आर्थिक संवृद्धि एवं आर्थिक विकास | Economic Growth And Economic Development

आर्थिक संवृद्धि (Economic Growth) से हमारा अभिप्राय सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि से है, जबकि आर्थिक विकास (Economic Development) एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक लंबी कालावधि में वास्तविक प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि की अवधारणा अंतर्निहित होती है। आर्थिक विकास एक गुणात्मक शब्द है, जबकि आर्थिक संवृद्धि एक परिमाणात्मक शब्द है।

Table of Contents

आर्थिक संवृद्धि

आर्थिक संवृद्धि को हम एक ऐसी वृद्धि के रूप में परिभाषित कर सकते हैं जो अत्यन्त नीचे जीवन स्तर में फंसी हुई किसी अल्पविकसित अर्थव्यवस्था को अल्पावधि में ही उचे जीवन स्तर पर पहुंचा सके। जो देश पहले से ही विकसित हैं उनमें इसका अर्थ होगा विद्यमान संवृद्धि दरों को बनाये रखना।

आर्थिक संवृद्धि सूचक

सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि कुछ अर्थशास्त्रियों के अनुसार आर्थिक संवृद्धि एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा किसी अर्थव्यवस्था का सकल घरेलू उत्पादन लगातार दीर्घकाल तक बढ़ता रहता है।

इस संदर्भ में सकल राष्ट्रीय उत्पाद और सकल घरेलू उत्पाद में अन्तर का ध्यान रखना जरूरी है। ऐसा हो सकता है कि किसी देश के नागरिक अन्य देशों में भारी निवेश करें।

इससे सकल राष्ट्रीय उत्पाद तो बढ़ जायेगा परन्तु अर्थव्यवस्था पर उसका कोई प्रभाव नहीं होगा। इसलिये सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि लगातार काफी लम्बे समय तक होती रहनी चाहिये। केवल कुछ समय के लिये वृद्धि; जैसे व्यापार-चक्र के समृद्ध काल में होती है संवृद्धि नहीं कहलायेगी।

प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि बहुत से अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक संवृद्धि को प्रति-व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि के रूप में परिभाषित किया है परन्तु आर्थिक गतिविधि एक जटिल प्रक्रिया है और उसे केवल प्रति व्यक्ति उत्पाद तक सीमित करना उचित नहीं है। आर्थिक संवृद्धि के दौरान बहुत से परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों की दिशायें काफी अलग-अलग हो सकती हैं।

उदाहरण के लिये, हो सकता है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद तो बढ़ रहा हो परन्तु प्रति व्यक्ति उत्पादन में कमी हो रही हो या फर प्रति श्रमिक उत्पादकता तो बढ़ रही हो परन्तु प्रति व्यक्ति उपभोग कम हो रहा हो। इसलिये आर्थिक संवृद्धि के सूचक के रूप में किसी एक चर राशि का चुनाव करते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी आवश्यक है।

कुछ अर्थशास्त्रियों ने आर्थिक संवृद्धि के विचार को संपत्ति और आय के न्यायपूर्ण वितरण से जोड़ने की कोशिश की है। उनके अनुसार यद्यपि प्रति व्यक्ति उत्पाद में वृद्धि आर्थिक संवृद्धि का महत्वपूर्ण सूचक है।

 तथापि केवल उस पर ही निर्भर रहना उपयुक्त नहीं है जब तक कि राष्ट्रीय आय और संपत्ति की विद्यमान असमानताओं को कम नहीं किया जाता।

आर्थिक संवृद्धि की विशेषताएं

आथिर्क संवृद्धि राष्ट्रीय आय या प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि को बताता है।

आथिर्क संवृद्धि सतत् प्रकृति व दीर्घकालीन होती है क्योंकि यह स्वाभाविक एवं स्वतः-स्फर्त वाली होती है।

आर्थिक संवृद्धि एकपक्षीय है यह केवल उत्पादन; राष्ट्रीय आय एवं प्रतिव्यक्ति आयद्ध में वृद्धि से  सम्बन्धित है, उत्पादन की संरचना में होने वाले परिवर्तनां से नहीं।

आर्थिक वृद्धि एक मात्रात्मक या संख्यात्मक संकल्पना है।

इसमें नवीन संस्थागत सुधारों एवं तकनीकां का अभाव होता है।

आर्थिक संवृद्धि दर धनात्मक के साथ-साथ कभी-कभी गुणात्मक भी हो सकती है।

आर्थिक संवृद्धि के मापक

वास्तविक राष्ट्रीय आय

साधन लागत पर व्यक्त वास्तविक घरेलू उत्पाद, राष्ट्रीय उत्पाद तथा प्रतिव्यक्ति आय को हम सामान्यतया आर्थिक संवृद्धि के माप के रूप में स्वीकार करते हैं।

पर चूंकि प्रतिव्यक्ति आय की गणना करते समय हम जनसंख्या को भी ध्यान में रखते हैं, इसलिये हम प्रतिव्यक्ति आय की वृद्धि को ही आर्थिक संवृद्धि की माप के लिये अधिक स्वीकार करते हैं।

आर्थिक विकास

आर्थिक विकास का अभिप्राय है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद में संवृद्धि के साथ-साथ आय असमानता, गरीबी और बेरोजगारी जैसी समस्याओं में कमी। दूसरी ओर आर्थिक विकास का एक अन्य तात्पर्य अथवा आर्थिक विकास का एक अन्य संकेतक संरचनात्मक परिवर्तन को भी माना जाता है।

इसके अंतर्गत राष्ट्रीय आय के संरचना में परिवर्तन के अंतर्गत उपभोग की संरचना में परिवर्तन आता है तथा खाद्य वस्तुओं के उपभोग में कमी आती है तथा गैर खाद्य वस्तुओं का उपभोग बढ़ता है।

इसी प्रकार रोजगार के संरचना के अंतर्गत प्राथमिक क्षेत्रा में लगे श्रमिकों की संख्या में कमी आती है जबकि द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र में लगे श्रमिकों की संख्या में वृद्धि होती है।

साथ ही साथ निर्यात संरचना के अंतर्गत प्राथमिक वस्तुओं का निर्यात कम होता जाता है जबकि विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ता जाता है।

आर्थिक विकास के संदर्भ में दो प्रकार की विचारधाराएं –

1. संतुलित आर्थिक विकास का अर्थ है विभिन्न क्षेत्रों का समग्र एवं संतुलित विकास अर्थात अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का एक साथ विकास एवं उनमें एक साथ निवेश।

2. असंतुलित आर्थिक विकास की विचारधारा के अंतर्गत यह माना जाता है कि अर्थव्यवस्था के किसी क्षेत्र विशेष का विकास किया जाय अर्थात समस्त निवेश किसी क्षेत्र विशेष में किया जाय जिससे प्रेरित होकर अन्य क्षेत्रों का विकास हो।

उदाहरणस्वरूप यदि कृषि क्षेत्र में बड़े पैमाने पर निवेश किया जाय तो कृषकों की आय में वृद्धि होगी, जिससे औद्योगिक वस्तुओं की मांग बढ़ेगी।

परिणामस्वरूप औद्योगिक वस्तुओं का उत्पादन बढ़ेगा जो पूँजीगत क्षेत्र के विकास को भी बढ़ावा मिलेगा। इस प्रकार समस्त अर्थव्यवस्था का विकास होगा।

आर्थिक विकास के कारक

आत्मनिर्भरताः आर्थिक विकास हेतु सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि विकास का एक स्वदेशी आधार निर्मित हो अर्थात देश अथवा अर्थव्यवस्था विशेष में विकास करने की सक्षमता का निर्माण हो इसी के अंतर्गत आधारभूत संरचना का निर्माण अंतर्निहित है, जो समग्र अर्थव्यवस्था के विकास का आधार तैयार करता है।

पूंजी निर्माणः किसी भी देश के विकास हेतु उसकी मूलभूत आवश्यकता पूंजी निर्माण की ही होती है, क्योंकि पूंजी निर्माण से ही आधारभूत संरचना का निर्माण एवं औद्योगिक विकास संभव हो पाता है।

पूंजी निर्माण हेतु आवश्यक है कि बचत एवं निवेश में वृद्धि हो एवं देश में वित्तीय संस्थानों के विकास के साथ-साथ उद्यमीय योग्यता का भी विकास हो।

प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोगः आर्थिक विकास हेतु न केवल प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता अनिवार्य है बल्कि उनका पूर्ण उपयोग भी आवश्यक है जैसे भारत विकासशील देश में यद्यपि प्राकृतिक संसाधनों की प्रचुरता है परंतु उनके अल्प उपयोग ने भारत के विकास को अवरूध कर रखा है।

तकनीकी विकासः आर्थिक विकास काफी हद तक तकनीकी विकास पर निर्भर करता है। तकनीकी विकास के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों का पूर्ण उपयोग तो संभव है ही साथ-ही-साथ पूंजी का मितव्ययी उपयोग अथवा अनुकूलतम उपयोग भी संभव है।

दूसरी ओर तकनीकी विकास देश में कृषि विकास एवं औद्योगीकरण का भी मार्ग प्रशस्त करता है।

बाजार अपूर्णता दूर करनाः यह अविकसित अर्थव्यवस्था की मूलभूत कमजोरी होती है। अल्पविकसित बाजार अर्थात एक ओर जहां परिवहन के साधनों का सीमित विकास बाजार को विकसित होने से रोकता है वहीं दूसरी ओर निम्न उत्पादकता बाजार के आकार को सीमित रखती है।

संरचनात्मक परिवर्तनः आर्थिक विकास हेतु यह आवश्यक है कि अर्थव्यवस्था की संरचना में परिवर्तन हो जिसके अंतर्गत राष्ट्रीय आय की संरचना रोजगार की संरचना एवं विदेशी व्यापार की संरचना सभी में परिवर्तन अंतर्निहित है।

आर्थिक विकास के मापक

प्रति व्यक्ति आयः आथिर्क विकास का सर्वप्रमुख मापक प्रतिव्यक्ति आय को माना जाता है। इसके अंतर्गत यह विचारधारा प्रचलित है कि यदि जनसंख्या में वृद्धि की तुलना में सकल राष्ट्रीय उत्पाद में वृद्धि की दर अधिक है तो प्रतिव्यक्ति आय में वृद्धि होगी और इसे अथर्व्यवस्था के विकास का संकेतक माना जाएगा। 

वतर्मान समय में आथिर्क विकास को मापने हेतु विभिन्न प्रकार के सूचकाकों का प्रयोग किया जा रहा है, जिनमें कुछ प्रमुख निम्नलिखित है-

मानव विकास सूचकांकः 1990 से संयुक्त राष्ट्र विकास कायर्क्रम अपनी वार्षिक मानव विकास रिपोट में मानव विकास सूचकांक के रूप में विकास की माप को प्रस्तुत कर रहा है।

यह तीन सामाजिक सूचका का एक मिश्रित सूचक है, जिसमें शामिल है- जीवन संभावना, साक्षरता तथा प्रतिव्यक्ति आय। जीवन संभावना के अंतर्गत जन्म के समय जीवन की संभाव्यता को मापा जाता है।

साक्षरता के अंतर्गत वयस्क शिक्षा का दो तिहाइ  प्राथमिक एवं माध्यमिक विद्यालयो में उपस्थित अनुपातों को एक तिहाइ भार के साथ मिश्रण के रूप में मापा जाता है।

मानव विकास सूचकांक को विकास से जुड़े अथर्शास्त्री, महबूब-उल-हक तथा अमर्त्यसेन ने किया था। मानव विकास सूचकांक का मूल्य 0 और 1 के बीच होता है ।

संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा मानव विकास सूचकाक 2018 जारी जिसमें 189 देशो  की सूची में भारत का मिला 130वां स्थान जो कि पिछले वर्ष ;131 की तुलना में एक स्थान का फायदा मिला है।

 मानव विकास के आधार पर 189 देशो को चार वर्गो में विभाजित किया गया है जिसमें भारत को तीसरे वर्ग ‘मध्यम मानव विकास’ में जगह मिली है। भारत को पिछले वर्ष की तुलना में 0.016 अंक ज्यादा मिले हैं और यह 0.624 से बढ़कर 0.640 अंक हो गया है।

 इस रिपोट के मुताबिक भारत में गरीबो की संख्या में तो कमी आई है परंतु असमानता में वृद्धि के संकेत मिले हैं।

 रिपोर्ट के अनुसार भारत सार्क देशों श्रीलंका ;76 और मालदीव ;101 से पिछड़ गया है।

मानव विकास सूचकांक की सीमाएँ

केवल तीन सूचक ही मानव विकास के सूचक नहीं हो सकते हैं, क्योंकि शिशु मृत्यु दर तथा पोषण स्तर आदि अन्य सूचक भी महत्वपूर्ण हैं।

 मानव विकास सूचकांक सापेक्ष मानव विकास के मापता है निरपेक्ष को नहीं। इससे निम्न मानव विकास वाले देशों के सुधार का पता नहीं चल पायेगा।

 किसी देश का मानव विकास सूचकांक उसकी उंची असमानता को शामिल नहीं करता जबकि आय समानता आथिर्क विकास का एक महत्वपूण कारक है।

 आर्थिक सूचकांकः नेशनल कांउसिल ऑफ अप्लाइ इकनोमिक रिसच ने आर्थिक विकास का एक नया संकेतक निर्मित किया है, जिसे आर्थिक विकास सूचकांक कहा गया है।

इसमें तीन सूचको  को शामिल किया गया है। स्वास्थ्य सेवा सूचक, शिक्षा प्राप्ति का स्तर तथा प्रतिव्यक्ति आय। स्वास्थ्य सेवा सूचक में शिशु मृत्यु दर, जन्मदर, कुल प्रजनन दर इत्यादि को शामिल किया गया है।

शिक्षा प्राप्ति के अंतगर्त माध्यमिक और प्राथमिक विद्यालयों में नामांकन तथा स्नातक स्तर तक विश्वविद्यालयों में नामांकन शामिल है।

 सतत् आर्थिक कल्याण का सूचकांकः इसके अंतर्गत आथिर्क विकास के सूचक के रूप में असमानता, घरेलू उत्पादन, पर्यावरण को सुरक्षित रखने हेतु व्यय, पर्यावरण लागत; किसी कारखाने को स्थापित करने के परिणाम स्वरूप पर्यावरण को पहुंचने वाली क्षति का मूल्य इत्यादि को समाहित किया गया है।

यह आधुनिक अवधारणा हरमन डेली जौन कॉब के द्वारा प्रतिपादित की गई है। आर्थिक विकास के आरंभिक दौर में आय असमानता बढ़ना स्वाभाविक है।

आर्थिक संवृद्धि तथा आर्थिक विकास (Economic Growth And Economic Development)में अन्तर

आर्थिक संवृद्धि

1. आर्थिक संवृद्धि एक मात्रात्मक अवधारणा है।

2. आर्थिक संवृद्धि एक संकुचित अवधारणा है।

3. आर्थिक संवृद्धि के सीमांत मापक आयाम होते हैं।

4. आर्थिक संवृद्धि, आर्थिक विकास की निम्नतर अवस्था है।

5. आर्थिक संवृद्धि का सम्बन्ध विकसित देशों और विकासशील देशों से होता है।

6. इसमें संरचनात्मक परिवर्तनों को शामिल नहीं किया जाता है।

आर्थिक विकास

1. आर्थिक विकास मात्रात्मक एवं गुणात्मक दोनों होता है।

2. आर्थिक विकास एक व्यापक अवधारणा है।

3. आर्थिक विकास के कई मापक आयाम हो सकते है।

4. आर्थिक विकास, आर्थिक वृद्धि की उच्चतर अवस्था हैं।

5. आर्थिक विकास का सम्बन्ध अल्पविकसित देशों से होता है।

6. इसमें संरचनात्मक परिवर्तनों को शामिल किया जाता है।

सतत विकासः एक अनिवार्य आवश्यकता

सतत् विकास एक बहुआयामी अवधारणा है। इस अवधारणा का उदय राष्ट्रीय, सामुदायिक अथवा वैयक्तिक स्तरों पर सामाजिक एवं आर्थिक प्रणालियां, नीतियों, कार्यक्रमों तथा गतिविधियों में परिवर्तन की वांछित दिशा पर बहस तथा निर्णय होने की रूप रेखा के रूप में हुआ।

सतत विकास सामाजिक, आर्थिक विकास की प्रक्रिया है जिसमें पृथ्वी की ग्रहण क्षमता की सीमाओं के अंदर विकास की बात की जाती है। सतत विकास का उद्भव प्राकृतिक संसाधनों की समाप्ति तथा उसके कारण आर्थिक क्रियाओं तथा उत्पादन प्रणालियों के धीमे होने तथा उसके बंद होने के भय से हुआ।

यह अवधारणा उत्पादन प्रणालियों पर नियंत्रण करने वाले थोड़े से लोगों द्वारा प्रकृति के बहुमूल्य तथा सीमित संसाधनों के लालचपूर्ण दुरूपयोग का परिणाम है।

सततशीलता, कोयला, तेल तथा जल जैसे संसाधनों के दोहन के लिए उत्पादन तकनीकों, औद्योगिक प्रक्रियाओं तथा विकास की न्यायोचित नीतियों के संबंध में दीर्घकालीन योजना प्रस्तुत करती है।

यह योजना संसाधनों के दीर्घ जीवनकाल तथा एक विस्तृत प्रयोक्ता आधार को सुनिश्चित करती है जिससे अधिक से अधिक लोग दीर्घकाल तक इससे लाभ प्राप्त कर सकें।

सततशीलता का विचार ऊर्जा बचत उपायों के प्रौद्योगिकी परिवर्तन तथा जीवन की गुणवत्ता को कम किये बिना नागरिकों को सुविधा प्रदान करने हेतु वैकल्पिक तथा गैर-पारंपरिक व्यवस्थाओं की अपरिहार्यता पर भी आघात करता है।

सतत् विकास की अवधारणा का उदय

सतत विकास की अवधारणा का मूल उद्गम रैचल कारसन द्वारा लिखित पुस्तक 1962 के व्यक्त विचारों में अन्तर्निहित माना जाता है।

इस पुस्तक द्वारा कीटनाशक डी.डी.टी. के प्रयोग से वन्य जीवन के सर्वनाश की ओर जनता का ध्यान आकर्षित किया गया। यह पुस्तक पर्यावरण, अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक कल्याण के लिए मील का पत्थर सिद्ध हुई।

1.  1968 में जीव-विज्ञानशास्त्री पाल इहरलिच ने अपनी पुस्तक ‘पापुलेशन बम’ प्रकाशित की जिसमें उन्होंने जनसंख्या, संसाधन दोहन तथा पर्यावरण के मध्य संबंधों पर प्रकाश डाला।

2.  1969 में गैर-लाभकारी संस्था ‘फ्रेंड्स ऑफ अर्थ’ का सृजन किया गया जिसे पर्यावरण की पतन में सुरक्षा तथा निर्णय प्रक्रिया में भाग लेने हेतु सशक्त बनाने के लिए समर्पित किया गया।

3.  1971 में आर्थिक सहयोग तथा विकास के लिए संगठन ने ‘प्रदूषण खर्चा दें’ सिद्धांत बनाया जिसमें यह कहा गया है कि प्रदूषण फैलाने वालों को उसकी कीमत देनी चाहिए।

4.  1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन का आयोजन हुआ। पहली बार अंतर्राष्ट्रीय कार्यसूची में ‘पर्यावरण एक गंभीर विकास मुद्दा है’ को सम्मिलित किया गया। इससे संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की स्थापना हुई। इसके पहले निदेशक मैरिस स्ट्रांग ने पारिस्थितिकी विकास शब्द की रचना की तथा विकास को पर्यावरण सुरक्षा के साथ जोड़ा।

5. 1980 में भू-वैज्ञानिक एवा बाल फोअर तथा वेक जेकसन ने सतत विकास की अवधारणा का प्रतिपादन किया।

6.  1983 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने नार्वे की प्रधानमंत्री श्रीमती ग्रो हसरलम ब्रण्डटलैंड की अध्यक्षता में पर्यावरण पर विश्व आयोग का गठन किया गया जिसने अपनी रिपोर्ट 1987 में ‘आवर कामन फ्यूचर’ नाम से दी। इस रिपोर्ट में सतत विकास को पहली बार परिभाषित किया गया।

7.  आवर कॉमन फ्रयूचर रिपोर्ट, 1992 के पृथ्वी सम्मेलन की मुख्य विषय बनी। इसके बाद 2000 में जोहांसबर्ग के पृथ्वी सम्मेलन का मुख्य विषय ‘सतत विकास’ को बनाया गया।

सतत विकास के उद्देश्य :

सतत विकास के उद्देश्य वर्ग,जाति, भाषा तथा क्षेत्रीय पाबंदियों से परे हैं। यह शोषक मनोस्थिति की जंजीरों से अर्थव्यवस्था की मुक्ति हेतु एक अधिकार तंत्र हैं जिसने राष्ट्रों को नष्ट एवं उनकी जैविक संपदा को कम किया है। संक्षेप में सतत विकास के निम्नवत् उद्देश्य हैं :

1. समता तथा न्याय के साथ अधिकांश लोगां का जीवन स्तर पोषित होना चाहिए। यहाँ निर्णय प्रक्रिया में सीमाओं के आर-पार इनके संचित प्रभावों को ध्यान में रखना होगा।

2. ऐसी नयी प्रौद्योगिकीय तथा वैज्ञानिक तरीकों का विकास किया जाना चाहिए जो प्रकृति के नियमों के अनुकूल कार्य करें। यहां विभिन्न देशों द्वारा प्रयुक्त की जा रही विकास नीतियों से उत्पन्न लाभों और चुनौतियों को परस्पर बांटना जरूरी है।

3. दुरूपयोग तथा अनावश्यक उपभोग से पृथ्वी के प्राकृतिक संसाधनों का परीक्षण तथा संरक्षण होना चाहिए। इसके लिए यह आवश्यक है कि जमीन और उसकी विविधता को समुदाय के आधार के रूप में सम्मान मिले।

4. ऐसी संसाधनों की स्थापना के लिए योजना बनाना जो कि निर्धन राष्ट्रों की आवश्यकताओं को मान्यता प्रदान करे तथा उनकी प्राकृतिक संपदा तथा पर्यावरण को नष्ट किये बिना अभिवृद्धि की लक्ष्यों की प्राप्ति में सहायता करे।

5. शासन प्रबंध की संस्थाओं का विकेन्द्रीकरण किया जाये तथा उनको और अधिक लोचशील बनाया जाये। इसके साथ-साथ शासन प्रबंध को जनता के प्रति उत्तरदायी और पारदर्शी बनाया जाये। उनमें मुक्त, समावेशी तथा भागीदारी पूर्ण निर्णय प्रक्रिया हो।

6. सतत विकास एक मूल्यपरक अवधारणा है जो परस्पर सह-अस्तित्व तथा अन्यों के लिए समानता के सार्वभौमिक विषय को समाहित करती है। यह सांस्कृतिक, आर्थिक, पर्यावरणीय और राजनीतिक चिंतनों को एक करने वाली निरंतर विकासमय प्रक्रिया है।

यह परिवर्तन की मनोवांछित दिशा प्रदान करती है और राष्ट्रों, समुदायों तथा व्यक्तियों द्वारा निर्णय करने की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है।

भारत के संदर्भ में सतत विकासः चुनौतियां एवं संभावनाएं

अल्प आय वाले देशों में सतत विकास करना एक दुष्कर संतुलित कार्य है। साथ ही साथ, समाज को समझौताकारी तालमेल सहित तीन कार्यों- वर्तमान पीढ़ी के लिए सामाजिक न्याय सहित आर्थिक उन्नति को सुधारना।

भूमि, वायु, वन, ऊर्जा और जल संसाधनों के अधिक विवेक सम्मत् इस्तेमाल के साथ व्यवस्था करना और भावी पीढ़ियों की सुरक्षा करना, को पूरा करना है। विकासशील देशों में पसंद और मुश्किल कार्य है क्योंकि इनसे लोगों की उपजीविकाओं पर प्रभाव पड़ता है।

अतः इसमें सफल होने के लिए एक ऐसी स्टीवर्डशिप की आवश्यकता है जो लोगों की आवश्यकताओं के अनुरूप हो, रुचियों और लागतों पर सूचना का आदान-प्रदान करे और भागीदारी एवं स्वामित्व को सुनिश्चित करे।

भारत ने पिछले दशकों में प्रबंधकीय क्षमता के ऐसे क्षेत्रों में अच्छा कार्य किया है। 1980 से शुरू हुए आर्थिक सुधारों से विकास और आय में त्वरित वृद्धि हुई। औसत आयु बढ़ने से सामाजिक उन्नति काफी हुई है। भारत ने वन जैसे अपने प्राकृतिक पर्यावरण को सुरक्षित रखने में योगदान बढ़ाया है।

इसका विशेष विकास पथ, बेहतर भविष्य का वादा करते हुए त्वरित साक्षरता एवं शिक्षा सहित तीव्र विकास सेवाओं-लो इमिशन-इनटेंसिटी पर निर्भर रहा है। भारत हालांकि और बेहतर कर सकता था फिर भी काफी कुछ किया गया है।

ऐसी प्रगति के कारण निःसंदेह सुदृढ़ संस्थागत मूलभूत अवसंरचनाएं, लोकतांत्रिक भागीदारी, सामाजिक न्याय का संवैधानिक संरक्षण और पर्यावरणीय विधियों व विनियमों, बहुविध-कर्ताओं, बाजारों की लगातार अभिवृदधि  तथा सरकारी कार्यक्रमों और नीतियों का विस्तार है।

विकास की अपनी कार्बन तीव्रता को कम करना जारी रखते हुए भारत को फिर भी पर्यावरण टिकाऊपन सहित आर्थिक प्रगति के अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए बचत करने और ज्यादा खर्च करने की आवश्यकता होगी, यह संभव और करनीय है।

भूमि व कृषि, तीव्र नगरीकरण, लोक सेवाओं की क्वालिटी, सार्वजनिक पर्यावरणीय स्वास्थ्य पर अधिक तीव्र दबाव आ जाने तथा वायु व जल पर्यावरण बिगड़ जाने से नई संस्थागत चुनौतियां आ रही हैं।

विभेदक कीमतें, प्रोत्साहन, विनिमय और करां को, विशेषककर ऊर्जा के क्षेत्र  में, समर्थनकारी बनाए जाने की आवश्यकता होगी ताकि एक अधिक प्रभावी और साम्य विकास पथ की ओर जाने में मदद मिल सके।

नए कार्बन-भिन्न, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत और प्रौद्योगिकियां महत्वपूर्ण होंगी, इनसे अधिकांशतः निजी क्षेत्र द्वारा संचालित की जाएगी। सामाजिक न्याय के लिए, एनर्जी एक्सेस और आठ राष्ट्रीय मिशनों के अन्य तत्वों पर अधिक सरकारी खर्च की आवश्यकता होगी।

विश्व परिप्रेक्ष्य में, भारत ने 2020 तक अपने विकास पथ की ऊर्जा इंटेंसिटी कम करने के लिए स्वैच्छिक प्रयास किए हैं। वह इस ध्येय की प्राप्ति की ओर अग्रसर है तथापि विश्व समुदाय को इनके सम्बन्ध में समान और उचित भार को बांटने की अपनी प्रतिवद्धता को फिर से कहने की आवश्यकता है।

धनी और गरीब देशों के बीच प्रतिव्यक्ति उत्सर्जनों में भारी अंतरों को कम करना तथा विकासशील देशों में व्यापक अनुकूलन एवं उत्सर्जन कम करने के प्रयासों के लिए वित्त बढ़ाना ताकि विकसित राष्ट्र विकासशील देशों की कीमत पर पूरे कार्बन स्पेश का प्रयोग न करें।

डरबन निर्णयों में, ग्रीन हाऊस गैसों को कम करने के लिए देश प्रतिवद्धताओं के दूसरे दौर की वार्ताओं को शामिल किया गया तथा एक विश्व जी.सी.एम. स्थापित की गयी।

तीव्र क्रियान्वयन से लड़खड़ाती विश्ववद्धता तथा जापान और यूरोप में डांवाडोल होती सरकारी वित्तीय सहायता, जो कठिन आर्थिक पर्यावरण और विमानन एवं समुद्रीय करों जैसे एक तरफा व्यापार उपायों की धमकी से और बिगड़ गयी है, की व्यापक धारणों को दूर करने में मदद मिलेगी।

भारत के परिप्रेक्ष्य से अन्य चुनौती, अंतर्राष्ट्रीय परामर्श और विश्लेषण की नई प्रणाली से उत्पन्न होने वाले इसके ;उत्सर्जन आदि कोद्ध कम करने संबंधी कार्यों की पारदर्शिता से इनके अभिवृत कार्यों की तैयारी करने तथा भविष्य में किए जाने वाले वार्तालापों में, संसाधनों तक विकासशील देशों की समान पहुंच और विकसित देशों के घरेलू विधायन में वर्णित दण्डात्मक कार्यों के प्रति गारंटी सुनिश्चित करने की है।

भारत को भी आवश्यक घरेलू प्रणालियां स्थापित करने की आवश्यकता होगी ताकि उन्नत प्रौद्योगिकी एवं वानिकी सम्बंधी कार्यों के लिए की जाने वाली व्यवस्थाओं में कारगर ढंग से भाग लिया जा सके तथा उनसे फायदे प्राप्त किए जा सकें।

अंत में, जलवायु परिवर्तन एक विश्वव्यापी घटना है जिसका हमें, देशों की ऐतिहासिक जिम्मेदारियों और क्षमताओं को ध्यान में रखते हुए सहयोग की भावना से समाधान करना है।

भारत ने, अंतर्राष्ट्रीय समुदाय का एक जिम्मेदार और प्रबुद्ध सदस्य होने के नाते, दोहा सम्मेलन की सफलता के संबंध में अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर अपनी नम्यता दर्शायी है। दोहा में, विश्व ने विकासशील देशों के हितों की पूरी भावना से रक्षा करने के लिए भारत का एहसान माना है।

भारत ने यह सुनिश्चित किया कि सामाजिक व आर्थिक विकास और गरीबी उन्मूलन के उद्देश्यों पर किसी भी प्रकार का कोई समझौता नहीं किया जाएगा। भले ही बातचीत की जाने वाली और 2015 तक अंतिम रूप दी जाने वाली व्यवस्थाएं 2020 तक हों या 2020 के बाद तक हो।

आशा की जाती है कि विकसित देश सभी बकाया विषयों पर विकासशील देशों की चिंताओं का समाधान करके, दोहा में भारत द्वारा दर्शित नम्यता का आदान-प्रदान करेंगे। वार्तालाप सहमत निष्कर्षों से पूर्वाग्रहसित नहीं होने चाहिए।

दोहा प्लेटफार्म के अंतर्गत परिणामों की कानूनी प्रकृति फॉर्म द्वारा नहीं बल्कि उनके मूल द्वारा निर्धारित की गई है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास के लक्षण

सतत् विकास

पिछले सात दशकों में भारत में सकल घरेलू उत्पाद निरंतर बढ़ा है और लगभग 4 प्रतिशत औसतन रहा है। वैसे समय में भी जबकि विश्व की अन्य विकसित अर्थव्यवस्थाएं मंदी के दौर से गुजर रही थीं, भारत में विकास दर बढ़ रहा था।

उच्च क्रयशक्ति

क्रयशक्ति क्षमता के दृष्टिकोण से भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की तीसरी ;2019 के अनुसार सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। क्रयशक्ति क्षमता यह बताता है कि किसी अर्थव्यवस्था में लोगों की क्रयशक्ति अथवा विभिन्न वस्तुओं को खरीद पाने की क्षमता कितनी है।

उदाहरण स्वरूप अमेरिका में जितनी वस्तुएं एक डॉलर में क्रय की जा सकती हैं उतनी ही वस्तुएं भारत में कितने रूपये में क्रय की जा सकती हैं इसके माप को ही क्रयशक्ति समता दर कहते हैं।

आत्मनिर्भरता

आजादी के पश्चात भारतीय अर्थव्यवस्था की सर्वप्रमुख समस्या थी, खाद्यान्नों का अभाव परंतु हरितक्रांति के पश्चात भारत खाद्यान्नों के मामले में आत्म निर्भर हो चुका है। साथ ही कृषि वस्तुओं का निर्यात भी बढ़ा है जो कृषि अधिशेष में वृद्धि को बताता है।

औद्योगीकरण

भारत एक प्रमुख औद्योगिक अर्थव्यवस्था के रूप में उभर रहा है। इसी के अंतर्गत विभिन्न सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों की स्थापना के साथ-साथ निजी उद्योगों का भी विकास हो रहा है।

राष्ट्रीय आय में औद्योगिक क्षेत्र का हिस्सा बढ़ता जा रहा है। विश्व में भारत एक प्रमुख बाजार के रूप में उभर रहा है, जो भारत के औद्योगिक विकास को बताता है।

आधारभूत संरचना का निर्माण

यद्यपि वर्तमान समय में भारत के विकास में एक प्रमुख बाधा आधारभूत संरचना का पर्याप्त मात्र में विद्यमान नहीं होना माना जा रहा है, परंतु आजादी के पश्चात् से लेकर अब तक इस दिशा में काफी प्रगति हुई है।

वर्तमान समय में भारत तीव्र रूप से विद्युत उत्पादन, दूरसंचार क्षेत्र अथवा संचार क्रांति के क्षेत्र में विकास कर रहा है। साथ ही वित्तीय आधारभूत संरचना में भी भारत ने तीव्र प्रगति की है।

भारत के श्रमिक कुशल श्रमिक से ज्ञान उन्मुख श्रमिक में रूपांतरित हो रहे हैं, जिसका एक स्पष्ट प्रमाण भारतीय सॉफ्रटवेयर इंजीनियर्स हैं।

तकनीकी विकास

हाल के वर्षों में भारत ने तकनीकी विकास के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की हैं। उदाहरणस्वरूप कृषि क्षेत्र में विभिन्न क्रांतियां तथा अंतरिक्ष में उपग्रहों के प्रक्षेपण एवं अंतरिक्ष अनुसंधान का वाणिज्यीकरण।

एक अनुमान के अनुसार यह बताया जा रहा है कि भारत अमेरिका के बाद विश्व का दूसरा ऐसा राष्ट्र है जिसके पास कुशल वैज्ञानिक उपलब्ध हैं।

वर्तमान समय में भारत में लगभग 1300 से भी अधिक अनुसंधान संस्थान है जो विभिन्न क्षेत्रों में जैसे परमाणु उर्जा, अंतरिक्ष, अंटार्कटिका, रक्षा, कृषि, वन, इलेक्ट्रॉनिक इत्यादि क्षेत्रों में कार्यरत हैं।

विदेशी व्यापार की संरचना में परिवर्तन

1950-60 के दशक में विदेशी व्यापार का अभिप्राय महज आयात था और निर्यात के अंतर्गत भी प्राथमिक वस्तुओं का ही निर्यात होता था। परंतु हाल के वर्षों में भारत से निर्यात में वृद्धि के साथ-साथ निर्यात की संरचना के अंतर्गत विनिर्मित वस्तुओं का निर्यात बढ़ा है जो विदेशी व्यापार के क्षेत्र में अर्थव्यवस्था के विकास को बताता है।

FAQ

आर्थिक संवृद्धि से आप क्या समझते हैं?

आर्थिक संवृद्धि से अभिप्राय देश में वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन में वास्तविक वृद्धि से है। आर्थिक संवृद्धि का संबंध सकल घरेलू उत्पाद के किसी घटक, जैसे-उपभोग, सरकारी व्यय, निवेश, शुद्ध निर्यात में उत्तरोत्तर वृद्धि से है।

आर्थिक विकास क्या है आर्थिक विकास तथा आर्थिक वृद्धि में अंतर बताओ?

आर्थिक संवृद्धि से अभिप्राय देश के सकल घरेलू उत्पाद, प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि और गरीबी में कमी होती है, जबकि आर्थिक विकास से अभिप्राय किसी देश की आधारभूत संरचना की मजबूती, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन होता है।

आर्थिक विकास का अर्थ क्या है?

‘ विस्तृत अर्थ में, आर्थिक विकास से अभिप्राय राष्ट्रीय आय में वृद्धि करके, निर्धनता को दूर करना तथा सामान्य जीवन स्तर में सुधार करना है । ― 1. विकास की सतत प्रक्रिया आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है । जिसका अर्थ, कुछ विशेष प्रकार की शक्तियों के कार्यशील रहने के रूप में, लगाया जाता है ।

आर्थिक विकास क्या है और इसकी विशेषताएं क्या है?

(1) आर्थिक विकास एक सतत प्रक्रिया है! (2) आर्थिक विकास में प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होती है!  (3) आर्थिक विकास के फलस्वरुप देश की जनता के जीवन स्तर तथा आर्थिक कल्याण में वृद्धि होती है!

आर्थिक संवृद्धि क्या है ?

आर्थिक संवृद्धि एवं विकास के फलस्वरूप राष्ट्रीय आय और प्रति व्यक्ति आय में निरंतर सकारात्मक परिवर्तन होता है। इस प्रक्रिया से जीवन स्तर में गुणात्मक परिवर्तन होता है। इसलिये आर्थिक विकास एवं आर्थिक संवृद्धि का प्रश्न विकसित, विकासशील एवं अल्प विकसित देशों के लिये समान रूप से महत्त्व रखता है।

आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करने वाले घटक क्या है?

आर्थिक संवृद्धि को प्रभावित करने वाले कारकों में प्राकृतिक संसाधन, पूंजी निर्माण, तकनीकी उन्नति, उद्यमशीलता, मानव संसाधन विकास, जनसंख्या में वृद्धि तथा सामाजिक लागतें हैं।

आर्थिक समृद्धि को कैसे मापा जाता है?

आर्थिक संवृद्धि का सही माप प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि से होती है।

आर्थिक विकास का क्या उद्देश्य है?

आर्थिक विकास का प्रमुख्य उद्देश्य जनता के जीवन स्तर को ऊँचा उठाना है अतः यह कहना उचित होगा कि “आर्थिक विकास वह प्रक्रिया है जिसमे जनता की प्रति व्यक्ति शुद्ध आय दीर्घकाल में बढ़ती है ।

आर्थिक विकास के कारक क्या हैं?

आर्थिक विकास के चार मुख्य कारक भूमि, श्रम, पूंजी और उद्यमिता हैं।

आर्थिक विकास की अवस्थाएं कितनी है?

रोस्तोव ने अपने आर्थिक संवृद्धि के सिद्धांत में आर्थिक वृद्धि की पाँच अवस्थाओं (Rostow’s Stages of Economic Growth Model) का उल्लेख किया है। इस सिद्धांत को वर्ष 1960 में प्रकाशित किया गया था। इस मॉडल के अनुसार, किसी भी राष्ट्र का विकास कोई गत्यात्मक प्रक्रिया नहीं है बल्कि जैविक प्रक्रिया के समान है।

आर्थिक विकास की समस्याएं क्या हैं?

आर्थिक विकास की समस्या के तीन मुख्य कारण हैं असीमित मानवीय आवश्यकता, सीमित संसाधनों के चुनाव की समस्या| विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सीमित संसाधनों का होना और उनमे चयन करने की समस्या को ही आर्थिक समस्या कहते हैं।

विकास के 3 मुख्य सिद्धांत क्या हैं?

विद्वानों ने विकास से संबंधित सिद्धांत प्रतिपादित किए कि यह कैसे हासिल किया जाता है और इसे कैसे बाधित किया जाता है। ये सिद्धांत हैं आधुनिकीकरण सिद्धांत, निर्भरता सिद्धांत और नारीवादी सिद्धांत ।

आर्थिक विकास का महत्व बताइए।

आर्थिक विकास से राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि होती है , राष्ट्रीय आय एवं प्रति व्यक्ति आय बढ़ती है और पूँजी निर्माण की दर में वृद्धि होती है। निवेश बढ़ता है , नए नए प्रकार के उद्योगों की स्थापना होती है और पूँजी की गतिशीलता बढ़ती है।

आर्थिक विकास के लिए क्या आवश्यकताएं हैं?

मजबूत बुनियादी ढांचा होना आर्थिक विकास की मूलभूत आवश्यकता है ।

आर्थिक विकास का उद्देश्य क्या है?

आर्थिक विकास का मुख्य लक्ष्य उन प्रयासों के माध्यम से एक समुदाय की आर्थिक भलाई में सुधार करना है जिसमें रोजगार सृजन, नौकरी प्रतिधारण, कर आधार में वृद्धि और जीवन की गुणवत्ता शामिल है

अगर आपको मेरे द्वारा लिखा गया आर्टिकल अच्छा लगता है, तो अपने दोस्तों रिश्तेदारों तक जरुर शेयर करे। और हमें कमेंट के जरिये बताते रहे कि आपको और किस टॉपिक पर आर्टिकल चाहिए। हम उम्मीद करते है, कि मेरे द्वारा लिखा गया आर्टिकल आपको यह आर्टिकल पसंद आया होगा। हमारी वेबसाइट के होम पेज पर जाने के लिए क्लिक करे The Bharat Varsh

Leave a Comment