राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत | Directive Principles of State Policy In Hindi

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों (Directive Principles of State Policy In Hindi ) का प्रमुख उद्देश्य जनता के लिये सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना और भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करना है।

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राज्य के नीति के निर्देशक तत्व (Directive Principles of State Policy In Hindi- DPSP)

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का उल्लेख संविधान के भाग 4 के अनुच्छेद 36 से 51 तक में किया गया है। संविधान निर्माता ने यह विचार 1937 में निर्मित आयरलैंड के संविधान से लिया। डॉ भीमराव अंबेडकर ने इन तत्वों को विशेषता वाला बतलाया है। मूल अधिकारों के साथ निर्देशक तत्व संविधान की आत्मा एवं दर्शन हैं। ग्रैनविल ऑस्टिन ने निर्देशक तत्वों और अधिकारों को संविधान की मूल आत्मा कहा है।

इतिहास

डीपीएसपी की अवधारणा (कांसेप्ट) का स्रोत (सोर्स) स्पेनिश संविधान है जिससे यह आयरिश संविधान में आया है। भारतीय संविधान के निर्माता आयरिश राष्ट्रवादी आंदोलन से बहुत अधिक प्रभावित थे और उन्होंने 1937 में आयरिश संविधान से डीपीएसपी की इस अवधारणा को उधार लिया था।

भारत सरकार अधिनियम में भी इस अवधारणा से संबंधित कुछ निर्देश थे जो उस समय डीपीएसपी का एक महत्वपूर्ण स्रोत बन गए थे।

भारत के संविधान के निर्देशक सिद्धांत सामाजिक नीति के निर्देशक सिद्धांतों से बहुत प्रभावित हुए हैं।

जो भारतीय ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ रहे थे, वे उस समय खुद को ब्रिटिश शासन से मुक्त करने और अपने संविधान के विकास की ओर बढ़ने के लिए आयरलैंड के आंदोलनों और स्वतंत्रता संग्राम (स्ट्रगल) से बहुत प्रभावित थे।

डीपीएसपी भारत जैसे विविध (डायवर्स) राष्ट्र में सामाजिक, आर्थिक और विभिन्न अन्य चुनौतियों से निपटने के लिए स्वतंत्र भारत की सरकार के लिए एक प्रेरणा बन गया है।

डीपीएसपी और मौलिक अधिकारों की उत्पत्ति एक समान है। 1928 की नेहरू रिपोर्ट में भारत का स्वराज संविधान शामिल था जिसमें कुछ मौलिक अधिकार और कुछ अन्य अधिकार जैसे शिक्षा का अधिकार शामिल थे जो उस समय लागू नहीं थे।

1945 की सप्रू रिपोर्ट ने मौलिक अधिकारों को न्यायोचित और गैर-न्यायोचित अधिकारों में विभाजित किया।

न्यायोचित अधिकार, जो कि कानून की कोर्ट में लागू करने योग्य थे और संविधान के भाग III में शामिल थे। दूसरी ओर, गैर-न्यायोचित अधिकारों को निर्देशक सिद्धांतों के रूप में सूचीबद्ध (लिस्टेड) किया गया था, जो कि भारत को एक कल्याणकारी राज्य बनाने की तर्ज (लाइन) पर काम करने के लिए राज्य का मार्गदर्शन करने के लिए हैं। उन्हें भारत के संविधान के भाग IV में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में शामिल किया गया था।

संविधान सभा को भारत के लिए एक संविधान बनाने का कार्य सौंपा गया था। सभा में निर्वाचित प्रतिनिधि (इलेक्टेड रिप्रेजेंटेटिव) थे और डॉ राजेंद्र प्रसाद को इसके अध्यक्ष के रूप में चुना गया था।

मौलिक अधिकार और डीपीएसपी दोनों को मसौदा समिति (ड्राफ्टिंग कमिटी) द्वारा तैयार किए गए संविधान के सभी मसौदे (I, II और III) में सूचीबद्ध किया गया था, जिसके अध्यक्ष डॉ. बी.आर. अम्बेडकर थे।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों की विशेषताएं

राज्य की नीति निर्देशक तत्व नामक एक इस उक्ति से यह स्पष्ट होता है की नीतियों एवं कानून को प्रभावित बनाते समय राज्य इन तत्वों को ध्यान में रखेगा। यह है संविधानिक निर्देश या विधायिका कार्यपालिका और प्रशासनिक मामलों में राज्य के लिए सिफारिश हैं। अनुच्छेद 36 के अनुसार भाग चार में राज्य शब्द का वही अर्थ है, जो मूल अधिकारों से संबंधित भाग 3 में है।

निर्देशक तत्व भारत शासन अधिनियम 1935 में उल्लेखित अनुदेशकों के समान हैं डॉ बी आर अंबेडकर की शब्दों में निदेशक तत्व अनुदेशकों के समान है, जो भारत शासन अधिनियम 1935 के अंतर्गत ब्रिटिश सरकार द्वारा गवर्नर जनरल और भारत की औपनिवेशिक कॉलोनी के गवर्नर को जारी किए जाते थे, जिसे निदेशक तत्व कहा जाता है। वह इन निर्देशक तत्वों का ही दूसरा नाम है।

आधुनिक लोकतांत्रिक राज्य में आर्थिक सामाजिक और राजनीतिक विषयों में निर्देशक तत्व महत्वपूर्ण है इनका उद्देश्य न्याय में उच्च आदर्श स्वतंत्रता, सामान्य बनाए रखना है जैसा कि संविधान की प्रस्तावना में परिकल्पित है, इनका उद्देश्य लोक कल्याणकारी राज्य का निर्माण करना है।

निर्देशक तत्वों की प्रकृति गैर न्यायोचित है यानी की उनके हनन पर उन्हें न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता अतः सरकार इन्हें लागू करने के लिए बाध्य नहीं है।

यद्यपि उनकी प्रकृति गैर न्यायोचित है तथापि कानून की संवैधानिक मान्यता के विवरण में न्यायालय इन्हें देखता है। उच्चतम न्यायालय ने कई बार व्यवस्था की है कि किसी विधि की संवैधानिकता का निर्णय करते समय यदि न्यायालय यह पाये की प्रश्नगत विधि निर्देशक तत्वों को प्रभावित करना चाहती है तो न्यायालय ऐसी विधि को अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19 के संबंध में तर्कसंगत मनते हुए असंवैधानिकता से बचा सकता है।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का स्वरूपः

नीति निदेशक तत्वों के स्वरूप के सम्बन्ध में प्रमुखतया निम्न तीन बातें उल्लेखनीय हैं

1. इन तत्वों को न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। दूसरे शब्दों में, इन्हें वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है।

2. निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत स्थान रखते हैं।

3. कानून बनाते समय इन तत्वों का प्रयोग करना राज्य का कर्तव्य होगा।

राज्य के नीति के निर्देशक तत्वों का वर्गीकरण

हालांकि संविधान में इनका वर्गीकरण नहीं किया गया है, लेकिन उनकी दशा एवं दिशा के आधार पर इन्हें तीन व्यापक श्रेणियां -समाजवादी, गांधीवादी और उदार बुद्धिजीवी में विभक्त किया जा सकता है:

समाजवादी सिद्धांत

यह सिद्धांत समाजवाद के आलोक में है यह लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का खाका खींचते हैं, जिनका लक्ष्य सामाजिक एवं आर्थिक न्याय प्रदान करना है। यह लोक कल्याणकारी राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करते हैं यह राज्य को निर्देश देते हैं।

गांधीवादी सिद्धांत

यह सिद्धांत गांधीवादी विचारधारा पर आधारित हैं यह राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान गांधी द्वारा पुनर्स्थापित योजनाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। गांधी जी के सपनों को साकार करने के लिए उनके कुछ विचारों को निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया है।

उदार बौद्धिक सिद्धांत

इस श्रेणी में उन सिद्धांतों को शामिल किया गया है, जो उदारवादिता की विचारधारा से संबंधित हैं।

अनुच्छेद 36: के अनुसार इस भाग में ‘राज्य’ का वही अर्थ है जो ‘भाग-3’ में है।

यहां राज्य का अभिप्राय सभी राजनीतिक सत्ताओं से है। केन्द्रीय सरकार, संसद, राज्य सरकार, विधानमण्डल और भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी इसके अधीन हैं।

अनुच्छेद 37: इस भाग में अंतर्निहित उपबंध किसी न्यायालय द्वारा प्रवर्त्तनीय नहीं होंगे लेकिन विधि बनाने में इन तत्त्वों को लागू करना राज्य का कर्त्तव्य होगा।

संविधान निर्माताओं ने निदेशक तत्त्वों को न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं बनाया। इसके पीछे उनकी धारणा थी कि देश के पास इन्हें लागू करने के लिए समुचित वित्तीय साधन नहीं हो पाएंगे, देश में अनेक असमानताएं मौजूद हैं जिसके कारण उनका कार्यान्वयन एक जटिल प्रक्रिया है तथा देश को अनेक दबावों से मुक्त रखा जाए जिससे विकास की प्रक्रिया तीव्र हो सके।

अनुच्छेद 38: राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था बनाएगा-

1. राज्य लोक कल्याण के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की प्राप्ति का प्रयास करेगा।

2. विभिन्न क्षेत्रों में रहने वालों के बीच आय, सुविधा, अवसरों, प्रतिष्ठा की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 39: राज्य नीति का इस प्रकार संचालन करेगा कि –

 स्त्री और पुरुष सभी नागरिकों को समान रूप से जीवन जीने का अधिकार हो।

 भौतिक संसाधनों का न्यायोचित वितरण हो।

 धन और उत्पादन के साधनों पर अलाभकारी संकेंद्रण न हो।

 पुरुषों और स्त्रियों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन हो।

 कर्मकारों के स्वास्थ्य और क्षमता का दुरुपयोग न हो तथा बच्चों से बलात् श्रम का विरोध हो।

 बच्चों के विकास के अवसर उपलब्ध हों।

अनुच्छेद 39क

समान न्याय और निःशुल्क विधि सहायता-राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तन्त्रा इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह, विशिष्टतया, यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा या किसी अन्य रीति से निःशुल्क विविध सहायता की व्यवस्था करेगा।

अनुच्छेद 40

ग्राम पंचायतों का संगठन-राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक है।

अनुच्छेद 41

कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार- राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में लोक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त करने का प्रभावी उपबन्ध करेगा।

बालश्रम के प्रतिषेध का विस्तार-इसका विस्तार व्यापक है। ये बच्चों का मौलिक अधिकार है कि उनको कारखानों, खानों तथा खतरनाक उद्योगों में उनके श्रम के शोषण से संरक्षण प्राप्त हो। ऐसे संरक्षण को न केवल संयुक्त राष्ट्र द्वारा मान्यता प्रदान की गई है बल्कि इसको अनेक देशों के कानूनी अधिकार भी प्राप्त हो गये हैं। एम.सी.मेहता बनाम तमिलनाडु राज्य,

अनुच्छेद 42

काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता का उपबन्ध-राज्य काम की न्यायसंगत मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता के लिए उपबन्ध करेगा।

अनुच्छेद 43

कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि राज्य, उपयुक्त विधान या आर्थिक संगठन द्वारा या किसी अन्य रीति से कृषि के, उद्योग के या अन्य प्रकार कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और अवकाश का सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएँ तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया ग्रामों में कुटीर उद्योगों को वैयक्तिक या सहकारी आधार पर बढ़ाने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 43क

उद्योगों के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना-राज्य किसी उद्योग में लगे हुए उपक्रमों, स्थापनों या अन्य संगठन के प्रबन्ध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 44

नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता-राज्य, भारत के समस्त राज्यक्षेत्रा में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 45

प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख छः वर्ष से कम आयु के बालकों की शिक्षा का प्रावधान-राज्य प्रारंभिक शैशवावस्था की देखरेख और सभी बालकों को, उस समय जब तक कि वे छः वर्ष की आयु पूर्ण न कर लें, शिक्षा प्रदान करने के लिये प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 46

अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की अभिवृद्धि राज्य, जनता के दुर्बल वर्गों के, विशिष्टतया, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के शिक्षा और अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा और सामाजिक अन्याय और सभी प्रकार के शोषण से उनकी सुरक्षा करेगा।

अनुच्छेद 47

पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य- राज्य, अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को उंचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में मानेगा और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के, औषधीय प्रयोजनों से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा।

अनुच्छेद 48

कृषि और पशुपालन का संगठन- राज्य, कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशिष्टतया गायों और बछड़ों तथा अन्य दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परिरक्षण और सुधार के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 48क

पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा- राज्य, देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।

प्राचीन स्मारकों की रक्षा सम्बन्धी निदेशक तत्वः इन तत्वों द्वारा प्राचीन स्मारकों, कलात्मक महत्व के स्थानों और राष्ट्रीय महत्व के भवनों की रक्षा का कार्य भी राज्य को सौंपा गया है।

राज्य का कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह प्रत्येक स्मारक, कलात्मक या ऐतिहासिक रूचि के स्थानों को, जिसे संसद ने राष्ट्रीय महत्व का घोषित कर दिया हो, रक्षा करने का प्रयत्न करेगा।

42वें संवैधानिक संशोधन में कहा गया है कि राज्य ‘देश के पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा।’ राज्य के द्वारा वनों और वन्य जीवन की सुरक्षा का भी प्रयास किया जाएगा।

अनुच्छेद 49: राष्ट्रीय महत्व के संस्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण- संसद द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन राष्ट्रीय महत्व वाले घोषित किए गए कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरूचि वाले प्रत्येक संस्मारक या स्थान या वस्तु का, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन या निर्यात से संरक्षण करना राज्य की बाध्यता होगी।

अनुच्छेद 50

कार्यपालिका से न्यायपालिका का पृथक्करण- राज्य की लोक सेवाओं में, न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक करने के लिए राज्य कदम उठाएगा।

अनुच्छेद 51

अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि- राज्य-

(क) अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा की अभिवृद्धि का

(ख) राष्ट्रों के बीच न्यायसंगत और सम्मानपूर्ण संबंधों को बनाए रखने का

(ग) संगठित लोगों के एक दूसरे से व्यवहारों में अंतर्राष्ट्रीय विधि और संधि- बाध्यताओं के प्रति आदर बढ़ाने का, और

(घ) अंतर्राष्ट्रीय विवादों के मध्यस्थ द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का, प्रयास करेगा।

उत्तरोत्तर जोड़े गए निदेशक सिद्धांत

42वाँ संशोधन अधिनियम1976

 न्याय के लिए समान अवसर तथा निःशुल्क विधिक सहायता।

 पर्यावरण, वन तथा वन्यजीवन का संरक्षण।

 उद्योगों के प्रबंध में कर्मकारों के भाग लेने का अधिकार।

 शोषण के विरुद्ध बच्चों का संरक्षण तथा स्वतंत्रा व गरिमामय वातावरण में उनके स्वस्थ विकास के अवसर प्रदान करना।

44वाँ संशोधन अधिनियम: 1978

 राज्य व्यक्तियों तथा समूहों के बीच आय, प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को कम करने का प्रयास करेगा।

संविधान के अन्य भागों में (न कि भाग 4 में) विद्यमान निर्देश

 अनुच्छेद 335– इसके अनुसार, संघ या किसी राज्य के क्रियाकलाप से संबंधित सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियाँ करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों का, प्रशासन में दक्षता बनाए रखने की संगति के अनुसार ध्यान रखा जाएगा।

 अनुच्छेद 350A– इसमें प्रत्येक राज्य तथा उनके अंतर्गत आनेवाले प्रत्येक क्षेत्राय प्राधिकरण को निर्देश है कि वे भाषायीअल्पसंख्यक क्षेत्रों के बच्चों को प्राथमिक स्तर पर उनकीमातृभाषा में शिक्षा के लिए पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध कराएँ।

 अनुच्छेद 351– यह केन्द्र को हिन्दी भाषा के प्रसार को प्रोत्साहन देने का निर्देश देता है, ताकि यह भारत की साझा संस्कृति के सभी तत्त्वों की अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में कार्य कर सके।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों की उपयोगिता

कमियां और आलोचनाओं के बावजूद संविधान से जुड़ाव के संदर्भ में नीति निर्देशक तत्व आवश्यक हैं। संविधान में स्वयं भी उल्लेखित है, कि यह राष्ट्र के शासन हेतु मूलभूत हैं जाने माने निर्णायक एवं कूटनीतिज्ञ एल एम सिंघवी के अनुसार निर्देशक तत्व संविधान को जीवन दान देने वाली व्यवस्थाएं हैं। संविधान के आवरण और सामाजिक न्याय में इसका दर्शन है। भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम सी चागला के अनुसार यदि इन सभी तत्वों का पूरी तरह से पालन किया जाए तो हमारा देश पृथ्वी पर स्वर्ग की भांति लगने लगेगा। भारत राजनीतिक मामले में तब न केवल लोकतांत्रिक होगा बल्कि नागरिकों की कल्याण के हिसाब से कल्याणकारी राज्य भी होगा।

नीति निर्देशक तत्वों में हालांकि कोई विधिक अधिकार एवं कोई कानूनी उपचार नहीं है, लेकिन फिर भी वह निम्नलिखित मामलों में उल्लेखनीय एवं लाभदायक हैं-

यह भारतीय संघ की अधिकृतों को संबोधित सामान्य संस्तुतियां हैं। यह उन सामाजिक एवं आर्थिक मूल सिद्धांतों की याद दिलाते हैं जो संविधान के लक्षण की प्राप्ति से जुड़े हैं।

यह न्यायालय की लिए उपयोगी मार्गदर्शक हैं यह है न्यायालय को न्यायक समीक्षा की शक्ति के प्रयोग में सहायता करते हैं, जो की विधि की संवैधानिक वैधता के निर्धारण वाली शक्ति होती है।

यह सभी राज्य क्रियो की विधायिका या कार्यपालिका के लिए प्रभुत्व पृष्ठभूमि का निर्माण करते हैं और न्यायालय को कुछ मामलों में दिशा निर्देशित भी करते हैं।

यह प्रस्तावना को विस्तृत रूप देते हैं, जिसे भारत की नागरिकों को न्याय, स्वतंत्रता, समानता एवं बंधुत्व के प्रबल मिलता है।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों की भूमिका

यह राजनीतिक आर्थिक और सामाजिक क्षेत्र की घरेलू और विदेशी नीतियों में स्थित है और निरंतरता बनाए रखते हैं भले ही सत्ता में परिवर्तन हो जाए।

यह नागरिकों के मूल अधिकारों की पूरक होते हैं यह भाग तीन में सामाजिक एवं आर्थिक अधिकारों की व्यवस्था करते हुए रिकत्यता को पूरा करते हैं।

मूल अधिकारों के अंतर्गत नागरिकों द्वारा इनका क्रियान्वयन पूर्ण एवं उचित लाभ के पक्ष में माहौल उत्पन्न करता है राजनीतिक लोकतंत्र बिना आर्थिक लोकतंत्र का कोई अर्थ नहीं होता।

यह विपक्ष द्वारा सरकार पर नियंत्रण को संभव बनाते हैं विपक्ष, सत्ता रूढ़ दल पर निर्देशक तत्वों का विरोध एवं इसके कार्यकलापों के आधार पर आरोप लगा सकता है।

यह सरकार के प्रदर्शन की कड़ी परीक्षा करते हैं लोग सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों का परीक्षण इन संवैधानिक घोषणाओं के आलोक में कर सकते हैं।

यह आम राजनीतिक घोषणा पत्र की तरह होते हैं एक सत्ता रूढ़ दल अपनी राजनीतिक विचारधारा के बावजूद विधायिका एवं कार्यपालिका कृत्यों में इस तथ्य को स्वीकार करता है कि यह तत्व इसके प्रदर्शक, दार्शनिक और मित्र हैं ।

मूल अधिकारों एवं निर्देशक तत्वों के मध्य अंतर

मूल अधिकार

यह नकारात्मक हैं जैसा कि यह राज्य को कुछ मसलों पर कार्य करने से प्रतिबंधित करते हैं।

यह न्यायोचित होते हैं इनके हनन पर न्यायालय द्वारा इन्हें लागू किया जा सकता है।

इनका उद्देश्य देश में लोकतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था स्थापित करना है।

यह कानूनी रूप से मान्य है।

यह व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं इस प्रकार यह व्यक्तिक हैं।

इनको लागू करने के लिए विधान की आवश्यकता नहीं यह स्वत लागू है।

न्यायालय इस बात के लिए बाध्य है कि किसी भी मूल अधिकार के हनन की विधि को वह गैर संवैधानिक एवं अवैध घोषित करें।

निर्देशक तत्व

यह सकारात्मक है, राज्य को कुछ मसलों पर उनकी आवश्यकता होती है।

यह गैर न्यायोचित होते हैं, इन्हें कानूनी रूप से न्यायालय द्वारा लागू नहीं कराया जा सकता है।

इनका उद्देश्य देश में सामाजिक एवं आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना करना है।

इन्हें नैतिक एवं राजनीतिक मान्यता प्राप्त है।

यह समुदाय की कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं, इस तरह यह समाजवादी हैं।

इन्हें लागू रखने के लिए विधान की आवश्यकता होती है यह स्वत लागू नहीं होते हैं।

निर्देशक तत्वों का उल्लंघन करने वाली किसी विधि को न्यायालय असंवैधानिक और अवैध घोषित नहीं कर सकता। यद्यपि विधि की वैधता को इस आधार पर सही ठहराया जा सकता है, कि इन्हें निर्देशक तत्वों को प्रभावित करने के लिए लागू किया गया था।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों का महत्व

नीति निर्देशक तत्वों की आलोचना आलोचकों द्वारा की गई लेकिन इससे हमें यह तात्पर्य नहीं लगना चाहिए कि वे बिल्कुल व्यर्थ और महत्वहीन हैं। वास्तव में संवैधानिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से निर्देशक तत्वों का बहुत अधिक महत्व है। इन तत्वों के महत्व का अध्ययन निम्नलिखित रूपों में किया जा सकता है:

निर्देशक तत्वों के पीछे जनमत की शक्ति

यद्यपि निर्देशक तत्वों को न्यायालय द्वारा क्रियान्वित नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके पीछे जनमत की सत्ता होती है जो प्रजातंत्र का सबसे बड़ा न्यायालय है। अतः जनता के प्रति उत्तरदाई कोई भी सरकार उनकी अवहेलना का साहस नहीं कर सकती। शान द्वारा किया गया इन तत्वों का उल्लंघन देश में शक्तिशाली विरोध को जन्म देगा।

नैतिक आदर्श के रूप में महत्व

यदि निर्देशक तत्वों को केवल नैतिक धारणाएं ही मान लिया जाए तो इस रूप में भी इनका अपार महत्व है। ब्रिटेन में मैग्नाकार्टा, फ्रांस में मानवीय तथा नागरिक अधिकारों की घोषणा तथा अमेरिकी संविधान की प्रस्तावना को कोई वैधानिक शक्ति प्राप्त नहीं है, फिर भी इन देशों के इतिहास पर इनका प्रभाव पड़ा है। इसी प्रकार उचित रूप में यह आशा की जाती है कि यह निर्देशक तत्व भारतीय शासन की नीति को निर्देशित और प्रभावित करेंगे।

संविधान की व्याख्या में सहायक

संविधान के अनुसार निदेशक तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं जिसका तात्पर्य यह है कि देश की प्रशासन के लिए उत्तरदाई सभी सत्ताएं निर्देशित होगी। न्यायपालिका भी शासन का एक महत्वपूर्ण अंग होने के कारण यह आशा की जाती है, कि भारत में न्यायालय संविधान की व्याख्या में निर्देशक तत्वों को उचित महत्व देगा।

कार्यपालिका प्रधान इनका दुरुपयोग नहीं कर सकते है

निर्देशक तत्वों के पक्ष में एक बात यह कहीं जा सकती है कि यद्यपि संविधान सभा के सदस्यों और कुछ संविधान बेत्ताओं ने यह भय प्रकट किया है, कि राष्ट्रपति या राज्यपाल इस आधार पर किसी विधेयक पर अपनी सहमति देने से इनकार कर सकते हैं कि वह निर्देशक तत्वों के प्रतिकूल हैं, लेकिन व्यवहार में ऐसी घटना की संभावना बहुत कम है, क्योंकि संसदीय शासन प्रणाली में नाम मात्र का कार्यपालिका प्रधान लोकप्रिय विधानमंडल और मंत्री परिषद द्वारा पारित विधि को अस्वीकृत करने का दुस्साहस नहीं कर सकता है। निर्देशक तत्व इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है कि इनमें गांधीवादी आदर्शों को स्थान दिया गया है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है की वैधानिक शक्ति प्राप्त न होने के बाद भी निर्देशक तत्वों का अपना महत्व और उपयोगिता है।

संविधान निर्माता ने नीति निर्देशक तत्वों में शक्ति निहित नहीं की क्यों?

संविधान निर्माता ने नीति निर्देशक तत्वों को गैर न्यायोचित एवं विधि रूप से लागू करने की बाध्यता वाला नहीं बनाया क्योंकि देश के पास उन्हें लागू करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं थे।

देश में व्यापक विविधता एवं पिछड़ापन इनके क्रियान्वयन में बाधक होता।

स्वतंत्र भारत को नए निर्माण के कारण इसे कई तरह की भारो से मुक्त रखना होगा, ताकि उसे इस बात के लिए स्वतंत्र रखा जाए कि उनके क्रम, समय, स्थान एवं पूर्ति का निर्णय लिया जा सके।

इसलिए संविधान निर्माता ने नीति निर्देशक तत्वों को प्रस्तुत करने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया और इन तत्वों में शक्ति निहित नहीं की उन्होंने न्यायालय प्रक्रिया से ज्यादा जागरूक जनता के मतों में विश्वास प्रकट किया।

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों की आलोचना और उनका मूल्याँकन

राज्य-नीति के निर्देशक तत्त्वों की आलोचना प्रायः होती रही है। संविधान सभा में भी इन पर खुलकर चर्चा हुई थी। संविधान सभा में भी प्रो. के.टी. शाह ने कहा था राज्य-नीति के ये निर्देशक तत्त्व एक ऐसे चैक समान है जिनका भुगतान बैंक की इच्छा पर छोड़ दिया गया है।“ कई आलोचकों ने इन सिद्धांतों को संविधान-निर्माताओं की पवित्र भावनाओं और आकांक्षाओं पर संग्रह-मात्र कहा है। कतिपय आलोचकों ने इन्हें ‘थोथे वचनों’ की संज्ञा दी है।

आलोचना के मुख्य आधार प्रायः ये रहें हैं-

1. ये तत्त्व वाद-योग्य नहीं हैं, अतः इनके पीछे कोई बाध्यता भी नहीं है। यह राज्य की इच्छा पर है कि वह इन्हें कहाँ तक लागू करता है। इस प्रकार ये राजनीतिक घोषणा मात्र हैं। न्यायिक बाध्यता के अभाव के कारण इनकी शक्ति बहुत ही कमजोर हो गई है।

2. इन तत्त्वों में वर्णित अनेक तथ्य बड़े अनिश्चित और अस्पष्ट हैं। उदाहरणार्थ, समाजवादी सिद्धांतों में श्रमिकों और मालिकों के पारस्परिक सम्बन्धों के बारे में कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है और न ही राष्ट्रीय योजनाओं को कोई स्पष्ट विवरण दिया गया है।

3. कुछ ऐसे तत्त्व भी गिना दिए गए हैं जिनका पालन व्यवहार में असम्भव-सा है, जैसे मद्य-निषेध। इस प्रकार के तत्त्वों या सिद्धांतों का अनुपालन न होने से अन्य सिद्धांतों के प्रति भी जन-साधारण की निष्ठा कम हो जाती है।

4. निर्देशक तत्त्वों को लागू करने का बढ़ा-चढ़ा अथवा मिथ्या आश्वासन देकर चुनाव-युद्ध जीतने की चाल खेली जाती है।

5. संविधान में कुछ निर्देशक तत्त्व इस प्रकार के हैं जिन्हें एक निश्चित अवधि में पूरा किया जाना था। उदाहरणार्थ, संविधान लागू होने के 10 वर्ष के भीतर 14 वर्ष के बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा की व्यवस्था करनी थी, किन्तु ऐसा पिछले 42 वर्षों में भी सभी राज्यों में संभव नहीं हो पाया है। इसी प्रकार उत्पादन और वितरण के साधनों की न्यायपूर्ण व्यवस्था भी आज तक सम्पादित नहीं हो सकी है।

6. कुछ क्षेत्रों में यह भी कहा गया है कि निर्देशक तत्त्वों का संविधान में समावेश कुछ निहित राजनीतिक स्वार्थों के कारण किया गया था। राज्यों की यह माँग थी कि संविधान में शिक्षा सम्बन्धी, विश्राम सम्बन्धी और बेकारी सम्बन्धी अधिकारों को सम्मिलित कर लिया जाए तथा यथासम्भव उन्हीं मौलिक अधिकारों को अध्याय में स्थान दिए जाएँ। ऐसे लोगों के राजनीतिक सन्तोष के लिए अथवा उनकी इच्छा-पूर्ति के लिए भी निर्देशक सिद्धांतों की व्यवस्था की गई।

7. कुछ निर्देशक तत्त्वों को मूल, अधिकारों के अध्याय में गिनाया जाना उचित था, यथा-काम करने का अधिकार, आर्थिक सुरक्षा आदि।

8. संविधान-सभा में कांग्रेस दल का ही प्रचण्ड बहुमत था। अतः निर्देशक तत्त्वों पर कांग्रेस की छाप स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।

9. मूल अधिकारों और निर्देशक तत्त्वों में द्वन्द्व की स्थिति बनी रही है। न्यायिक निर्णय जब तक बदलते रहे हैं और फलस्वरूप नौकरशाही तथा जनता के बीच तनाव के बिन्दु पनपते रहे हैं।

10. निर्देशक तत्त्वों के अध्याय में केवल लक्ष्यों की चर्चा है, लक्ष्यों को प्राप्त करने के साधनों की नहीं।

11. आइवर जेनिंग्स का मत है कि निर्देशक तत्त्व किसी निश्चित और संगतपूर्ण दर्शन पर आधारित नहीं है अस्पष्ट हैं न समुचित रूप से क्रमबद्ध है और न ठीक ढंग से

12. निर्देशक तत्त्वों की कार्यन्विति की प्रगति इतनी धीमी अथवा ‘कछुवा चाल’ रही है कि संविधान में इन्हें स्थान देने की उपयोगिता ही सन्देहास्पद हो जाती है।

लेकिन निर्देशक तत्त्वों की उपर्युक्त आलोचनाएँ अतिरंजित हैं। इन तत्त्वों की उपयोगिता संवैधानिक महत्ता और पवित्राता के बारे में पिछले पृष्ठों में बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

उपुर्यक्त आलोचनाओं को ठोस जवाब निम्न रूप से दिया जा सकता है।

(क) ये तत्त्व देश में सामाजिक और धार्मिक क्रान्ति लाने के लिए राज्य के मार्गदर्शक हैं। हथेली पर सरसों नहीं जमा करती, सदियों की गुलामी और शोषण के बाद देश आजाद हुआ अतः आर्थिक और सामाजिक समृद्धि लाने में कुछ दशाब्दियों का लग जाना सर्वथा स्वाभाविक है।

(ख) निर्देशक तत्त्वों की कार्यान्विति के लिए केन्द्र और राज्य सरकारों द्वारा निरन्तर प्रयत्न किए जा रहे हैं। पंचवर्षीययोजनाओं के माध्यम से सम्पादित किए गए जन-हितकारी कार्य, इसका ठोस प्रमाण हैं। पंचायती राज्य की स्थापना, धन के केन्द्रीयकरण की रोकथाम के कदम, अनेक उद्योग-धन्धों और बैंकों का राष्ट्रीयकरण, जमींदारी उन्मूलन, अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कल्याणकारी कार्य, न्यायपालिका और कार्यपालिका का काफी हद तक पृथक्करण, न्यूनतम मजदूरी का निर्धारण, भूमिहीनों में भूमि का वितरण, सामुदायिक विकास योजनाओं द्वारा ग्रामीणों को ऊँचा उठाने के प्रयत्न, राजाओं के प्रिवीवर्स की समाप्ति, अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में शान्ति और सुरक्षा की नीति- ये सब बातें नीति-निर्देशक तत्त्वों की क्रियान्विति की दिशा में ठोस प्रगति की सूचक है।

(ग) संविधान के पच्चीसवें संशोधन के बाद मूल अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों में द्वन्द्व प्रायः समाप्त हो गया है।

(घ) निर्देशक तत्त्वों पर ‘कांग्रेस की छाप’ का आरोप वजन नहीं रखता है। ये तत्त्व समूचे देश के कल्याण के लिए हैं। ये तत्त्वप्रगतिशीलता के प्रतीक हैं और कट्टर देशभक्त संविधान-निर्माताओं पर ‘अविश्वास का लेबल’ लगाना छिछलापन ही कहलायेगा।

(ड.) काम करने के अधिकार, आर्थिक सुरक्षा आदि के निर्देशक तत्त्वों को मूल अधिकारों में गिनाया जाना इसलिए उचित नहींथा कि तत्कालीन समय में भारत की आर्थिक स्थिति इसके लिए इजाजत नहीं देती थी। इसके अतिरिक्त, अमेरिका और ब्रिटेन जैसे महान लोकतान्त्रिक संविधानों में भी काम करने के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची में नहीं रखा गया है। वास्तव में यह तो प्रत्येक सरकार का निश्चित कर्त्तव्य ही है कि वह देश में रोजगार की समुचित व्यवस्था के लिए प्रयत्न करे। अतः मार्ग-निर्देशक सिद्धांत के रूप में इसे संविधान में रखा जाना सर्वथा उपयुक्त है।

(च) नीति-निर्देशक तत्त्वों के महत्त्व को केवल उपलब्धि के रूप में ही नहीं मापना चाहिए। उनका महत्त्व प्रेरणा के स्रोत औरमार्गदर्शक प्रकाश-स्तम्भ के रूप में भी है।

किसी भी लोकतंत्र की सुरक्षा नागरिकों की सतत् जागरूकता पर निर्भर है। टी.के.टोपी के इस कथन से असहमत होना कठिन है कि ”यदि भारतीय जनता और विधान-मण्डलों में उनके प्रतिनिधि कार्यकारिणी की गतिविधियों की अच्छी प्रकार निगरानी करें तो निर्देशक तत्त्व अवश्य ही सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक सुधारों के लिए एक प्रभावशाली साधन प्रमाणित हो सकते हैं।

FAQ

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत कितने प्रकार के होते हैं?

राज्य की नीतियों के निदेशक सिद्धांतों को निम्नलिखित श्रेणियों के तहत वर्गीकृत किया गया है: ये आर्थिक और समाजवादी, राजनीतिक और प्रशासनिक, न्याय और कानूनी, पर्यावरण, स्मारकों की सुरक्षा, शांति और सुरक्षा हैं।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का मुख्य उद्देश्य क्या है?

राज्य नीति के निर्देशक तत्वों (Directive Principles of State Policy- DPSP) का प्रमुख उद्देश्य जनता के लिये सामाजिक-आर्थिक न्याय सुनिश्चित करना और भारत को एक कल्याणकारी राज्य के रूप में स्थापित करना है।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतो का वर्णन कहाँ किया गया हैं?

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के नीति निर्देशक तत्व शामिल किए गये हैं।

कुल कितने निर्देशक सिद्धांत हैं?

भारतीय संविधान में कुल 16 निर्देशक सिद्धांत है जोकि अनुच्छेद (36 से 51) सूचीबद्ध हैं। राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का वर्गीकरण तीन खंडों में किया गया है। डीपीएसपी भारत के शासी निकायों को दिशा निर्देश प्रदान करता है।

राज्य के नीति निर्देशक तत्व व मूल अधिकारों में कैसे संबंध है स्पष्ट कीजिए?

मूल अधिकार और नीति निदेशक तत्त्व दोनों ही संवैधानिक ढाँचे के अभिन्न अंग हैं। ये दोनों ही समान रूप से महत्वपूर्ण हैं और इन्हें एक-दूसरे के संदर्भ में देखा जाना चाहिये। जहाँ मौलिक अधिकार व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं वहीं नीति निदेशक तत्त्व समुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं।

संविधान में नीति निर्देशक तत्व क्या है?

नीति निर्देशक तत्त्व भारत में केंद्र और राज्य सरकारों को दिशा-निर्देश प्रदान करता है, जिन्हें कानून और नीतियां बनाते समय ध्यान में रखा जाना चाहिए। भारतीय संविधान के भाग- IV के अंतर्गत अनुच्छेद 36-51 राज्य के नीति निर्देशक तत्वों (DPSP) से संबंधित है।

नीति निर्देशक का मतलब क्या होता है?

नीति निदेशक सिद्धांत आदर्श सिद्धांत है जिनको हर सरकार अपनी नीतियों के निर्धारण और कानून बनाने में सदैव ध्यान में रखेगी इसमें वह आर्थिक सामाजिक और प्रशासनिक सिद्धांत अंतर्निहित है जो भारत की विशिष्ट परिस्थितियों के अनुकूल है।

निर्देशक सिद्धांतों का महत्व क्या है?

निर्देशक सिद्धांत यह सुनिश्चित करते हैं कि राज्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था हासिल करके लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने का प्रयास करेगा जिसमें अनुच्छेद 38 (1) के अनुसार जीवन के सभी संस्थानों में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय अनुप्राणित/सूचित हो।

नीति निदेशक तत्व क्यों जरूरी है?

नीति निदेशक सिद्धांत संविधान द्वारा राज्यों को दिए गए, वे अधिकार हैं जिनका उपयोग राज्य सरकार उस राज्य की जनता के कल्याण हेतु करती है, जैसे- शिक्षा सुविधाएँ प्रदान करना, बिना किसी भेद-भाव के रोजगार की व्यवस्था करना, यातायात, सुरक्षा आदि।

निदेशक सिद्धांतों की कमियां क्या हैं?

इसका कोई कानूनी बल नहीं है। यह अतार्किक रूप से व्यवस्थित है। यह प्रकृति में रूढ़िवादी है। यह केंद्र और राज्य के बीच संवैधानिक टकराव पैदा कर सकता है।

राज्य नीति के कितने निर्देशक सिद्धांत हैं?

भारतीय संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक शामिल हैं।

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों का मूल उद्देश्य क्या है?

भारतीय संविधान के राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक न्याय प्रदान करना और कुछ लोगों के हाथों में धन की एकाग्रता को रोकना है।

नीति निर्देशक सिद्धांत कहाँ से लिया गया?

भारतीय संविधान में वर्णित नीति निदेशक सिद्धांतों को आयरलैंड से लिया गया है I

राज्य के नीति निदेशक तत्व कौन से भाग में है?

राज्य नीति के निदेशक तत्व संविधान के भाग IV में वर्णित हैं।

राज्य के नीति निर्देशक तत्व का क्या अर्थ है?

राज्य के नीति निर्देशक तत्व (directive principles of state policy) जनता के कल्याण के लिए हैं। इन्हे आयरलैंड (Ireland) के संविधान लिया गया है। इन तत्वों का कार्य एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना करना है।

राज्य के नीति निर्देशक तत्व व मूल अधिकारों में कैसे संबंध है स्पष्ट कीजिए?

मूल अधिकार और नीति निदेशक सिद्धांत दोनों ही संवैधानिक ढाँचे के अभिन्न अंग हैं। ये दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं और इन्हें एक-दूसरे के संदर्भ में देखा जाना चाहिये। जहाँ मौलिक अधिकार व्यक्तिगत कल्याण को प्रोत्साहन देते हैं वहीं नीति निदेशक तत्त्व समुदाय के कल्याण को प्रोत्साहित करते हैं।

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