आन्तरिक पक्ष में अर्थव्यवस्था को आन्तरिक रूप से सुदृढ़ किया जाता है। जैसे- कृषि उद्योग, परिवहन आदि का विकास किया जाता है।
बाह्य रूप में वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया जाता है। जिसके तहत विदेशी व्यापार, विदेशी पूंजी व विदेशी टेक्नोलाजी को बढ़ावा दिया जाता है।
आर्थिक सुधार के अंतर्गत उदारीकरण, निजीकरण व वैश्वीकरण से जुड़े विभिन्न कार्यक्रमों को अपनाया जाता है।
उदाहरण स्वरूप भारत ने 1991 में आर्थिक सुधरों हेतु एल.पी.जी. उदारीकरण, निजीकरण, वैश्वीकरण माडल को अपनाया।
भारत का आर्थिक संकट एवं आर्थिक सुधार
आजादी के बाद भारत ने पूजीवादी एवं समाजवादी दोनों अर्थव्यवस्थाओं की समीक्षा कर मिश्रित अर्थव्यवस्था की अभिनव संकल्पना को अपनाया।
इसके पीछे तीव्र विकास के साथ-साथ, लोक कल्याण, सामाजिक समानता की भावना तथा अन्य राजनीतिक तत्व विद्यमान थे।
आर्थिक संकट
1980 के दशक में भारतीय अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक समस्याएं उभरने लगीं, जब भारत के सकल घरेलू उत्पाद एवं राजकोषीय घाटा, मुद्रास्फीति तथा ऐसी ही अन्य समस्याओं का अनुपात बहुत अधिक बढ़ने लगा।
इस संकट के मुख्य पहलू थे-
1. राजकोषीय एवं राजस्व घाटे में तीव्र वृद्धि ।
2. भुगतान असंतुलन की गंभीर स्थिति।
3.विदेशी विनिमय कोष में भारी कमी।
4. विदेशी ऋण एवं विदेशी निवेश में कमी।
5. मुद्रास्फीति की उच्च दर। यह 1990-91 में 10 प्रतिशत से अधिक हो गई थी।
उपर्युक्त संकटों के चलते 1991 से आर्थिक सुधार की शुरूआत हुई।
आर्थिक संकट के कारक
1990-91 का आर्थिक संकट अनेक आंतरिक तथा बाह्य कारकों का परिणाम था जो लंबे समय से भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे थे –
1. 1962 में चीनी आक्रमण एवं 1965 एवं 1971 में पाकिस्तान से युद्ध ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया।
2. प्रारंभिक राजनीतिक स्थिरता के कारण ही विभिन्न योजनाओं में लक्ष्य से अधिक की प्राप्ति र्हुइ थी परंतु 1977 के बाद राजनीतिक अस्थिरता का दौर शुरू हुआ। जिसका कारण नीतिगत निर्णय लेने में विलंब होने लगा और विदेशी निवेशकों का विश्वास भी घटने लगा।
3. 1970 के दशक तक भारत में राजस्व प्राप्ति लक्ष्य से अधिक होती रही, किंतु 1985-90 की अवधि में जीडीपी का 2.6 प्रतिशत घाटा हुआ। इस घाटे की पूर्ति उपभोक्ता उत्पादों पर खर्च घटाकर की गई, जिससे देश का राजकोष खाली होता गया और देश आर्थि क रूप से दिवालिया होता गया।
4. 1990 में खाड़ी युद्ध के चलते खनिज तेल की आपूर्ति घट गई, जिससे देश का औद्योगिक तथा परिवहन ढांचा प्रभावित हुआ। खाड़ी क्षेत्र में फंसे भारतीयों को भी वहां से निकालना पड़ा जिससे विदेशी प्रेक्षणो का एक बड़ा स्रोत सूख गया।
5. सोवियत संघ 1990 तक भारत का दूसरा बड़ा व्यापारिक साझेदार था। उसके पतन से भारत का विदेश व्यापार काफी घटा।
6. देश भुगतान संतुलन की समस्या से भी उस समय जूझ रहा था। 1989 में भारत का भुगतान-असंतुलन काफी बढ़ गया, अंतर्राष्ट्रीय क्रेडिट एजेंसी ने भारत की रेंटिंग घटा दी। इससे भारत को अंतर्राष्ट्रीय बाजारों से ऋण मिलना कठिन हो गया।
7. भारतीय विदेशी मुद्रा कोष का बड़ा हिस्सा अनिवासी भारतीयों द्वारा भेजे गए प्रेक्षणों का है। भुगतान असंतुलन की इतनी समस्या के कारण जब भारत को विदेशों से कर्ज मिलना कठिन हो गया तो इसी समय अनिवासी भारतीयों ने देश में अपना धन निकालना शुरू कर दिया।
उपर्युक्त कारकों का सम्मिलित परिणाम था 1990-91 का मुद्रा संकट, जिसके कारण भारत पहली बार अपने ऋण -उत्तरदायित्वों को न निभा पाने के कगार पर पहुंच गया।
देश का विदेशी विनिमय कोष इतना घट गया था कि उससे केवल एक दो सप्ताह का ही आयात किया जा सकता था।
संकट के बाद प्रतिक्रिया
मुद्रा संकट के कारण भारत को सहायता हेतु विदेशी मुद्रा वित्तीय संस्थानों ;अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष तथा विश्व बैंक के पास जाना पड़ा। उन्होंने सशर्त सहायता उपलब्ध करायी।
परिणाम स्वरूप भारत में 1991 से आर्थिक सुधार कार्यक्रम शुरू किए गए। ये सुधार विश्व बैंक एवं अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की शर्तों के अनुरूप थे।
संकट से निपटने के लिए सरकार ने दो बिंदुओं पर ध्यान दिया-
अर्थव्यवस्था को स्थायित्व प्रदान करना तथा बाजार संरचना में परिवर्तन।
भारत में आर्थिक सुधार (Bharat Mein Arthik Sudhar)
023 जुलाई, 1991 को भारत ने राजकोषीय और भुगतान शेष बीओपी संकट के लिए प्रतिक्रिया के रूप में आर्थिक सुधरों की प्रक्रिया प्रारंभ की।
सुधार ऐतिहासिक थे और इससे आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था की तस्वीर और प्रकृति बदलने वाली थी।
सुधार और सम्बंधित कार्यक्रम अभी भी परिवर्तन पर बल देते हुए जारी है, परंतु मई 2004 में यूपीए सरकार की वापसी के साथ इन्हें धीमा पाया गया है।
इससे पूर्व 1980 के दशक में ही उदारवादी नीतियों की घोषणा कर दी गई थी, जिसमें आर्थिक सुधारों का नारा दिया गया था, इसे पूर्ण वेग के साथ 1990 दशक के प्रारंभ में ही लागू किया जा सका।
परंतु भुगतान शेष संकट इससे भी गहरा था, जिसमें विदेशी ऋण बढ़ा, जोकि जीडीपी के 8 प्रतिशत से अधिक राजकोषीय घाटे के बराबर था और यह लगभग हाइपर-मुद्रास्फीति ;13 प्रतिशत से अधिक की स्थिति थी।
भारत के आर्थिक सुधार (Bharat Mein Arthik Sudhar) की प्रवृत्ति
1980 के दशक से कुछ अन्य अर्थव्यवस्थाओं द्वारा प्रारंभ समान आर्थिक सुधर, सम्बंधित देशों के स्वैच्छिक निर्णय थे। परंतु भारत के मामले मे बीओपी संकट के आलोक में सरकार द्वारा लिया गया यह गैर-स्वैच्छिक निर्णय था।
आईएमएफ के ईएफएफ कार्यक्रम के अंतर्गत देशों को अपने बीओपी संकट के शमन हेतु बाह्य मुद्रा सहायता मिलती है, परंतु ऐसी सहायता अर्थव्यवस्था पर कुछ दायित्व शर्तों के साथ मिलती है।
आईएमएफ के इस संबंध् मे कोई निर्धरित नियम नहीं है, यद्यपि इन्हें आवश्यकता के समय बीओपी संकट में चल रही अर्थव्यवस्था के लिए तैयार और विहित किया जाता है,
यहां यह उल्लेख करना होगा कि भारत पर लगाई गई शर्तों की प्रकृति के अनुसार सभी आर्थिक सुधारों को उनके द्वारा तैयार किया जाना था। इसका अर्थ है भारत द्वारा तैयार नहीं किए गए हैं।
आर्थिक सुधारों के उद्देश्य
आर्थिक नीति का मुख्य उद्देश्य देश मे आर्थिक विकास की दर में वृदधि करना है। इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु आर्थिक नीति के अन्य उद्देश्य निम्नलिखित हैं
1. आर्थिक विकास एवं दर में वृदधि करना।
2. नियोजित विकास एवं प्रक्रिया पर बल देना।
3. देश में आर्थिक संकेन्द्रण को कम करना।
4. आर्थिक दृष्टि से कमजोर एवं पिछड़े लोगों की प्रगति पर ध्यान देना।
5. देश के औद्योगिक विकास की गति को तेज करना।
6. तेजी से कृषि विकास करना।
7. देश में आर्थिक स्थिरता बनाये रखना।
8. देश के नागरिकों का अधिकतम सामाजिक कल्याण करना।
9. देश के नागरिकों को वैध कार्य करने की छूट देना।
10. आधारभूत सुविधाओं का विकास।
11. विनिमय दर में स्थायित्व लाना।
आर्थिक सुधारों की युक्तियां
भारत के आर्थिक सुधारों में दो प्रकार की युक्तियां शामिल हैं
1. समष्टि अर्थशास्त्रीय स्थिरीकरण युक्तिया इन उपायों द्वारा अर्थव्यवस्था की सकल मांग को बढ़ाने की काशिश लोगों की क्रय शक्ति में वृदधि करके।
2. संरचनात्मक सुधार युक्तियाः इन उपाया के अंतर्गत अर्थव्यवस्था में सकल आपूर्ति को बढ़ाने का उद्देश्य निहित था- उत्पादन प्रक्रिया को उन्मुक्त करके। इससे स्वतः ही अर्थ व्यवस्था प्रभावी होगी ताकि यह संवर्धित उत्पादकता और उत्पादन की अपनी क्षमता की तलाश कर सके।
लोगो की खरीद क्षमता को बढ़ाने के लिए अर्थ व्यवस्था की बढ़ी र्हुइ आय की आवश्यकता है, जो कार्यकलापों के बढ़े हुए स्तरों से आती है। इस प्रकार प्राप्त आय को लोगों में वितरित किया जाता है। जिनकी क्रय शक्ति बढ जाती है।
आर्थिक सुधारों की पीढ़ियां
यद्यपि जब भारत ने 1991 में आर्थिक सुधारों को प्रारंभ किया तो ऐसी कोई घोषणा या प्रस्ताव नहीं थी, तथापि आने वाले बर्षो में सरकारो द्वारा सुधारों की कई पीढ़ियों की घोषणा की गई।
अब तक सुधारों की तीन पीढ़ियों की घोषणा की जा चुकी है, जबकि विशेषज्ञ चैथी पीढ़ी की भी घोषणा करते हैं। हम निम्नानुसार भारत में सुधार प्रक्रिया की मूल पढति और लक्षणो को समझने के लिए विभिन्न सुधरों की पीढ़ियों के संघटकों को बता रहे हैं
1. प्रथम पीढ़ी सुधार
प्रथम पीढ़ी के सुधारों के प्रमुख नियामक नीचे दिए गए हैं
1. निजी क्षेत्र का प्रोत्साहन: इसके अंतर्गत कई महत्वपूर्ण एवं उदारीकृत कदम उठाये गए यथा- ‘अनारक्षण’, लाइसेंस मुक्तीकरण, एम.आर.टी.पी. सीमा की समाप्ति, चरणबद्ध उत्पादन की बाध्यता की अपर्याप्तता, ऋणों का शेयरों में परिवर्तन तथा पर्यावरण संबंधी प्रावधनों का सरलीकरण।
2. सार्वजनिक क्षेत्र सुधार: इसके अंतर्गत सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों से जुड़े कई सुधार किए गए, यथा इन्हें लाभोन्मुख एवं दक्ष बनाना, विनिवेश; टोकन की शुरूआत इनका संगठनीकरण इत्यादि।
3. वैदेशिक क्षेत्र में सुधार: इस क्षेत्र में कई सुधर संबंधी कदम उठाये गये, जैसे आयात पर से मात्रात्मक प्रतिबंधों की समाप्ति, विनिमय दर की उत्प्लावित मुद्रा व्यवस्था की शुरूआत, चालू खाते में रूपये को पूर्ण परिवर्तनीयता देना, पूंजीगत खाते में रूपये की परिवर्तनीयता संबंधी उदारीकरण, विदेशी निवेश की मंजूरी एवं ‘फेरा’ की जगह ‘फेमा’ की व्यवस्था करना, इत्यादि।
4. वित्तीय क्षेत्र सुधार बैंकिंग क्षेत्र, पूंजी बाजार, बीमा उद्योग, म्युचुअल फंड इत्यादि से संबंद्ध अन्यान्य सुधरवादी कदम उठाये गए।
5. कर सुधार इसके अंतर्गत कई नीतिगत पहलों की शुरूआत की गयी जिनका लक्ष्य था कर प्रणाली का सुगमीकरण, आधार विस्तार, आधुनिकीकरण एवं करों की चोरी पर नियंत्रण इत्यादि।
2. द्वितीय पीढ़ी सुधार
इस पीढ़ी के सुधारों के मुख्य घटक निम्न प्रकार हैं
i.कारक बाजार सुधार: इसे भारत के आर्थिक सुधारों की सफलता का ‘मेरूदंड’ कहा जाता है। इसके अंतर्गत प्रशासित मूल्य व्यवस्था। को विघटित करने का लक्ष्य है।
अर्थव्यवस्था में ऐसे कई उत्पाद थे जिनका उत्पादन निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता था लेकिन इन उत्पादों का मूल्य निर्धारण बाजार के सिद्धंतों के आधर पर नहीं होता था, यथा-पेट्रोलियम, चीनी, उर्वरक, औषधियाँ , इत्यादि। इन उत्पादों का बिक्री मूल्य सरकार तय करती थी।
फलस्वरूप संबंधित निजी उद्योग के लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था एवं उनका विस्तार बाधित होता था। निजी क्षेत्र के निवेश को इन उद्योगों की तरफ आकर्षित करना मुश्किल हो रहा था।
वर्तमान मे पेट्रोलियम क्षेत्र में सिर्फ कैरोसीन तेल एवं रसोई घरों में इस्तेमाल किए जाने वाले सिलेंडर ही प्रशासित मूल्य पद्धति के अंतर्गत हैं जबकि पेट्रोल, डीजल स्नेहक एवं उड्डयन ईंधन इससे बाहर आ चुके हैं।
इसी प्रकार आयकर अदा करने वाले परिवारों एवं निजी चीनी मीलों पर से ‘लेवी’ की बाध्यता को भी पूरी तरह समाप्त कर दिया गया है।
ii. सार्वजनिक क्षेत्र सुधार: द्वितीय पीढ़ी के सार्वजनिक क्षेत्र सुधारों का मुख्य बल कई दूसरे प्रकार के पहलूओं पर है इन्हें बढ़ी हुई प्रकार्यात्मक स्वयत्तता देना, पूंजी बाजार के उपयोग की अध्कि स्वतंत्रता, नये वेंचर एवं विनिवेश; रणनीतिक को बढ़ावा इत्यादि।
iii. सरकार एवं लोक संस्थानों मे सुधार रूइसके अंतर्गत ऐसे कदम आते हैं जिनसे कि सरकार की भूमिका को ‘नियंत्रक’ से बदलकर ‘सुसाध्य परक’ बना सके जिसे प्रशासनिक सुधर की तरह भी देखा जा सकता है।
iv. वैधानिक क्षेत्र सुधार – वैधनिक क्षेत्र सुधरों की शुरूआत प्रथम पीढ़ी में ही की जा चुकी थी लेकिन इस पीढ़ी मे इन सुधरों को गहराई देना तय था तथा नये क्षेत्रों में ले जाने की कोशिश थी।
विरोधाभासी कानूनों को निरस्त करना, इंडियन पेनल कोड एवं कोड आफ क्रिमीनल प्रोसीजर में सुधर, कंपनी कानून एवं श्रम कानून में सुधार तथा ‘साईबर कानून’ जैसे नये क्षेत्रों से कानून बनाना।
v. क्रांतिक क्षेत्र सुधार: द्वितीय पीढ़ी के सुधरों की शुरूआत की गयी। आधरभूत संरचना क्षेत्र; यथा बिजली, सड़क, दूरसंचार के क्षेत्र में तो इसके अच्छे प्रभाव दिखे हैं कृषि एवं कृषि अनुसंधान शिक्षा एवं चिकित्सा क्षेत्र, इत्यादि। इन क्षेत्रों में किए जाने वाले सुधरों को सरकार ने ‘क्रांतिक क्षेत्र’ कहा है।
इन सुधरों के दो आयाम हैं। पहला आयाम ‘कारक बाजार सुधार’ की तरह है जिसके अंतर्गत इन्हें बाजार से जोड़ना लक्ष्य है वहीं दूसरा आयाम विस्तृत है, यथा संगठित कृषि, शिक्षा एवं चिकित्सा तथा सड़क क्षेत्रों में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाना।
3. तृतीय पीढ़ी सुधार
आर्थिक सुधारों की तृतीय पीढ़ी का प्रारंभ सरकार द्वारा दसवीं पंचवर्षीय योजना के कार्यान्वयन 2002 के साथ किया गया। इसका उद्देश्य है, आर्थिक विकास तथा आर्थिक सुधरों के लाभ का विकेंद्रीकरण ताकि इसमें जन-मानस को शामिल किया जा सके। इसके लिए पंचायत राज संस्थानों के सफल कार्यान्वयन पर बल दिया जा रहा है।
एक विकेंद्रीकृत विकास की प्रक्रिया के लिए संवैधनिक व्यवस्था पहले से ही 1990 के दशक में की गई है। यह सरकार ‘समावेशी विकास’ की जरूरत के प्रति आश्वस्त हो जाता है जो कि 2000 के दशक में किया गया था।
आम जनता के विकास की प्रक्रिया में शामिल नहीं कर रहे हैं जब तक, विकास ‘शामिल किए जाने के’ फैक्टर की कमी होगी, उस समय की सरकार द्वारा निष्कर्ष निकाला गया था।
ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना भारत में सुधरों की तीसरी पीढ़ी के लिए जरूरत के बारे में एक ही भावनाओं; केंद्र में राजनीतिक संयोजन बदल गया है, हालाकि और विचार की पुष्टि करने के लिए चला जाता है।
4. चैथी पीढ़ी सुधर
भारतीय आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया से जुड़ी यह गैर-आधिकारिक अवधरणा है। वर्ष 2002 में ही विशेषज्ञों ने इस पीढ़ी के सुधारों की चर्चा की। यह पीढ़ी उन सुधारों की संकल्पना करती है, जिसमें भारतीय अर्थव्यवस्था पूर्णरूपेण सूचना तकनीक पर आधारित होगी।
सुधार पीढ़ियों का मूल्यांकन
भारत में आर्थिक सुधारों की विभिन्न पीढ़ियों को पूर्ण की समाप्ति अनुपूरक और सुधारों की अगली पीढ़ी के प्रारंभ के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। वस्तुतः वर्तमान में सभी पीढ़ियां एक साथ चल रही है, ताकि अर्थव्यवस्था में सुधारों के लक्ष्य को वस्तुनिष्ठ किया जा सके।
भारत में सुधार की विभिन्न पीढ़ियां यह भी पुष्ट करती हैं कि सुधार एक सतत प्रक्रिया है, जिसे बदलती परिस्थितियों के साथ बदलने की आवश्यकता होती है। सुधार अर्थव्यवस्था का लक्ष्य नहीं है बल्कि अर्थव्यवस्था का सुधार लक्ष्य है। सुधार साक्ष्य का एक साधन है।
आर्थिक सुधारों के प्रभाव
1991 मे शुरू हुए सुधारों के दौरान देश के संपूर्ण आर्थिक वातावरण मे परिवर्तन के साथ-साथ अर्थव्यवस्था संरचनात्मक परिवर्तनों से गुजरी है। आर्थिक सुधारों द्वारा अग्रांकित समष्टि संकेतकों पर प्रभाव पड़ा है –
1. सकल घरेलू उत्पादः वित्तीय वर्ष 1991-92 को यदि असामान्य वर्ष माना जाय तो 1992-93 से 1999-2000 के बीच सकल घरेलु वृद्धि दर औसतन 5 प्रतिशत रही।
2. आद्योगिक क्षेत्र सुधार के आरंभिक वर्षों में उद्योगों पर विपरीत प्रभाव देखने को मिला एवं 1990-91 में 8.3 प्रतिशत उच्च वृद्धि दर के बाद औद्योगिक क्षेत्र की वृदधिदर वर्ष 1991-92 में घटकर 0.6 प्रतिशत रह गई।
3. राजकोषीय घाटाः आर्थिक सुधारों के तहत राजकोषीय घाटे को कम करने पर विशेष बल दिया गया। वर्ष 1990-91 में राजकोषीय घाटा 8 से 9 प्रतिशत के करीब था। सुधारोपरांत 1992-99 के बीच यह औसतन जीडीपी का 5.7 प्रतिशत रहा। वर्ष 2000-01 में राजकोषीय घाटा 5.5 प्रतिशत रहा।
4. विदेशी व्यापारः विदेशी व्यापार एवं भुगतान संतुलन की दिशा में प्रगति र्हुइ है। 1990-91 में कुल व्यापार; आयात निर्यात जहां 14.1 प्रतिशत था वहीं 1998-99 में यह बढ़कर 18.2 प्रतिशत हो गया।
भुगतान संतुलन की स्थिति में सुधार हुआ है। 1991 में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जहां एक दो सप्ताह के आयात के बराबर था वहीं सुधारोपरांत यह औसतन 6-8 प्रतिशत के आयातों के बराबर रहा।
आर्थिक सुधार का मूल्यांकन
भारत में आर्थिक सुधारों का प्रारम्भ 1985 से राजीव गांधी के कार्यकाल से ही प्रारंभ हो गया था जिसे एक रणनीति का रूप 1991 में नरसिंह राव एवं मनमोहन सिंह ने प्रदान किया।
अतः 1991-96 तक जो आर्थिक सुधार का व्यापक दौर जिसमें संरचनात्मक समायोजक कार्यक्रमों; औद्योगिक सुधार, वित्तीय सुधार, राजकोषीय सुधार, विदेशी व्यापार या राजनीतिक सुधार को शामिल किया गया प्रथम पीढ़ी के आर्थिक सुधार कहे गये।
जबकि 1996 से अबतक के सुधार जिसमें विस्तारीकरण उपाय प्रथम पीढ़ी के आर्थिक सुधार के आलावा, कृषि सुधार, बुनियादी ढ़ांचागत पीढ़ी के आर्थिक सुधार, बुनियादी ढांचागत सुधार, श्रम सुधार को शामिल किया जाता है।
द्वितीय पीढ़ी के सुधरों में जो समावेशी विकास का लक्ष्य निर्धारित किया इसकी झलक भी आठवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान अपनाये गये मानव संसाधन विकास में मिलता है।
समग्र गरीबी अनुपात 1993-94 में जो 36% था 2004-05 में कम होकर 27.5% तेन्दुलकर समिति के अनुसार 37.2% था वह 2009-10 में 29.8% हो गया तथा 68वें दौर के अनुसार तेन्दुलकर फार्मूले पर आधारित गरीबी 21.9% हो गयी।
आर्थिक सुधारों के बाद संगठित क्षेत्रा में रोजगार की वृदधि दर ऋणात्मक रही है। अतः 1993-2004 की अवधि में स्थिति राजगारविहीन विकास रही थी। यद्यपि 2004-09 में निजी संगठित क्षेत्र में राजगार वृदधि 3.58% रही।
हालांकि 66वें दौर के अनुसार बेरोजगारी घटकर 6.6% हो गयी किन्तु यह कमी राजगार सृजन के कारण न होकर श्रमशक्ति में कम वृदधि के कारण थी। अतः आवश्यकता रोजगार जनन वाले क्षेत्रों; कृषि छोटे एवं माध्यम उद्यमों, खुदरा व्यापार, खाद्य प्रसंस्करण, स्वास्थ्य शिक्षा और सूचना तकनीकी के विकास की है।
बेरोजगारी दर श्रमबल में 1000 व्यक्तियों में बेरोजगारों की संख्या सामान्य स्थिति के अनुसार पीएस एसएस ग्रामीण क्षेत्र में 16 एवं शहरी क्षेत्रो में 34 था । यह शहरी मिहलाओं में 57 एवं शहरी पुरषों में 28 और ग्रामीण क्षेत्रो में पुरुषो एवं मिहिलाओं दोनों में 16 था ।
चालू दैनिक स्थिति; सीडीएस के अनुसार बेरोजगारी दर, सामान्य स्थिति एवं साप्ताहिक स्थिति के अनुसार प्राप्त दरो से अधिक है। चालू साप्ताहिक स्थिति; सीडब्ल्यूएस के अनुसार बेरोजगारी का दर ग्रामीण क्षेत्र में 33 एवं शहरी क्षेत्र में 42 था । चालू दैनिक स्थिति; सीडीएस के अनुसार ग्रामीण क्षेत्र में 68 और शहरी क्षेत्रों में 58 था ।
2004-05 और 2009-10 की अवधि के दौरान सामान्य स्थिति पीएस, एसएस में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रें के पुरुषों के लिए एक समान रहा, एवं शहरी पुरुषा के लिए 1 प्रतिशत कमी हुयी। ग्रामीण महिलाओ के लिए भी यह वैसा ही रहा, जबकि शहरी महिलाओ के लिए 1 प्रतिशत बिंदु की कमी हुयी।
शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में 15 वर्ष या उससे अधिक के शिक्षित माध्यमिक एवं उससे अधिक व्यक्तियों में बेरोजगारी दर, जिनका शैक्षिक स्तर माध्यमिक स्तर से कम था, से अधिक था।
सामान्य स्थिति ;पीएस, एसएस के लिए शिक्षित में बेरोजगारी दर, ग्रामीण एवं शहरी प्रत्येक के लिए पुरुषों एवं का प्रतिशत 4 था जबिक ग्रामीण और शहरी महिला में प्रत्येक के लिए यह 12 प्रतिशत था। युवाओं 15-29 में बेरोजगारी दर पूरे जनसंख्या की तुलना में बहुत अधिक था।
सामान्य स्थिति ;पीएस,एसएस के अनुसार युवाओं में बेरोजगारी दर ग्रामीण क्षेत्रों के पुरुषों एवं महिलाओं प्रत्येक के लिए 5 प्रतिशत था। जबिक शहरी पुरुष के लिए 8 प्रतिशत और शहरी महिलाओं के लिए 14 प्रतिशत था।
शिक्षित युवकों;15-29 वर्ष आयु के और शैक्षणिक स्तर-माध्यमिक एवं उससे अधिक में बेरोजगारी दर शहरी एवं ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अपेक्षा अधिक था।
सामान्य स्थिति पीएस एसएस के अनुसार दरें ग्रामीण पुरुषों के लिए 8 प्रतिशत, ग्रामीण महिलाओं के लिए 18 प्रतिशत, शहरी पुरुषों के लिए 10 प्रतिशत एवं शहरी महिलाओं के लिए 23 प्रतिशत था।
सुधारों के बाद की समयावधि में क्षेत्रीय असमानताओं में भी वृदधि हुयी। सामाजिक संरचना और मानवीय विकास के संदर्भ में भारत को अभी बहुत अधिक कार्य करना है।
सुधारों के बाद की अवधि में यह बात लगभग स्वीकार कर ली गयी है कि विकास सम्बन्धित लक्ष्यों को पाना अत्यन्त कठिन होगा क्योंकि निजी क्षेत्र केवल लाभ के लिए कार्य करता है। सुधारों के बाद की अवधि में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका कम हो रही है।
आर्थिक सुधार वर्तमान प्रयास
1. अटल बिहारी वाजपेयी प्रशासन ने जारी सुधारों से सबको अचंभित कर दिया जब यह छह साल के लिए भारत के मामलों की पतवार पर था, 1998-99 व 1999-2004 तक।
2. भाजपा के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने होटल, वीएसएनएल मारुति सुजुकी और हवाई अड्डों सहित सरकारी स्वामित्व वाले व्यवसाय का निजीकरण करना शुरू कर दिया और करों में कमी शुरू की, एक समग्र राजकोषीय नीति जिसका उद्देश्य घाटे और ऋणों को कम करना और सार्वजनिक कार्यों के लिए पहल बढ़ाना है।
3. संयुक्त मोर्चा सरकार एक प्रगतिशील बजट है कि सुधारों को प्रोत्साहित करने का प्रयास किया गया लेकिन 1997 के एशियाई वित्तीय संकट और राजनीतिक अस्थिरता पैदा की आर्थिक स्थिरता ने।
4. 2011 के अंत में, कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए -2 गठबंधन सरकार ने खुदरा क्षेत्र में 51% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की शुरुआत की। लेकिन साथी गठबंधन दलों और विपक्ष के दबाव के कारण, निर्णय वापस ले लिया गया था हालांकि, दिसंबर 2012 में इसे मंजूरी दे दी गई।
5. 2015 के शुरुआती महीनों में, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने 49% एफर्डीआइ की अनुमति देकर बीमा क्षेत्र को आगे बढ़ाया।
6. भाजपा की अगुर्वाइ वाली दूसरी राजग सरकार ने भी कायला खदानों; विशेष प्रावधान 2015 के विधेयक के माध्यम से कोयला उद्योग को खाला। इसने कोयले के खनन पर भारतीय केंद्र सरकार के एकाधिकार को प्रभावी ढंग से समाप्त कर दिया, जो 1973 में समाजवाद के राष्ट्रीयकरण के बाद से अस्तित्व में था।
इसने क्षेत्रा में निजी, विदेशी निवेश के लिए रास्ता खोल दिया है, क्याकि विदेशी कंपनियो के भारतीय हथियार कोयला ब्लाक और लाइसेंस के साथ-साथ कोयले के वाणिज्यिक खनन के लिए बोली लगाने के हकदार हैं। इससे घरेलू और विदेशी खनिकों द्वारा अरबों डालर का निवेश किया जा सकता है।
7. संसद के 2016 के बजट सत्र में, नरेंद्र मोदी ने भाजपा सरकार को दिवाला और दिवालियापन संहिता के माध्यम से आगे बढ़ाया। संहिता कंपनियों और व्यक्तियों के दिवाला समाधान के लिए समयबद्ध प्रक्रियाएं बनाती है। इन प्रक्रियाओं को 180 दिनों के भीतर पूरा किया जाएगा।
यदि दिवालियापन की समस्या को हल नहीं किया जा सकता है, तो उधारकर्ताओं की संपत्ति को लेनदारों को चुकाने के लिए बेचा जा सकता है।
यह कानून विशेषज्ञा के अनुसार, व्यापार करने की प्रक्रिया को कापफी आसान कर देता है, और माना जाता है कि जीएसटी के बाद 1991 के बाद से भारत में दूसरा सबसे महत्वपूर्ण सुधार है।
8. 1 जुलाई, 2017 को, नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने अधिनियम को वस्तु और सेवा कर भारत के लिए मंजूरी दे दी । 2000 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रशासन के तहत भाजपा की अगुर्वाइ वाली एनडीए सरकार के पहले कानून के प्रस्ताव के 17 साल बाद इसे मंजूरी दी गई थी।
आजादी के 70 वर्षों में भारत का सबसे बड़ा कर सुधार और इसे सबसे महत्वपूर्ण समग्र सुधार माना गया 1991 के बाद से व्यापार करने में आसानी।
GST ने अप्रत्यक्ष करों की एक एकीकृत कर संरचना की जगह ले ली और इसलिए इसे नाटकीय रूप से देश की 2.5 ट्रिलियन डालर की अर्थ व्यवस्था के रूप में प्रदर्शित किया गया।
FAQ
भारत में नई आर्थिक सुधार की शुरुआत कब हुई?
भारत में आर्थिक सुधारों से तात्पर्य भारतीय अर्थव्यवस्था को संकट से उबारने के लिये 1991 में अपनाई गई नीतियों से है।
भारत में आर्थिक सुधारों की शुरुआत के क्या कारण थे?
सरकारी राजस्व से अधिक सरकारी व्यय ने भारी उधारी को जन्म दिया। 1991 में राष्ट्रीय ऋण सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 60% था। सरकार ब्याज तक देने में असमर्थ थी।
आर्थिक सुधारों की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
भारत में आर्थिक सुधारों का मतलब उन नीतियों से है जिनका आरम्भ 1991 में किया गया है । ये सुधार उदारीकरण, निजीकरण तथा वैश्वीकरण की नीतियों पर आधारित है। अत: इन्हें LPG नीति भी कहते हैं।
भारतीय आर्थिक सुधार के जनक कौन है?
पीवी नरसिम्हा राव को ‘भारतीय अर्थशास्त्र सुधारों के जनक’ के रूप में जाना जाता है। उन्होंने 1991 से 1996 तक भारत के 10 वें प्रधानमंत्री के रूप में कार्य किया।
भारत में आर्थिक सुधार 1991 के समय प्रधानमंत्री कौन थे?
आर्थिक सुधार 1991 में तत्कालीन प्रधान मंत्री नरसिम्हा राव थे।
भारत में सुधार क्यों शुरू किए गए हैं?
आर्थिक संकट से निपटने के लिए भारत में वर्ष 1991 में आर्थिक सुधार लागू किये गये। 1991 का आर्थिक संकट पिछले वर्षों में नीतिगत विफलता का चरम परिणाम था।
भारत में आर्थिक सुधारों के मुख्य उद्देश्य क्या हैं?
आर्थिक सुधार का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था या आय को अधिक प्रतिस्पर्धी बनाना है।
भारत की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार क्या है?
कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है
भारत में सुधार कौन लाया?
नरसिम्हा राव सरकार
वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था कितनी है?
भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) 3.75 ट्रिलियन डॉलर के आंकड़े पर पहुंच गया है।
भारत अर्थव्यवस्था कितने नंबर पर है?
भारत जीडीपी के मामले में दुनिया की पांचवी बड़ी अर्थव्यवस्था है।
भारत का सोना गिरवी कब रखा गया था?
साल 1991 में ।
भारत में नंबर 1 अर्थशास्त्री कौन है?
अमर्त्य सेन कल्याणकारी अर्थशास्त्र में अपने महत्वपूर्ण योगदान के लिए प्रसिद्ध हैं।
1947 में भारत की जीडीपी कितनी थी?
आजादी के वक्त देश का जीडीपी मात्र 2.7 लाख करोड़
जीडीपी का पूरा नाम क्या था?
जीडीपी (GDP) की पूरा नाम सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product) है।
जीडीपी का जनक कौन है?
भारत में, GDP की प्रथम बार गणना दादाभाई नौरोजी द्वारा, 1876 में की गई थी।