पृथ्वी की आंतरिक संरचना | Prithvi Ki Aantrik Sanrachna

पृथ्वी की आंतरिक संरचना (Prithvi Ki Aantrik Sanrachna) के तीन प्रधान अंग हैं- ऊपरी सतह भूपर्पटी (Crust), मध्य स्तर मैंटल (mantle) और आंतरिक स्तर धात्विक क्रोड (Core)। पृथ्वी के कुल आयतन का 0.5% भाग भूपर्पटी का है जबकि 83%’ भाग में मैंटल विस्तृत है। शेष 16′ भाग क्रोड है। पृथ्वी की आकृति लध्वक्ष गोलाभ (Oblate spheroid) के समान है।

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पृथ्वी की आन्तरिक संरचना (Prithvi Ki Aantrik Sanrachna)

पृथ्वी की आन्तरिक संरचना से तात्पर्य उसकी आन्तरिक बनावट से है। पृथ्वी की संरचना विभिन्न परतों से हुई हैं, जो प्याज के छिलके की तरह एक दूसरे के ऊपर स्थित हैं।

परतें विभिन्न रासायनिक पदार्थों से बनी हुई हैं और इन परतों का विकास पृथ्वी की उत्पत्ति के समय हुआ। प्रारम्भ में पृथ्वी गैसीय तथा तरल अवस्था में थी, जो बाद में ठण्डी होकर ठोस बनी।

इस शीतलन एवं ठोसीयकरण की प्रक्रिया के समय अधिक घनत्व के कण सबसे नीचे बैठ गए। इस प्रकार प्रमुख परतों का निर्माण हुआ, जो अपने घनत्व के अनुसार एक दूसरे पर स्थित हैं। पृथ्वी के आन्तरिक भाग की जानकारी केवल परोक्ष वैज्ञानिक प्रमाणों पर ही आधारित है।

पृथ्वी के आन्तरिक भाग की जानकारी के स्रोत

1. अप्राकृतिक स्रोत

(क) घनत्व – भू-वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी का ऊपरी भाग परतदार शैलों का बना है, जिसकी औसत मोटाई 8.45 किमी. तक पाई जाती है। इस परतदार सतह के नीचे पृथ्वी के चारों ओर रवेदार अथवा स्फटिकीय शैल की एक दूसरी परत है।

इसका और इसकी निचली परत का घनत्व 2.75 से 2.90 तक होता है। इन सारी परतों को भूपर्पटी के नाम से जाना जाता है। इसके नीचे मैटल पाया जाता है, जो सिलिकेट और मैग्नेशियम शैलों से बना है।

इसका घनत्व 3.10 से 5.00 तक है और इस परत के बाद धात्विक क्रोड या अन्तरतम मिलता है, जिसका घनत्व 5.10 से 13.00 तक पाया जाता है।

सम्पूर्ण पृथ्वी का औसत घनत्व 5.5 है। 1950 के बाद स्पुतनिक के आधार पर पृथ्वी के औसत घनत्व के परिकलन का सिलसिला शुरू हो गया है।

(ख) दबाव – शुरू में यह कल्पना की गई थी कि ऊपर से नीचे की ओर जाने पर पर चट्टठ्ठानों का भार तथा दबाव बढ़ता जाता है, इसलिए पृथ्वी के अन्तरतम का अधिक घनत्व बढ़ते हुए दबाव के कारण है, क्योंकि बढ़ते हुए दबाव के साथ चट्टान का घनत्व भी बढ़ जाता है।

इसलिए पृथ्वी के अन्तरतम का अत्यधिक घनत्व वहाँ पर स्थित अत्यधिक दबाव के कारण है। लेकिन आधुनिक प्रयोगों द्वारा यह साबित कर दिया गया है कि प्रत्येक शैल में एक ऐसी सीमा होती है जिसके आगे उसका घनत्व अधिक नहीं हो सकता, चाहे उसका दबाव कितना भी अधिक क्यों न कर दिया जाए।

इस बात से हमें यह संकेत मिलता है कि अन्तरतम का घनत्व उन धातुओं की वजह से है जिन पदार्थों से इसका निर्माण हुआ है। ये धातुएं हैं- निकेल और लोहे का मिश्रण, जो इसको चुम्बकीय शक्ति भी प्रदान करती है।

(ग) तापमान – सामान्यतः खानों और दूसरे स्रोतों से उपलब्ध विवरणों के आधार पर पृथ्वी की ऊपरी सतह से नीचे की ओर गहराई में जाने पर औसत रूप में तापमान प्रत्येक 100 मीटर की गहराई पर 2 या 3 डिग्री सेल्सियस की दर से बढ़ता है।

लेकिन आठ किमी. से अधिक गहराई पर जाने पर तापमान की वास्तविक वृद्धि दर का पता लगाना मुश्किल है। धरातल से लगभग 100 किमी. की गहराई तक 12 डिग्री सेल्सियस प्रति किमी. उसके नीचे 300 किमी. तक 2 डिग्री सेल्सियस प्रति किमी. और उसके नीचे 1 डिग्री सेल्सियस प्रति किलोमीटर।

इस गणना के अनुसार धात्विक क्रोड़ का तापमान 2,000 डिग्री सेल्सियस है।

2. प्राकृतिक स्रोत

(क) ज्वालामुखी क्रिया – जब कभी भी ज्वालामुखी के उद्गार की प्रक्रिया शुरू होती है, तो उस समय पृथ्वी के अन्दर से गर्म और तरल लावे का धरती पर आगमन शुरू हो जाता है जो पृथ्वी पर विशाल मैग्मा भण्डार के रूप में स्थित हो जाता है।

यह इस बात का प्रमाण है कि पृथ्वी की गहराई में कम-से-कम एक ऐसी परत अवश्य है, जो सदैव तरल अवस्था में रहती है। लेकिन यह बात उल्लेखनीय है कि पृथ्वी के ऊपरी भाग से पड़ने वाला भारी दबाव आन्तरकि भाग की चट्टानों को द्रव अवस्था में आने नहीं देता। इस कारण आन्तरिक भाग ठोस होता है न कि तरल।

(ख) भूकम्प विज्ञान के साक्ष्य – भूकम्प विज्ञान ही ऐसा प्रत्यक्ष साधन है जिससे पृथ्वी के आंतरिक भाग की बनावट का स्पष् अनुमान लगा पाना संभव हुआ। इस विज्ञान के अंतर्गत भूकम्पनीय लहरों का सिस्मोग्राफ यंत्र द्वारा अंकन करके अध्ययन किया जाता है।

भूकम्प की विभिन्न लहरों की प्रकृति एवं गति भिन्न-भिन्न होती है। पृथ्वी के विभिन्न संरचनाओं में इनकी गति से पृथ्वी की आंतरिक बनावट का अनुमान लगाने में सहायता मिलती है।

पृथ्वी का रासायनिक संगठन एवं विभिन्न परतें

पृथ्वी के आन्तरिक भाग की रासायनिक बनावट एक विवादास्पद विषय है। इस रासायनिक बनावट के विभिन्न मत निम्नलिखित है।

1. स्वेस के अनुसार – भूपटल का ऊपरी भाग अवसाद से निर्मित परतदार शैलों का बना हैं, जिसकी परत रवेदार शैल विशेषकर सिलिकेट पदार्थों की बनी है और इसमें फेल्सपार एवं अभ्रक आदि खनिजों की बहुतायत होती है।

प्रथम परत हल्के सिलीकेट पदार्थों की बनी हैं, जिसके नीचे स्वेस ने तीन परतों की स्थिति मानी हैं-

i. सियाल – इसकी रचना सिलिका एवं एल्यूमिनियम से। औसत घनत्व 2.9 तथा औसत गहराई 50-300 किमी. मुख्यतः ग्रेनाइट चट्टान।

ii. सीमा – मुख्यतः बेसाल्ट आग्नेय शैल/सिलिका एवं मैग्नीशियम की प्रधानता। औसत घनत्व 2.9 से 4.7 तथा औसत गहराई 1000 से 2000 किमी। यहीं से ज्वालामुखी उद्गार के समय गर्म एवं तरण लावा बाहर निकलता है।

iii. निफे – इसकी रचना निकल एवं फेरियम से मिलकर बनी है। औसत घनत्व 11 तथा व्यास 6880 किमी. (4300 मील)।

2. डाली का मत-तीन परतें- विभिन्न प्रमाणों के आधार पर पृथ्वी को रासायनिक बनावट के आधार पर तीन परतों में बाँटा जाता है।

i. बाहरी परतें- सिलिकेट से निर्मितं औसत घनत्व 3 एवं मोटाई 1600 किमी।

ii. मध्यवर्ती परतें- लोहे एवं सिलिकेट के मिश्रण से मिलकर बनी है। औसत घनत्व 4.5 से 9 तथा मोटाई 1280 किमी।

iii. केन्द्रीय भाग- लोहे से निर्मित। घनत्व 11.6 एवं व्यास 7040 किमी।

3. अभिनव मत – पृथ्वी के आंतरिक भाग को तीन वृहत मण्डलों में विभाजित किया गया है-

पृथ्वी की परतों का विषम विन्यास

i. मोहो विशिक विन्यास: क्रस्ट और मेंटल को विभाजित करता है।

ii. कन्कार्ड विषम विन्यास:  ऊपरी तथा आन्तरिक क्रस्ट को विभाजित करता है।

iii. विचार्ट– गुटनवर्ग मेटल और कोर के बीच

iv. रेपेडी विषम विन्यास: बाह्य और आंतरिक मेंटल को विभाजित करता है।

v. ट्रान्जिशन विषम विन्यास बाह्य और आंतरिक कोर को विभाजित करता है।

1. क्रस्ट– दबाव में अंतर के कारण ऊपरी क्रस्ट का घनत्व 2.8, जबकि निची क्रस्ट का घनत्व 3.0 है।

2. मैण्टिल – मोहो असम्बद्धता से लगभग 2900 किमी की गहराई तक मैण्टिल का विस्तार। मोटाई पृथ्वी की समस्त अर्धव्यास (6371 किमी) के आधे से कम है।

3. अन्तरम – विस्तार 2900 किमी से पृथ्वी के केन्द्र यानि 6371 किमी तक इसे दो उपभागों में विभक्त- 1. बाह्य एवं 2. आंतरिक। इन दोनों के बीच की विभाजक सीमा 5150 किमी की गहराई पर निश्चित है।

पृथ्वी के भूपर्पटी के प्रमुख तत्व

1. ऑक्सीजन 46.60%

2. सिलिकन 27.72%

3. एल्युमिनियम 8.13%

4. लौह 5.00%

5. कैल्शियम 3.63%

6. सोडियम 2.83%

7. पोटैशियम 2.59%

8. मैग्निशियम 2.09%

9. अन्य 1.41%

प्लेट विवर्तनिक सिद्धांत 20वीं शताब्दी के सातवें-आठवें दशक में अनेक विद्वानों ने प्लेट विवर्तनिकी पर आधारित नए विचार प्रस्तुत किए।

हेस तथा डीज ने सन् 1962 में अपने सिद्धांत में बताया कि समुद्र की तलहती में उपस्थित शैले स्थान परिवर्तित करती है जिसके परिणामस्वरूप संवहन धाराएं उत्पन्न होती है एवं विभिन्न समुद्री संरचनाओं का निर्माण होता है। जैसे समुद्री पर्वत श्रेणियाँ आदि।

प्लेट संकल्पना का प्रादुर्भाव दो तथ्यों दो तथ्यों के आधार पर हुआ है- 1.महाद्वीप प्रवाह की संकल्पना 2. सागर तली प्रसारण।

पृथ्वी की आंतरिक बनावट

1. भूपर्पटी

i. स्थलमण्डल की ऊपरी परत, जो धरातल के नए अवसादों के ठीक नीचे है

रसायनिक बनावट: सियाल (सिलिका ,एल्युमिनियम) अवसादी एवं ग्रेनाइट चट्टाने

औसत मौटाई: 8 से 45 किमी. (मुख्य रूप से, महाद्वीपों के नीचे)

घनत्व – 2.75-2.90

भौतिक गुण- ठोस अवस्था

ii. स्थलमण्डल की आन्तरिक परत या बाह्य सिलिकेट (सिलिका, एल्युमिनियम) अवसादी एवं ग्रेनाइट चट्टाने 45 से 100 किमी. कुछ भाग महासागरों के नीचे भी

2. मैंटल

i. आन्तरिक सिलिकेट परत

रसायनिक बनावट: सीमा आंशिक रूप से (सिलिकेट , मैग्नीशियम)

औसत मौटाई: 100 से 1,700 किमी. मुख्यतः महासागरों के नीचे

घनत्व:  3.10-4.75

भौतिक गुण: कुछ गुण ठोस के और प्लास्टिक के, गलने की स्थिति के पास

ii. धातुओं एवं सिलिकेट के मिश्रण से बना परिवर्तन

रसायनिक बनावट: पूर्णतः साइमा अतिक्षारीय चट्टानें

औसत मौटाई: 1,700 से 2,900 किमी.

घनत्व: 4.75-5.00

भौतिक गुण: ठोस पदार्थ जैसा आचरण, भारी

3. धात्विक क्रोड़ या निफे

i. बाह्य धात्विक क्रोड: निकेल, फैरस या लोहा

मोटाई: 2,900 से 4,980 किमी.

घनत्व: 5.10-11.00

भौतिक गुण: तरल अथवा प्लास्टिक अवस्था में

ii. आंतरिक धात्विक क्रोड: भारी धातुओं से बनी

मोटाई: 4980 से 6,400 किमी.

भौतिक गुण: अत्यधिक दबाव के कारण ठोस

प्लेटों की गति के कारण

पृथ्वी के भूपर्पटीय या प्लेट के नीचे मैटिल में कहीं-कहीं रेडियोधर्मी तत्वों की अधिकता के कारण भू-तापीय ऊर्जा उत्पन्न हो जाती है। यह ऊर्जा संवहनीय तरंगों द्वारा ऊपर उठती है, जो प्लेट की निचली सतह तक आती है।

इस ऊपर उठती बेलनाकार तरंग को ही प्लेट के संचलन का प्रमुख कारण माना जाता है क्योंकि प्लूस ही प्लेट को पिघलाती है तथा उसके किसी किनारे को धक्का देकर ऊपर उठती है, जिसमें प्लेट एस्थिनोस्फीयर पर तैरने लगती है।

सन् 1970 के पश्चात् विभिन्न  वैज्ञानिक अन्वेषणों से यह प्रमाणित हो चुका है कि भूपटल और उसके नीचे की मैंटल परत, जो सम्मिलित रूप से स्थलमण्डल कहलाती है।

6 बड़ी और 20 छोटी दृढ़ व कठोर भू-प्लेटों में विभक्त है, जिनकी औसत मोटाई लगभग 100 किमी. है जो हजारों वर्ग किलोमीटर में विस्तृत है। इन भू-प्लेटों पर स्थलाकृतियों का निर्माण भ्रंशन, विस्थापन आदि क्रियाओं द्वारा होता है, जिन्हें विवर्तनिकी कहते हैं।

महासागरों का निर्माण करने वाली महासागरीय प्लेट तथा महाद्वीप का निर्माण करने वाली महाद्वीपीय प्लेट कहलाती हैं। भूपटल के नीचे कठोर शैलों का मैंटल परत तथा उसके नीचे दुर्बलता मण्डल में पिघलता मैग्मा संवाहन क्रिया द्वारा ऊपर उठकर दाईं और बाईं ओर प्रवाहित होता है, जिससे भू-प्लेटों में विस्थापन होता है।

इस सिद्धांत के अनुसार स्थलमण्डल मध्यम दृढ़ प्लेटों में विभक्त है तथा ये निंरतर सापेक्ष दिशा में संचालन कर रही हैं।

बड़ी प्लेटें

1. अंटार्कटिक प्लेट (जिसमें अंटार्कटिक से घिरा महासागर भी शामिल है, क्षे. -60.9 लाख वर्ग किमी.)

2. उत्तरी अमेरिकी प्लेट (जिसमें परिश्चमी अंधमहासागरीय तल सम्मिलित है तथा दक्षिणी अमेरिकन प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसकी सीमा का निर्धारण करते हैं, क्षे. 75.9 लाख वर्ग किमी.)

3. दक्षिणी अमेरिकी प्लेट व कैरेबियन द्वीप इसे पृथक् करते हैं

4. प्रशांत महासागरीय प्लेट (103.3 लाख वर्ग किमी.)

5. इंडो-आस्ट्रेलियन– न्यूजीलैण्ड प्लेट (47.2 लाख वर्ग किमी.)

6. अफ़्रीकी प्लेट (जिसमें पृथ्वी पूर्वी अटलांटिक तल शामिल है, 78 लाख वर्ग किमी.)

7. युरेशियाई प्लेट (जिसमें पूर्वी अटलांटिक महासागरीय तल सम्मिलित है, 67.8 लाख वग किमी.)

छोटी प्लेटें

1. कोकोस प्लेट– यह प्लेट मध्यवर्ती अमेरिका और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

2. नज़का प्लेट – यह दक्षिण अमेरिका व प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

3. अरेबियन प्लेट – इसमें अधिकतर अरब प्रायद्वीप का भू-भाग सम्मिलित है।

4. फिलिपीन प्लेट – यह एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

5. कैरोलिन प्लेट – यह एशिया महाद्वीप और प्रशांत महासागरीय प्लेट के बीच स्थित है।

6. फ्यूजी प्लेट – यह आस्ट्रेलिया के उत्तर-पूर्व में स्थित है।

7. जुआन डी फुका प्लेट – सबसे छोटी प्लेट जो प्रशांत प्लेट के उत्तर-पश्चिम में स्थित है।

i. अपचरण क्षेत्र– इस सीमा पर प्लेटें एक-दूसरे से अलग होती है। इस प्रक्रिया में भूगर्भ से मैग्मा बाहर आ जाता है। जहाँ नए महासागरीय अधस्तल के रूप में स्थलमण्डल का निर्माण हो रहा हो, वहाँ ऐसा रैखिक महासागरीय कटकों के साथ-साथ देखा जाता है। सक्रिय ज्वालामुखी इस क्षेत्र की विशेषता है।

ii. अभिसरण क्षेत्र– इस क्षेत्र में एक प्लेट का किनारा दूसरे पर चढ़ जाता है, जिससे नीचे की प्लेट मैंटल में फिसलकर इसी में विलीन हो जाती है। इन सीमाओं पर ज्वालामुखी का उद्भव, गहरी सागरीय खाई, द्रोणियों, वलित पर्वतों की रचना होती है।

iii. रूपांतर भ्रंश– इस क्षेत्र में न तो भूपर्पटी का निर्माण होता है और न विनाश। यहाँ प्लेटें एक-दूसरे के विपरीत दिशा में साथ-साथ खिसकती है।

प्लेट प्रवाह दरें– सामान्य व उत्क्रमण चुम्बकीय क्षेत्र की पट्टियाँ, जो मध्य-महासागरीय कटक के समानान्तर हैं, प्लेट प्रवाह की दर समझने में वैज्ञानिकों के लिए सहायक सिद्ध हुई हैं। प्रवाह की ये दरें बहुत भिन्न हैं।

आर्कटिक कटक की प्रवाह दर सबसे कम है (2.5 सेंटीमीटर प्रति वर्ष से भी कम)। ईस्टर द्वीप के निकट पूर्वी प्रशांत महासागरीय उभार, जो चिली से 3,400 कि.मी. पश्चिम की ओर दक्षिण प्रशांत महासागर में है, इसकी प्रवाह दर सर्वाधिक है ;जो 5 से.मी. प्रति वर्ष से भी अधिक है।

भारतीय प्लेट का संचलन– भारतीय प्लेट में प्रायद्वीपीय भारत और आस्ट्रेलिया महाद्वीपीय भाग सम्मिलित हैं। भारत एक वृहत् द्वीप था, जो आस्ट्रेलियाई तट से दूर एक विशाल महासागर में स्थित था।

लगभग 22.5 करोड़ वर्ष पूर्व पहले तक टैथीस सागर इसे एशिया महाद्वीप से अलग करता था। लगभग 20 करोड़ पूर्व पैंजिया के विभत्तफ होने पर इसने उत्तर की ओर खिसकना आरंभ किया।

लगभग 4-5 करोड़ वर्ष पूर्व यह एशिया से टकराया, जिसके कारण हिमालय का उत्थान हुआ।

भारतीय प्लेट के एशियाई प्लेट की तरफ प्रवाह के दौरान लावा प्रवाह से हिमालय पर्वत का निर्माण हुआ। यह घटना लगभग 6 करोड़ वर्ष पूर्व आरंभ हुई।

टेलर की महाद्वीपीय विस्थापन परिकल्पना

1. टेलर ने संकुचन सिद्धांत के विपरीत अपने ‘‘स्थल विस्थापन’’ सिद्धांत का प्रतिपादन किया।

2. उन्होंने अपने सिद्धांत का शुभारंभ क्रीटैशिय युग से किया है। उस समय मुख्यतया दो स्थल भाग थे- लॉरेशिया का स्थल भाग उत्तर धु्रव के पास तथा गोंडवाना लैण्ड दक्षिणी ध्रुव के पास स्थित था।

3. उन्होंने यह कल्पना की कि महाद्वीपीय भाग सियाल के बने हैं तथा सागरों में उनका पूर्णतया अभाव है। सियाल भाग अथवा स्थल भाग सीमा पर तैर रहे हैं।

4. टेलर ने महाद्वीपों का प्रवाह मुख्य रूप से विषुवत रेखा की ओर बताया है।

5. स्थल प्रवाह का मुख्य कारण ज्वारीय बल को बताया गया है। क्रिटैशिय युग में जबकि चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई, उस समय यह पृथ्वी के अधिक निकट रहा होगा।

वेगनर का महाद्वीपीय प्रवाह सिद्धांत

1. वेगनर ने जलवायु शाड्ड, पूर्व वनस्पति शाड्ड, भूशाड्ड तथा भूगर्भशाड्ड के प्रमाणों के आधार पर यह मान लिया कि कार्बोनी फेरस युग में समस्त स्थल भाग एक स्थल भाग के रूप में संलग्न थे।

2. इस स्थल पिण्ड का नामकरण पैंजिया किया है। इस पर छोटे-छोटे आन्तरिक सागरों का विस्तार था।

3. इसके चारों ओर एक विशाल जल भाग था, जिसका नामकरण वेगनर के पैंथालासा किया है।

4. पैंजिया का उत्तरी भाग लॉरेशिया उ. अमेरिका, यूरोप तथा एशिया तथा द. भाग गोण्डवाना लैण्ड द. अमेरिका, अफ़्रीकी मैडागास्कर, प्रायद्वीपीय भारत, आस्ट्रेलिया तथा अण्टार्कटिका को प्रदर्शित करता था।

5. पैंजिया में तीन परतें थी। ऊपरी परत सियाल, मध्यवर्ती भाग सीमा तथा केन्द्र भाग निफे का बना माना गया है।

FAQ

पृथ्वी की आंतरिक संरचना को कितने भागों में बांटा गया है?

1. ऊपरी सतह या भू पर्पटी(Crust), 2. आवरण(Mantle) 3. केंद्रीय भाग(Core).

पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी देने वाले साधन कौन कौन से हैं?

भूकम्पीय तरंगें वर्तमान समय में पृथ्वी की आंतरिक संरचना की जानकारी के लिए भूकम्पीय तरंगों का उपयोग अप्रत्यक्ष स्रोतों में सबसे उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साधन साबित हो रहा है।

पृथ्वी की 3 आंतरिक संरचनाएं क्या हैं?

पृथ्वी तीन अलग-अलग परतों से बनी है: क्रस्ट, मेंटल और कोर । यह पृथ्वी की बाहरी परत है और ठोस चट्टान, अधिकतर बेसाल्ट और ग्रेनाइट से बनी है।

पृथ्वी की आंतरिक संरचना में कौन सा तत्व सबसे अधिक पाया जाता है?

पृथ्वी की परत में ऑक्सीजन सबसे प्रचुर मात्रा में तत्व है।

पृथ्वी की तीन परतें कौन कौन सी हैं?

पृथ्वी की तीन परतों के नाम हैं-1. भूपर्पटी, 2. प्रवार, 3. क्रोड।

पृथ्वी का आंतरिक भाग गर्म क्यों है?

पृथ्वी का आंतरिक भाग दो मुख्य कारणों से बहुत गर्म है (कोर का तापमान 5,000 डिग्री सेल्सियस से अधिक तक पहुँच जाता है): ग्रह के निर्माण के समय की गर्मी, रेडियोधर्मी तत्वों के क्षय से निकलने वाली गर्मी ।

पृथ्वी की संरचना की खोज किसने की थी?

परतें सर आइजैक न्यूटन (1700) द्वारा इंगे लेहमैन (1937) द्वारा पृथ्वी की 3 मुख्य परतें निकाली गईं: क्रस्ट, मेंटल, कोर।

पृथ्वी की आंतरिक परत के निर्माण में कौन सा तत्व प्रचुर मात्रा में है?

पृथ्वी का आंतरिक भाग. पृथ्वी का 90 प्रतिशत से अधिक द्रव्यमान लोहा, ऑक्सीजन, सिलिकॉन और मैग्नीशियम से बना है, ये तत्व क्रिस्टलीय खनिजों का निर्माण कर सकते हैं जिन्हें सिलिकेट के रूप में जाना जाता है।

पृथ्वी की आकृति कौन सी है?

पृथ्वी का आकार गोल है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है।

पृथ्वी के केंद्र को क्या कहते हैं?

क्रोड

पृथ्वी की भूपर्पटी में सबसे प्रचुर धातु कौन सी है?

पृथ्वी की भूपर्पटी में सबसे प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली धातु एल्युमीनियम

पृथ्वी का जन्म कब हुआ था?

इस ग्रह की रचना लगभग 4.54 बिलियन वर्ष पूर्व हुई।

दुनिया में कितनी प्लेटें हैं?

विश्व एटलस में सात प्रमुख प्लेटों के नाम बताए गए हैं: अफ्रीकी, अंटार्कटिक, यूरेशियन, इंडो-ऑस्ट्रेलियाई, उत्तरी अमेरिकी, प्रशांत और दक्षिण अमेरिकी। कैलिफ़ोर्निया प्रशांत प्लेट की सीमा पर स्थित है।

सबसे छोटी प्लेट कौन सी है?

जुआन डे फूका प्लेट पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों में सबसे छोटी है।

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